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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 340
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    50

    आ꣢ त्वा꣣ स꣡खा꣢यः स꣣ख्या꣡ व꣢वृत्युस्ति꣣रः꣢ पु꣣रू꣡ चि꣢दर्ण꣣वां꣡ ज꣢गम्याः । पि꣣तु꣡र्नपा꣢꣯त꣣मा꣡ द꣢धीत वे꣣धा꣡ अ꣣स्मि꣡न्क्षये꣢꣯ प्रत꣣रां꣡ दीद्या꣢꣯नः ॥३४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । त्वा꣣ । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । सख्या꣢ । स꣣ । ख्या꣢ । व꣣वृत्युः । तिरः꣢ । पु꣣रु꣢ । चि꣣त् । अर्णवा꣢न् । ज꣣गम्याः । पितुः꣢ । न꣡पा꣢꣯तम् । आ । द꣣धीत । वेधाः꣢ । अ꣣स्मि꣢न् । क्ष꣡ये꣢꣯ । प्र꣣तरा꣢म् । दी꣡द्या꣢꣯नः । ॥३४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वा सखायः सख्या ववृत्युस्तिरः पुरू चिदर्णवां जगम्याः । पितुर्नपातमा दधीत वेधा अस्मिन्क्षये प्रतरां दीद्यानः ॥३४०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । त्वा । सखायः । स । खायः । सख्या । स । ख्या । ववृत्युः । तिरः । पुरु । चित् । अर्णवान् । जगम्याः । पितुः । नपातम् । आ । दधीत । वेधाः । अस्मिन् । क्षये । प्रतराम् । दीद्यानः । ॥३४०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 340
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र की मित्रता का विषय है।

    पदार्थ

    हे इन्द्र परमेश्वर ! (सखायः) आपके सखा स्तोता लोग सदा ही (त्वा) आपको (सख्या) सखिभाव से (आ ववृत्युः) स्वीकार करें। (तिरः) उनको प्राप्त होकर आप (पुरु चित्) बहुत अधिक (अर्णवान्) आनन्द के सागरों को (जगम्याः) प्राप्त कराओ। (वेधाः) स्तुति और पुरुषार्थ का कर्ता वह आपका सखा (अस्मिन् क्षये) इस घर में, गृहस्थाश्रम में (प्रतराम्) अत्यधिक (दीद्यानः) तेज और यश से प्रदीप्त होता हुआ (पितुः) अपने पिता के, वैसे ही तेजस्वी और यशस्वी (नपातम्) पौत्र को अर्थात् अपने पुत्र को (आदधीत) उत्पन्न करे ॥९॥

    भावार्थ

    जो जगदीश्वर से मित्रता जोड़ता है, उसे वह आनन्द-सागर में निमग्न कर देता है। जगदीश्वर का वह सखा शास्त्रोक्त विधि से गृहस्थाश्रम का पालन करता हुआ अपने अनुरूप तेजस्वी और यशस्वी पुत्र का पिता बनता है ॥९॥

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    पदार्थ

    (त्वा) हे परमात्मन्! तुझे (सखायः) समान धर्म वाले उपासकजन (सख्या) मित्रभाव से (आववृत्युः) भलीभाँति वरें—वरते हैं (तिरः-पुरूचित्-अर्णवं जगम्याः) तू विस्तृत बहुत ही आनन्दार्णव को स्वतः प्राप्त है (पितुः-नपातम्-आदधीत) पिता जैसे अपने नप्ता—नाति को गोद में लेता—उसमें अपनी सम्पत्ति को सौंपता है उसी भांति मुझ नपात्—नप्ता—नाती को गोद में ले, मुझे अपना आनन्दार्णव धारण करा (वेधाः) हे विधाता (अस्मिन्क्षये) इस मेरे निवासस्थान हृदय में प्रबल प्रकाश करते हुए मुझे अपना। (प्रतरं दीघानः) आप प्रदीप्त होते हुए मेरे हृदय में विराजमान होवें।

    भावार्थ

    महान् आनन्दसागर परमात्मा को प्राप्त हुए हम उसके सख्य को वरण किए हुए सखा हैं, पिता जैसे नाती को गोद में लेता है ऐसे ही वह हमें गोद में आधान करता है। वह विधाता मेरे हृदय घर में प्रदीप्त होता हुआ—प्रकाश करता हुआ विराजमान रहे॥९॥

    विशेष

    ऋषिः—वामदेवः (वननीय उपासनीय देव जिसका है)॥<br>

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    विषय

    एक आदर्श घर [ पारिवारिक जीवन ]

    पदार्थ

    आदर्श घर वह है जिसमें सब व्यक्ति १.(त्व सखायः) = प्रभुरूप मित्रवाले होते हुए (सख्या)=परस्पर मित्ररूप से (आ) = सर्वथा (ववृत्युः) = बर्ताव करते हैं। परस्पर मित्रभाव रखने के
    लिए आवश्यक यह कि सब उस प्रभु को मित्र बनाकर चलते हैं तो आपस में भी मित्रता से चल पाते हैं—आपस का माधुर्य बना रहता है। २. इस घर में रहकर गृहस्थ (तिरः) = प्राप्त, परन्तु (पुरूचित्) = निश्चितरूप से पालक व पूरक (अर्णवान्) = कामों को [कामो हि समुद्रः] (जगम्या:)=प्राप्त हो। गृहस्थ में यद्यपि ('कामात्मता न प्रशस्ता') = कामात्मता ठीक नहीं है तो न चैवेहास्त्यकामता=बिल्कुल काम- शून्यता भी सम्भव नहीं। औरों के भोगों को देखकर जलना तो ठीक नहीं, परन्तु प्राप्त [ तिरः] भोगों के सेवन में पाप नहीं बशर्ते कि वे नाशक न होकर पुरूचित्=पालक व पूरक हों। ३. इस गृहस्थ में (वेधाः) = मेधावी प्रजापालक गृहस्थ (पितुः)=पिता के (न पातम्) = वंश को उच्छिन्न न करनेवाले सन्तान को आदधीत धारण करें। (‘प्रजाभिरग्ने अमृतत्वमश्याम') = इस वेद के आदेश के अनुसार एक सद् गृहस्थ प्रजा के द्वारा अपने को अमर बनाने का प्रयत्न करे। ४. और (अस्मिन्) = इस क्(षये) = घर में (प्रतराम्) = खूब (दीद्यान:) = चमकने का प्रयत्न करे-अपने मस्तिष्क को ज्ञान की ज्योति से उज्ज्वल बनाए । ‘वामदेव गौतम' का कर्त्तव्य है कि वह अपने घर में उल्लिखित चार बातों को अवश्य उत्पन्न करे। इनके बिना घर कभी 'उत्तम घर' नहीं बन सकता।

    भावार्थ

    हम प्रभु मित्रता में परस्पर मित्रता से चलें, संसार के उचित आनन्दों को प्राप्त करें और ज्ञान से अपने को उज्ज्वल बनाएँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे इन्द्र ! ( सखायः ) = तेरे समान ख्याति चाहने वाले, तेरे स्नेही ( सख्या) = मित्रभाव से ( त्वा ) = तुझको ( आववृत्युः ) = प्रेम करते हैं या अपनाते हैं ।  तू ( तिरः ) = तिर्यग् योनियों में ( पुरू ) = इन्द्रियों या प्रजाओं में ( चिद् ) = चेतनावान् होकर ( अर्णवम् ) = देह में ( जगम्याः ) = प्रविष्ट है, उसको प्राप्त है। तू (  अस्मिन्ये क्षये  ) = इसनिवासयोग्य देह में ( प्रतरां ) = अति उत्तम प्रकार से ( दीद्यानः ) = प्रकाशमान होता हुआ, ( वेधाः ) = ज्ञान सम्पन्न होकर ( पितुः ) = सबके पालन करनेहारे परमेश्वर के समान ( पातं ) = हमारी रक्षा ( आदधीत ) = कर । इन्द्रियों का आत्मा के प्रति प्रजा का राजा या परमेश्वर के प्रति कथन है ।

    टिप्पणी

    ३४० ‘‘चित्त्सखायं सख्या, ववृत्यां तिरः पुरूचिदर्णवं जगन्वान् । पितुर्नपातमादधीत वेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः" । इति ऋ० ।
    १. यमी ऋषिः, ऋग्वेदे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वामदेव:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - त्रिष्टुभ्। 

    स्वरः - धैवतः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रसख्यविषयमाह।

    पदार्थः

    हे इन्द्र परमेश्वर ! (सखायः) तव सहचराः स्तोतृजनाः सदैव (त्वा) त्वाम् (सख्या) सख्येन। सख्यशब्दात् तृतीयैकवचने ‘सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९’ इति विभक्तेराकारादेशः। (आ ववृत्युः) स्वीकुर्युः। आङ् पूर्वात् वृतु वर्तने धातोश्छन्दसि शपः श्लौ लिङि रूपम्। (तिरः) तान् प्राप्तः, त्वम्। तिरः सतः इति प्राप्तस्य। निरु० ३।२०। (पुरु चित्) बहु यथा स्यात् तथा (अर्णवान्) आनन्दसागरान् (जगम्याः) प्रापय। गम्लृ गतौ धातोर्यङ्लुगन्तस्य लिङि रूपम्। अभ्यासस्य छान्दसो नुमभावः। (वेधाः) स्तुतेः पुरुषार्थस्य च विधाता स तव सखा (अस्मिन् क्षये) एतस्मिन् गृहे गृहस्थाश्रमे इत्यर्थः (प्रतराम्) अत्यधिकं (दीद्यानः) तेजसा यशसा च दीप्यमानः सन्। दीदयतिः ज्वलतिकर्मा। निघं० १।१६। (पितुः) स्वजनकस्य (नपातम्२) तादृशमेव तेजस्विनं यशस्विनं च नप्तारं, स्वकीयं पुत्रम् इत्यर्थः। (आदधीत) उत्पादयेत् ॥९॥

    भावार्थः

    जो जगदीश्वरेण सख्यं बध्नाति तं स आनन्दसागरे निमग्नं करोति। जगदीश्वरस्य स सखा शास्त्रोक्तविधिना गृहस्थाश्रमं पालयन् स्वानुरूपस्य तेजस्विनो यशस्विनश्च तनयस्य पिता जायते ॥९॥

    टिप्पणीः

    १. मन्त्रोऽयमृग्वेदे पाठान्तरेण यमयमीसंवादे ऋ० १०।१०।१ इत्यत्र पठितः। तत्रेदं यम्या यमं प्रति वचनम्। तत्र ऋषिका यमी, देवता च यमः। न तत्र ‘इन्द्रेण’ कश्चित् सम्बन्धः। एष तावत् तत्रत्यः पाठः—‘ओ चित् सखायं सख्या ववृत्यां तिरः पुरू चिदर्णवं जगन्वान्। पितुर्नपातमादधीत वेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः’ इति। अथर्ववेदे १८।१।१ इत्यत्रापि स एव पाठः, तत्र ऋषिः अथर्वा, देवता च यमः। २. पितुर्न....पितुरिव पातं रक्षणम्। यथा कश्चित् पितुः रक्षणम् आधत्ते तद्वत् भवानपि अस्माकम् आदधीत आदधातु करोत्वित्यर्थः इति विवरणकृद्व्याख्यानं तु पदकारविरुद्धं, तत्र ‘नपातम्’ इत्येकपदत्वेन ग्रहणात्। ‘पितुर्मदीयस्य नपातं पौत्रं, मम पुत्रमित्यर्थः, आदधीत वेधाः विधाता इन्द्रः’—इति भ०। सायणस्यापि स एवाशयः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, may worshippers treat The as a friend. Outstretching the atmospheric ocean, Thou invisibly art All pervading. May the Disposer grant offspring to the father, and be radiant in this world with special lustre!

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    Meaning

    With love and devotion, friendly celebrants come to you, Indra, who pervade and transcend the vast spaces of existence a long way. And I pray that shining self-refulgent in this world and knowing your parental obligation, you bless the father with a son. (Rg. 10-10-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ


    પદાર્થ : (त्वा) હે પરમાત્મન્ ! તને (सखायः) સમાન ધર્મવાળા ઉપાસકજન (सख्या) મિત્રભાવથી (आववृत्युः) સારી રીતે વરે-વરણ કરે છે (तिरः पुरुचित् अर्णवः जगम्याः) તું વિસ્તૃત મહાન આનંદસાગરને સ્વતઃ પ્રાપ્ત છે. (पितुः नपातम् आदधीत) પિતા જેમ પોતાના નપ્તા = પૌત્રને ગોદમાં લે છે-તેને પોતાની સંપત્તિ સોંપે છે. એ જ રીતે તું મને-પૌત્રને ગોદમાં લે, મને તારો આનંદસાગર ધારણ કરાવ (वेधाः) હે વિધાતા ! (अस्मिन्क्षये) આ મારા નિવાસ સ્થાન હૃદયમાં પ્રબળ પ્રકાશ કરીને મને અપનાવી લે. (प्रतरं दीद्यानः) આપ પ્રદીપ્ત થઈને મારા હૃદયમાં બિરાજમાન થાઓ. (૯)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : મહાન આનંદ સાગર પરમાત્માને પ્રાપ્ત થયેલ અમે તેની મિત્રતાને વરેલ મિત્ર છીએ. પિતા જેમ પૌત્રને ગોદમાં લે છે, તેમ તે અમને ગોદમાં આધાન ધારણ કરે છે. તે વિધાતા મારા હૃદય ઘરમાં પ્રદીપ્ત થઈને-પ્રકાશ કરતા બિરાજમાન રહે. (૯)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    جیسے پتا پُتر کا پالن کرتا ہے ویسے ہی ہماری رکھشا کیجئے!

    Lafzi Maana

    پرمیشور دیو! (سکھا سّکھیّا توا آووِرت یُو) ہم آپ کے سکھا (سچّے دوست) ہیں، اِسی دوستی کے صدقے ہم آپ کو اپنی طرف کھینچتے ہیں۔ کیونکہ آپ (پوروچت تےرہ ارنوان جگمیاہ) بڑی مدت سے ہم سے اوجھل تھے، خوش قسمتی سے ابھی ہمارے ہردیہ آکاش میں (دِل کے آئینے میں ہے تصویرِ یار) آپ (ویدھاہ پُتر پتا تم آدوھدیت) ہماری ایسے رکھشا پالن کیجئے جیسے پتا اپنی سنتانوں کی کرتا ہے، آپ ہی جگت کے واحد ودھائیک (قانون مرتب کرنے والے) ہیں، لہٰذا ہمارے (اسمن کھشیے پرترام دی دیانہ) دِلوں کو اپنے نُور سے خوب روشن کیجئے۔

    Tashree

    اِس طرح میری ہو رکھشا آپ کے سہ واس میں، باپ کی رکھشا میں ہوتا پُتر جیسے پاس میں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो जगदीश्वराबरोबर मैत्री करतो, त्याला तो आनंदसागरात निमग्न करतो. जगदीश्वराचा सखा शास्त्रोक्त विधीने गृहस्थाश्रमाचे पालन करत आपल्याप्रमाणे तेजस्वी व यशस्वी पुत्राचा पिता बनतो ॥९॥

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    विषय

    इन्द्राच्या मैत्रीविषयी

    शब्दार्थ

    हे इंद्र परमेश्वरा, (सखायः) तुझे मित्र स्तोताजन (त्वा) तुला (सख्या) मैत्री भावनेने वा तुला सखी समजून (आ ववृ त्युः) तुझा स्वीकार करतो. (तिरः) त्यांचा स्वीकार करून तू (पुरु चित्) अत्याधिक (अर्णवान्) आनंदाचा सागर (जगम्याः) प्राप्त करून दे. (उपासकांनी तुला मित्र मानावे आणि तू त्यांना आपले प्रेम द्यावे.) (वेधाः) तुझी स्तुती करीत प्रकषार्थही करणारा हा तुझा सखा (अस्मिन् क्षये) या घरात वा गृहस्थाश्रमात (प्रतराम्) अत्यधिक (दीघानः) तेजाने आणि यशाने प्रदीप्त होऊन (पितुः) त्याच्या वडिलाप्रमाणेच तेज्सीव व मेधावी (नपातम्) एक पौत्र (आदधीत) उत्पन्न करो. (ही माझी मनीषा वा प्रार्थना) (तुझ्या उपासकाला सुशील पुत्र व पौत्र होऊ दे, ही याचना.) ।। ९।।

    भावार्थ

    हे इंद्र परमेश्वरा, (सखायः) तुझे मित्र स्तोताजन (त्वा) तुला (सख्या) मैत्री भावनेने वा तुला सखी समजून (आ ववृ त्युः) तुझा स्वीकार करतो. (तिरः) त्यांचा स्वीकार करून तू (पुरु चित्) अत्याधिक (अर्णवान्) आनंदाचा सागर (जगम्याः) प्राप्त करून दे. (उपासकांनी तुला मित्र मानावे आणि तू त्यांना आपले प्रेम द्यावे.) (वेधाः) तुझी स्तुती करीत प्रकषार्थही करणारा हा तुझा सखा (अस्मिन् क्षये) या घरात वा गृहस्थाश्रमात (प्रतराम्) अत्यधिक (दीघानः) तेजाने आणि यशाने प्रदीप्त होऊन (पितुः) त्याच्या वडिलाप्रमाणेच तेज्सीव व मेधावी (नपातम्) एक पौत्र (आदधीत) उत्पन्न करो. (ही माझी मनीषा वा प्रार्थना) (तुझ्या उपासकाला सुशील पुत्र व पौत्र होऊ दे, ही याचना.) ।। ९।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (நண்பர்கள் நட்பிற்காக) உன்னை இங்கு எதிர்முகமாக்கட்டும். சலமடைந்துள்ள நீ என் அருகில் வருவாயோ? யக்ஞத்தில் உத்தம ஒளியுடனான இந்திரனான பிரமாவே!(அறிஞனே) பிதாக்களின் குழந்தை குட்டிகளைக் கொண்டுவரவும்.

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