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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1717
ऋषिः - अवत्सारः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
66
त꣡ꣳ हि꣢न्वन्ति मद꣣च्यु꣢त꣣ꣳ ह꣡रिं꣢ न꣣दी꣡षु꣢ वा꣣जि꣡न꣢म् । इ꣢न्दु꣣मि꣡न्द्रा꣢य मत्स꣣र꣢म् ॥१७१७॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । हि꣣न्वन्ति । मदच्यु꣡त꣢म् । म꣣द । च्यु꣡त꣢꣯म् । ह꣡रि꣢꣯म् । न꣣दी꣡षु꣢ । वा꣣जि꣡न꣢म् । इ꣡न्दु꣢꣯म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । म꣣त्सर꣢म् ॥१७१७॥
स्वर रहित मन्त्र
तꣳ हिन्वन्ति मदच्युतꣳ हरिं नदीषु वाजिनम् । इन्दुमिन्द्राय मत्सरम् ॥१७१७॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । हिन्वन्ति । मदच्युतम् । मद । च्युतम् । हरिम् । नदीषु । वाजिनम् । इन्दुम् । इन्द्राय । मत्सरम् ॥१७१७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1717
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में उपासक लोग क्या करते हैं, यह कहा गया है।
पदार्थ
प्रबोध को प्राप्त जागरूक उपासक लोग (मदच्युतम्) उत्साहवर्षी, (हरिम्) पापहर्ता, (वाजिनम्) बलवान् (मत्सरम्) तृप्तिप्रद (तम्) उस अद्भुत (इन्दुम्) ब्रह्मानन्द-रस को (नदीषु) धाराओं के रूप में (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए (हिन्वन्ति) प्रेरित करते हैं ॥४॥
भावार्थ
जो लोग परमात्मा की उपासना द्वारा ब्रह्मानन्द की धाराओं से अपने आत्मा को तृप्त करते हैं, वे धन्य हो जाते हैं ॥४॥
पदार्थ
(तम्) उस—(मदच्युतम्) हर्ष बहाने वाले१ (हरिम्) दुःखहर्ता—(वाजिनम्) बलवान्—(मत्सरम्) आनन्दस्वरूप—(इन्दुम्) दीप्त परमात्मा को (इन्द्राय) उपासक आत्मा के लिये (नदीषु हिन्वन्ति) स्तुतिधाराओं में२ उपासकजन प्राप्त करते हैं३॥४॥
विशेष
<br>
विषय
किसकी ओर ? उस प्रभु की ओर
पदार्थ
गत मन्त्र में कहा था कि–'दुर्धी' से– दुष्ट बुद्धि से मनुष्य प्रभु के व्रतों को तोड़ते हैं। व्रतों को तोड़ने पर कष्ट आते हैं, ये कड़वे अनुभव उन्हें फिर से 'सुधी' बनाते हैं और ये सुधी पुरुष (तम्) = उस प्रभु को (हिन्वन्ति) = प्राप्त करते हैं – उस प्रभु की ओर चलते हैं जो -
१. (मदच्युतम्) = सब अहंकार के नाशक है अथवा हर्ष की वर्षा करनेवाले हैं, ‘मदच्युत्’ शब्द के ये दोनों ही अर्थ हैं और इनमें कार्यकारणभाव है। जितना - जितना अहंकार नष्ट होता जाता है उतना-उतना आनन्द अभिवृद्ध होता चलता है।
२. (हरिम्) = सब दोषों व दु:खों का हरण करनेवाले हैं। प्रभु हमारे देषों को दूर करते हैं और इस प्रकार हमारे दु:खों को भी दूर कर देते हैं।
३. (नदीषु वाजिनम्) = अपने स्तोताओं में वाजशक्ति का संचार करनेवाले हैं । हम प्रभु के स्मरण से उसके सम्पर्क में आते हैं और इस सम्पर्क से हममें प्रभु-शक्ति का प्रवाह होता है । ४. इन्दुम्=वे प्रभु परमैश्वर्यशाली हैं। उनका मित्र बन मैं भी इस परमैश्वर्य में भागीदार बनता हूँ ।
५. (इन्द्राय मत्सरम्) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जितेन्द्रिय भक्त के लिए वे प्रभु हर्ष देनेवाले हैं । प्रभु का सम्पर्क मुझे वासनाओं के विजय में समर्थ करता है। मैं इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनता हूँ और ('सर्वमात्मवशं सुखम्') इस नियम के अनुसार मेरा जीवन उल्लासमय होता है।
भावार्थ
हम सदा प्रभु की ओर चलनेवाले बनें ।
विषय
missing
भावार्थ
(तं) उस (मदच्युतं) आनन्द रस के बहाने वाले, (वाजिनम्) ज्ञानमय, (हरिं) दुःखों के हरण करने हारे, सर्वव्यापक (मत्सरम्) स्वयं परमसुखजनक, आनन्दस्वरूप (इन्दुम्) परमेश्वर को (इन्द्राय) अपने आत्मा के हित के लिये (हिन्वान्ति) उपासना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथोपासकाः किं कुर्वन्तीत्याह।
पदार्थः
प्राप्तप्रबोधा जागरूका उपासका जनाः (मदच्युतम्) उत्साहस्राविणम्, (हरिम्) पापहर्तारम्, (वाजिनम्) बलवन्तम्, (मत्सरम्) तृप्तिप्रदम्, (तम्) अद्भुतम् (इन्दुम्) ब्रह्मानन्दरसम् (नदीषु) धारासु (इन्द्राय) जीवात्मने (हिन्वन्ति) प्रेरयन्ति ॥४॥
भावार्थः
ये जनाः परमात्मोपासनया ब्रह्मानन्दधाराभिः स्वात्मानं तर्पयन्ति ते धन्या जायन्ते ॥४॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Men worship for the welfare of the sold, God, the Augmenter of rapture, the Eliminator of afflictions, and the Bestower of supreme felicity.
Meaning
That Soma, giver of showers of sweetness and joy, lord of peace and power, destroyer of suffering, energising and flowing in streams of the universal dynamics of existence, people admire and adore, for the joy and ecstasy of Indra, the living soul. (Rg. 9-53-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (तम्) તે (मदच्युतम्) હર્ષ વહાવનાર, (हरिम्) દુ:ખહર્તા, (वाजिनम्) બળવાન, (मत्सरम्) આનંદ સ્વરૂપ, (इन्दुम्) પ્રકાશમાન પરમાત્માને (इन्द्राय) ઉપાસક આત્માને માટે (नदीषु हिन्वन्ति) સ્તુતિ ધારાઓમાં ઉપાસકજન પ્રાપ્ત કરે છે. (૪)
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक परमात्म्याच्या उपासनेद्वारे ब्रह्मानंदाच्या धारांनी आपल्या आत्म्याला तृप्त करतात ते धन्य होतात. ॥४॥
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