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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1425
ऋषिः - रेणुर्वैश्वामित्रः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
33
ते꣡ अ꣢स्य सन्तु के꣣त꣡वोऽमृ꣢꣯त्य꣣वो꣡ऽदा꣢भ्यासो ज꣣नु꣡षी꣢ उ꣣भे꣡ अनु꣢꣯ । ये꣡भि꣢र्नृ꣣म्णा꣡ च꣢ दे꣣꣬व्या꣢꣯ च पुन꣣त꣡ आदिद्राजा꣢꣯नं म꣣न꣡ना꣢ अगृभ्णत ॥१४२५॥
स्वर सहित पद पाठते । अ꣣स्य । सन्तु । केत꣡वः꣢ । अ꣡मृ꣢꣯त्यवः । अ । मृ꣣त्यवः । अ꣡दा꣣भ्यासः । अ । दा꣣भ्यासः । जनु꣢षी꣣इ꣡ति꣢ । उ꣣भे꣡इति꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । ये꣡भिः꣢꣯ । नृ꣢म्णा꣢ । च꣣ । देव्या꣢꣯ । च꣣ । पुनते꣢ । आत् । इत् । रा꣡जा꣢꣯नम् । म꣣न꣡नाः꣢ । अ꣣गृभ्णत ॥१४२५॥
स्वर रहित मन्त्र
ते अस्य सन्तु केतवोऽमृत्यवोऽदाभ्यासो जनुषी उभे अनु । येभिर्नृम्णा च देव्या च पुनत आदिद्राजानं मनना अगृभ्णत ॥१४२५॥
स्वर रहित पद पाठ
ते । अस्य । सन्तु । केतवः । अमृत्यवः । अ । मृत्यवः । अदाभ्यासः । अ । दाभ्यासः । जनुषीइति । उभेइति । अनु । येभिः । नृम्णा । च । देव्या । च । पुनते । आत् । इत् । राजानम् । मननाः । अगृभ्णत ॥१४२५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1425
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा के तेज का विषय है।
पदार्थ
(अस्य) इस सोम परमात्मा की (ते) वे प्रसिद्ध (अमृत्यवः)अमरणशील वा न मारनेवाली, (अदाभ्यासः) पराजित न की जा सकनेवाली (केतवः) तेज की किरणें (उभे जनुषी) दोनों जन्मों को अर्थात् इस जन्म तथा अगले जन्म को (अनु सन्तु)अनुगृहीत करें, (येभिः) जिन तेज की किरणों से (मननाः) मननशील उपासक अपने (नृम्णा च) देह-बल से किये जाने योग्य कर्मों को (दैव्या च) और आत्म-बल से किये जाने योग्य कर्मों को (पुनते) पवित्र कर लेते हैं। (आत् इत्) और उसके अनन्तर ही (राजानम्) तेजस्वी परमेश्वर को (अगृभ्णत) ग्रहण कर पाते हैं ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा के तेजों का ध्यान करने तथा उन्हें धारण करने से यह लोक, परलोक और सब कर्म शुद्ध हो जाते हैं तथा परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है ॥३॥ इस खण्ड में परमेश्वर की उपासना तथा सोमयाग के फल का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ बारहवें अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(अस्य) इस सोम—शान्त परमात्मा के (ते केतवः) वे पूर्वोक्त प्रज्ञानवान्८ मुमुक्षु उपासक (अमृत्यवः-अदाभ्यः सन्तु) मृत्युरहित, अमर, अहिंसनीय हो जावे (उभे जनुषी अनु) दोनों जन्म—प्रादुर्भाव—संसार में आना, आने पर ‘अदाभ्य’—अहिंसनीय पुनः मोक्ष में जाने पर ‘अमृत्यु’ मृत्युरहित—अमर हो जाते हैं (येभिः) जिन्हें लक्ष्य कर या जिनके लिये९ (नृम्णा च देव्या च) संसार में अन्नादि भोग और मोक्ष में ‘देव्या’ देवों मुक्तों के योग्य मोद आनन्द आदि (पुनते) प्राप्त कराता है१० (आत्-इत्) अनन्तर ही (मननाः-राजानम्-अगृभ्णत) अर्चना स्तुति करने वाले उपासक११ प्रकाशमान परमात्मा को स्वात्मा में ग्रहण करते हैं॥३॥
विशेष
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विषय
धनों व गुणों का पवित्रीकरण
पदार्थ
१. इस रेणु ने ज्ञान के भक्षण के द्वारा जो ज्ञान की किरणें प्राप्त की हैं (अस्य) = इसकी ते (केतवः) = वे ज्ञान-किरणें (अमृत्यवः) = इसके शरीर को असमय में नष्ट न होने देनेवाली तथा (अदाभ्यास:) = इसके मन को वासनाओं से मलिन न होने देनेवाली [Undefiled, pure] (सन्तु) = हों । (उभे) = दोनों (जनुषी) = जीवनों को—भौतिक तथा आध्यात्मिक जीवन को (अनु) = लक्ष्य करके ये उसे (अमृत्यवः) = रोगों से आक्रान्त न होने देनेवाली तथा (अदाभ्यासः) = वासनाओं से हिंसित न [Uninjured] होने देनेवाली हैं । ज्ञान की किरणों का भौतिक जीवन पर प्रभाव यह है कि मनुष्य मर्यादित जीवनवाला होकर रोगों का शिकार नहीं होता तथा आध्यात्मिक जीवन पर इसका प्रभाव यह है कि वासनाएँ इसपर आक्रमण नहीं कर पाती ।
२. ये ज्ञान की किरणें वे हैं (येभिः) = जिनसे ये अपने (नृम्णा) = शक्ति, साहस व धनों [Strength, courge, wealth] को (च) = तथा (देव्या) = दिव्य गुणों को (पुनते) = पवित्र कर लेते हैं । ये ज्ञान के कारण हीनाकर्षण से दूर रहकर निकृष्ट सुखों का भोग नहीं करते और इनके दिव्य गुण और अधिक दीप्त हो उठते हैं। परिणामतः इनकी शक्ति ठीक बनी रहती है ।
३. (आत् इत्) = इन दो बातों के अनन्तर ये रेणु वैश्वामित्र लोग (मनना:) = मननशील होकर प्रभु के नामों का मनन करते हुए (राजानम्) = सम्पूर्ण संसार को नियमित [regulate] करनेवाले देदीप्यमान [राजा=व्यवस्थापक, देदीप्यमान] प्रभु को (अगृभ्णत) = ग्रहण करते हैं । प्रभु की प्राप्ति के लिए ज्ञान के द्वारा अपने धनों, शक्तियों व गुणों को पवित्र करना आवश्यक है ।
भावार्थ
हम अपने धनों, बलों व गुणों के मापक को ऊँचा करके मनन द्वारा प्रभु को प्राप्त
करने का प्रयत्न करें ।
विषय
missing
भावार्थ
(अस्य) इस सोमरूप योगी आत्मा के (उभे जनुषी अनु) दोनों जन्म अर्थात् इह और पर दोनों लोकों में (अमृत्यवः) अमर, अविनाशी, (अदाभ्यासः) अखण्डित, अमिट (ते) वह वह (केतवः) ज्ञान और रश्मियों, विभूतियां (सन्तु) उत्पन्न हो जाती हैं (याभिः) जिन के बल से वह (नृमणा) मनुष्यों के अभिलाषा योग्य और (देव्या) देवों, विद्वानों के प्राप्त करने योग्य लोक लोकान्तरों को भी (पुनते) प्राप्त करता हैं। (आत् इत्) और उस विभूति के प्राप्त कर लेने के अनन्तर (राजानम्) सर्वतः प्रकाशमान्, सर्वतो वशी राजास्वरूप उस आत्मा को (मननाः) मनन करने से प्राप्त मानसिक संकल्प ही (अगृभ्णत) धारण किये रहते हैं, अर्थात् उस दशा में उसके समस्त संकल्प ही उस आत्मा को लोक लोकान्तरों तक पहुंचाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मतेजोविषयमाह।
पदार्थः
(अस्य) सोमस्य परमात्मनः (ते) प्रसिद्धाः (अमृत्यवः) अमरणशीलाः अमारकाः वा, (अदाभ्यासः) दब्धुं पराजेतुमशक्याः (केतवः) तेजोरश्मयः (उभे जनुषी) द्वे अपि जन्मनी, इदं जन्म परं जन्म च (अनु सन्तु) अनुगृह्णन्तु (येभिः) यैस्तेजोरश्मिभिः (मननाः) मननशीला उपासकाः स्वकीयानि (नृम्णा च) नृम्णानि दैहिकबलेन सम्पाद्यमानानि कर्माणि (देव्या च) आत्मबलेन सम्पाद्यमानानि च कर्माणि (पुनते)पावयन्ति। (आत् इत्) तदनन्तरमेव च (राजानम्)राजमानं परमेश्वरम् (अगृभ्णत) गृह्णन्ति ॥३॥
भावार्थः
परमात्मतेजसां ध्यानेन धारणेन चायं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च कर्माणि शुध्यन्ति परमात्मसाक्षात्कारश्च जायते ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमेश्वरोपासनाविषयस्य सोमयागफलस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Immortal and inviolate superhuman powers are created in a Yogi both in this world and the next; on the strength of which, he roams in different regions which ordinary mortals and learned persons long for. After the attainment of superhuman power, mental, reflective resolves alone sustain the kingly soul.
Meaning
May those radiations of the light and power of this divine Soma, spirit of bliss, free from mortality, deception or unreality, by which the lord strengthens, purifies and sanctifies acts and virtues both human and natural, be in accord with life, human as well as of other forms, and may humanity receive and internalise that divine spirit of love, peace and refulgence with all their thought, thoughtful action and meditation. (Rg. 9-70-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अस्य) એ સોમ-શાન્ત પરમાત્માના (ते केतवः) તે પૂર્વોક્ત પ્રજ્ઞાવાન મુમુક્ષુ ઉપાસકો (अमृत्यवः अदाभ्यः सन्तु) મૃત્યુરહિત, અમર, અહિંસનીય બની જાય (उभे जनुषी अनु) બન્ને જન્મ-પ્રાદુર્ભાવ-સંસારમાં આવવું આવીને ‘અદાભ્ય’ અહિંસનીય ફરી મોક્ષમાં જઈને ‘અમૃત્યુ’ મૃત્યુરહિત-અમર બની જાય છે. (येभिः) જે લક્ષ્ય કરીને અર્થાત્ જેના માટે (नृम्णा च देव्या च) સંસારમાં અન્ન આદિ ભોગ અને મોક્ષમાં ‘દેવ્યા’ દેવો-મુક્તોને યોગ્ય મોહ-આનંદ આદિ (पुनते) પ્રાપ્ત કરાવે છે. (आत् इत्) ત્યાર પછી જ (ममनाः राजानम् अगृभ्णत) અર્ચના સ્તુતિ કરનારા ઉપાસકો પ્રકાશમાન પરમાત્માને પોતાના આત્મામાં ગ્રહણ કરે છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याच्या तेजाचे ध्यान करण्याने व त्यांना धारण करण्याने हा लोक व परलोक, तसेच सर्व कर्म शुद्ध होतात व परमात्म्याचा साक्षात्कार होतो. ॥३॥
टिप्पणी
या खंडात परमेश्वराची उपासना व सोमयागाचे फळ यांचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणली पाहिजे
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