Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1424
    ऋषिः - रेणुर्वैश्वामित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
    19

    स꣡ भक्ष꣢꣯माणो अ꣣मृ꣡त꣢स्य꣣ चा꣡रु꣢ण उ꣣भे꣢꣫ द्यावा꣣ का꣡व्ये꣢ना꣣ वि꣡ श꣢श्रथे । ते꣡जि꣢ष्ठा अ꣣पो꣢ म꣣ꣳह꣢ना꣣ प꣡रि꣢ व्यत꣣ य꣡दी꣢ दे꣣व꣢स्य꣣ श्र꣡व꣢सा꣣ स꣡दो꣢ वि꣣दुः꣢ ॥१४२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः꣢ । भ꣡क्ष꣢꣯माणः । अ꣣मृ꣡त꣢स्य । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯स्य । चा꣡रु꣢꣯णः । उ꣣भे꣡इति꣢ । द्या꣡वा꣢꣯ । का꣡व्ये꣢꣯न । वि । श꣣श्रथे । ते꣡जि꣢꣯ष्ठा । अ꣣पः꣢ । म꣣ꣳह꣡ना꣢ । प꣡रि꣢꣯ । व्य꣣त । य꣣दि꣢꣯ । दे꣣व꣡स्य꣢ । श्र꣡व꣢꣯सा । स꣡दः꣢꣯ । वि꣣दुः꣢ ॥१४२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स भक्षमाणो अमृतस्य चारुण उभे द्यावा काव्येना वि शश्रथे । तेजिष्ठा अपो मꣳहना परि व्यत यदी देवस्य श्रवसा सदो विदुः ॥१४२४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः । भक्षमाणः । अमृतस्य । अ । मृतस्य । चारुणः । उभेइति । द्यावा । काव्येन । वि । शश्रथे । तेजिष्ठा । अपः । मꣳहना । परि । व्यत । यदि । देवस्य । श्रवसा । सदः । विदुः ॥१४२४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1424
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे परमात्मा के उपासक का विषय है।

    पदार्थ

    (सः) वह परमेश्वर का उपासक (चारुणः) सुन्दर (अमृतस्य)उपासनाजन्य दिव्य आनन्द का (भक्षमाणः) सेवन करता हुआ (काव्येन) वेदकाव्य द्वारा (उभे द्यावा) दीप्यमान दोनों अभ्युदय और निःश्रेयस वा ज्ञान और कर्म को (विशश्रथे) विश्लेषणपूर्वक जान लेता है। साथ ही (मंहना) अपने महत्त्व से (तेजिष्ठाः अपः) अतिशय तेजस्वी कर्मों को (परि व्यत) धारण कर लेता है अर्थात् जीवन का अङ्ग बना लेता है (यदि) जिन्हें (सदः) शिष्यभाव से आचार्य के समीप पहुँचनेवाले विद्यार्थी (देवस्य) ज्ञान के प्रकाशक आचार्य के (श्रवसा) उपदेश-श्रवण से (विदुः) जाना करते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा की उपासना का यह फल होता है कि उपासक कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन करके प्रशस्त कर्मों का ही आचरण करता है, निन्दित का नहीं ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (सः) वह (चारुणः-अमृतस्य भक्षमाणः) शोभन रोचमान१ अमृत-मोक्षानन्द का सेवन कराना चाहता हुआ२ सोम—परमात्मा (उभे द्यावा ‘द्यावा पृथिवी’) दोनों द्युलोक पृथिवीलोक—उनके स्वरूप या ज्ञान को (काव्येन) वेदत्रयी—विद्यात्रयी३ के द्वारा (विशश्रये) विधृत करता है—खोलता है४ (तेजिष्ठाः-अपः) अत्यन्त तेजस्वी आप्त उपासक जनों को५ (मंहना परिव्यत) अपनी सुखप्रदान प्रवृत्ति से६ परिप्राप्त होता है (यदि देवस्य सदः श्रवसा विदुः) यदि वे उपासकजन तुझ द्योतमान परमात्मा के सदन—हृदयस्थान को श्रवण द्वारा जान लें७॥२॥

    विशेष

    <br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सदन की प्राप्ति, चारु अमृत का भक्षण

    पदार्थ

    १. मन्त्र का ऋषि ‘रेणुः वैश्वामित्र: ' है — गतिशील, सबके साथ स्नेह करनेवाला। (सः) = वह रेणु (चारुणः) = सुन्दर (अ-मृतस्य) = सोम [वीर्य] और ज्ञान का (भक्षमाणः) = भक्षण करता हुआ (उभे) = दोनों (द्यावा) = [द्यावापृथिव्यौ] मस्तिष्क व शरीर को (काव्येन) = प्रभु के अमृतमय काव्य वेद के द्वारा (विशश्रथे) = मुक्त [liberate] करता है । वीर्य को शरीर में ही व्याप्त करने के द्वारा यह पृथिवीरूप शरीर को रोगों से मुक्त करता है, और ज्ञान प्राप्त करने से अपने मस्तिष्क व हृदय को दुर्विचारों व वासनाओं से मुक्त रखता है। यहाँ उभे विशेषण के कारण 'द्यावा' शब्द द्यावापृथिव्यौ का ही वाचक है। शरीर के रोगों से मोक्ष के लिए अमरत्व के साधनभूत सोम का पान - वीर्य की रक्षा आवश्यक है और मस्तिष्क व हृदय को दुर्विचारों व वासनाओं से मुक्त करने के लिए अमृतत्व के साधनभूत ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है–'ब्रह्मचर्य' ज्ञान का भक्षण ही तो है । २. ऐसा करने पर इस रेणु के (अपः) = कर्म (तेजिष्ठाः) = अत्यन्त तेजस्वी होते हैं । इसका प्रत्येक कार्य सफल होता है और एक विशेष ही प्रभाव रखता है । ३. (मंहना परिव्यत) = दान से यह अपने चारों ओर के लोक को आच्छादित कर लेता है। इस त्याग का परिणाम यह होता है कि इसकी प्रकृति के प्रति आसक्ति नहीं रहती और ४. (यत् ई) = ज्यूँही (देवस्य) = उस दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभु के (श्रवसा) = स्तोत्रों से [श्रवस् Hymn] इनका जीवन युक्त होता है त्यूँही ये रेणु वैश्वामित्र (सदो विदुः) = उस सर्वाधिष्ठान प्रभु को प्राप्त करते हैं ।
     

    भावार्थ

    हम सोम व ज्ञान का भक्षण करें, हमारे कर्म तेजस्वी हों, हम दान से सभी को आच्छादित कर लें, अर्थात् हमारा दान व्यापक हो और प्रभु-स्तवन द्वारा हम अपने वास्तविक घर को– ब्रह्मलोक को प्राप्त करें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    missing

    भावार्थ

    (यदि) जिस दशा में विद्वान् लोग (देवस्य) उस उपास्यदेव के (सदः) आश्रयस्थान हृदय देश को (श्रवसा) गुरुपदेश द्वारा (विदुः) ज्ञान कर लेते हैं तब (सः) वह पवमान सोमसाधक (चारुणः) अति उत्तमरूप, उपभोग करने योग्य (अमृतस्य) अमृत या अमरत्व का (भक्षमाणः) सेवन करता हुआ (काव्येन) अपने ज्ञान-सामर्थ्य से (उभे द्यावा*) दिव्यगुणयुक्त आत्मा और परमात्मा दोनों को (विशश्रथे*) प्राप्त करता है और (मंहना) अपने तपोमहत्व से (तेजिष्ठाः) अति तेज़ से सम्पन्न (अपः) लोकों या प्राणों में (परि व्यत) विचरता है। ऋग्वेद में ‘भिक्षमाणः’ पाठ है। इसलिये उस पक्ष में (सः) वह साधक (चारुणः, अमृतस्य) उत्तम अमरत्व की (भिक्षमाणः) याचना करता हुआ। (उभे द्यावा विशश्रथे) दोनों तेजोमय आत्माओं को प्राप्त करता है, इत्यादि पूर्ववत्। अथवा (उभे द्यावा) दिव्यगुणयुक्त प्राण और अपान दोनों को (विशश्रथे) शिथिल या वश कर लेता है। दोनों के बन्धनों को ढीला कर देता है। दोनों को वश करके विदेह-मुक्त होजाता है।

    टिप्पणी

    ‘स भिक्षमाणो’ इति ऋ०। ‘भिक्ष्यमाण’, ‘भक्ष्यमाण’ इति पाठौ सायणसम्मतौ, जीवानन्दीये ‘भक्ष्यमाण’ इति च सर्वे प्रामादिकाः पाठः निर्णयसागरीये ऋकसायणभाष्ये, अन्यासु सामसंहितासु लन्दन-कालिकातामुद्रितासु च तथाऽनुपलम्भात्। *द्यावापृथिव्यौ प्राणापानौ, (शत०)। *‘श्रथ हिंसार्थः’ क्रयादिः , श्रय प्रयत्ने प्रस्थाने च, चुरादिः, श्रय मोक्षणे, चुरादिः, श्रधि दौर्बल्ये, चुरादिः श्रथि शैथिल्ये, भ्वादिः , श्रन्थ विमोचनप्रतिहर्षयोः, क्र्यादि०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मोपासकविषयमाह।

    पदार्थः

    (सः) असौ परमेश्वरोपासकः (चारुणः) रमणीयस्य (अमृतस्य) उपासनाजन्यस्य दिव्यानन्दस्य (भक्षमाणः)सेवनं कुर्वन् (काव्येन) वेदकाव्येन (उभे द्यावा) द्योतमाने उभे अभ्युदयनिःश्रेयसे ज्ञानकर्मणी वा (वि शश्रथे) विश्लेषयति, विश्लिष्य जानातीत्यर्थः। अपि च (मंहना) महत्त्वेन (तेजिष्ठाः अपः) तेजस्वितमानि कर्माणि (परिव्यत) धारयति, जीवनस्याङ्गतां नयतीत्यर्थः (यदि) यानि खलु (सदः) शिष्यभावेन उपसत्तारः विद्यार्थिनः (देवस्य) ज्ञानप्रकाशकस्य आचार्यस्य (श्रवसा) उपदेश-श्रवणेन (विदुः) जानन्ति ॥२॥

    भावार्थः

    परमात्मोपासनाया इदं फलं यदुपासकः कर्तव्याकर्तव्ये विविच्य प्रशस्तान्येव कर्माण्याचरति न निन्दितानि ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    When learned persons know from the Guru through his instruction, the real nature of the heart, the seat of God, a pure seeker amongst them enjoying the excellent sense of immortality, with the force of his knowledge, attains to both God and soul, and through the intensity of his penance, full of glory, controls his breaths.

    Translator Comment

    $ In Rigveda the word भिक्षमाणः, is used, but in Samaveda, It is भक्षमाणः Sayana has translated the word by mistake as भिक्षमाणः, which is not found in the text.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    He, loving, sharing and pervading the immortal beauty of existence, orders and adorns both heaven and earth with his art, intelligence and poetic sublimity, also vesting the vapours of the middle regions with his might and splendour. Those who know the reality of the lords creation along with his power, love and generosity really know and share the bliss. (Rg. 9-70-2)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सः) તે (चारुणः अमृतस्य भक्षमाणः) શોભન પ્રકાશમાન અમૃત-મોક્ષાનંદનું સેવન કરવા ઇચ્છતાં સોમ-પરમાત્મા (उभे द्यावा "द्यावा पृथिवी") બન્ને દ્યુલોક અને પૃથિવીલોક તેનું સ્વરૂપ અથવા જ્ઞાનને (काव्येन) વેદત્રયી વિદ્યાત્રયીના દ્વારા (विशश्रये) વિધૃત કરે છે-ખોલે છે. (तेजिष्ठाः अपः) અત્યંત તેજસ્વી આપ્ત ઉપાસક જનોને (मंहना परिव्यत) પોતાની સુખપ્રદાન પ્રવૃત્તિથી પરિપ્રાપ્ત થાય છે. (यदि देवस्य सदः श्रवसा विदुः) જો તે ઉપાસકજનો તારા પ્રકાશમાન પરમાત્માનાં સદન-હૃદયઘરમાં શ્રવણ દ્વારા જાણી લે. (૨)
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याच्या उपासनेचे फळ हे आहे, की उपासक कर्तव्य-अकर्तव्याचे विवेचन करून प्रशंसनीय कर्माचेच आचरण करतो, निंदित नव्हे. ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top