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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 741
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
18
पु꣣रूत꣡मं꣢ पु꣣रूणा꣡मीशा꣢꣯नं꣣ वा꣡र्या꣢णाम् । इ꣢न्द्र꣣ꣳ सो꣢मे꣣ स꣡चा꣢ सु꣣ते꣢ ॥७४१॥
स्वर सहित पद पाठपु꣣रूत꣡म꣢म् । पु꣣रूणा꣢म् । ई꣡शा꣢꣯नम् । वा꣡र्या꣢꣯णाम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । सो꣡मे꣢꣯ । स꣡चा꣢꣯ । सु꣣ते꣢ ॥७४१॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम् । इन्द्रꣳ सोमे सचा सुते ॥७४१॥
स्वर रहित पद पाठ
पुरूतमम् । पुरूणाम् । ईशानम् । वार्याणाम् । इन्द्रम् । सोमे । सचा । सुते ॥७४१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 741
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा को उद्बोधन देने के अनन्तर अब परमात्मा के विषय में कहते हैं।
पदार्थ
हे साथियो ! (पुरूणाम्) पूर्णों एवं पालनकर्त्ताओं में (पुरूतमम्) पूर्णतम और सर्वाधिक पालक, (वार्याणाम्) वरणीय गुणों के (ईशानम्) अधीश्वर (इन्द्रम्) परमात्मा के प्रति (सुते) श्रद्धारस के तैयार हो जाने पर (सचा) साथ मिलकर (प्र गायत) स्तुति-गीत गाओ। [यहाँ ‘प्रगायत’ शब्द पूर्व मन्त्र से आया है] ॥२॥
भावार्थ
जो स्वयं पूर्ण और अन्यों को पूर्ण करनेवाला, समस्त गुणों से विभूषित परमेश्वर है, उसकी सबको मिलकर श्रद्धा के साथ उपासना करनी चाहिए ॥२॥
पदार्थ
(सोमे) परमात्मा के उपानारस सम्पादन के निमित्त उपासको! (पुरुतमम्) बहुतेरे प्रसङ्गों में कांक्ष्य वाञ्छनीय—(पुरूणां वार्याणाम्-ईशानम्) बहुत—अनेक वरणीय शुभकामनाओं कमनीय वस्तुओं के स्वामी (इन्द्रम्) परमात्मा को (सचा) एक मन होकर गाओ—स्तुत करो।
भावार्थ
उपासनारस निष्पादनार्थ हे उपासको! बहुत वाञ्छनीय अनेक वरणीय कामना और कमनीय वस्तुओं के स्वामी परमात्मा की एकमन होकर स्तुति गीति गानी चाहिये॥२॥
विशेष
<br>
विषय
इस चमकीले संसार में
पदार्थ
वे प्रभु ही वास्तव में वार्याणाम् ईशानम्-सब वरणीय वस्तुओं के ईशान हैं। प्रभु के गायक को वार्य वस्तुएँ ही प्राप्त होती हैं, अतः आओ सुतम् - इस उत्पन्न [प्रसव] ऐश्वर्यमय संसार में, जिसमें कि शतश: चमकीले पदार्थ सदा हमें प्रलुब्ध करने में तत्पर हैं, सचा- मिलकर इन्द्रम्-उस पृ पालनपूरणयोः’ धातु से 'पुरु' शब्द बना है। पुरु का अर्थ है–पालन व पूरण करनेवाला। माता-पिता सन्तान का, आचार्य विद्यार्थी का, राजा प्रजा का, ‘विद्वान् अतिथि' गृहस्थों का पालन व पूरण करने में लगे हैं, परन्तु इन सब पुरुषों की तुलना में वे प्रभु पुरूणां पुरूतमम्=पालकों में सर्वोत्तम पालक हैं । उस प्रभु का हम गायन करें । प्रभु का स्तवन करो, जिससे हम सोमे [निमित्त-सप्तमी]=सोम रक्षा कर सकें। न विलास की ओर जाएँगे और न ही सोम का अपव्यय होने देंगे। इस प्रकार मन्त्र में सामुदायिक प्रार्थना के निम्न लाभ गिनाये गये हैं—
१. प्रभु सर्वोत्तम पालन करनेवाले हैं, अत: हम आसुरी वृत्तियों के आक्रमण से सुरक्षित होंगे। २. वे प्रभु वार्य वस्तुओं के ईशान हैं, अतः हम वरणीय ही भोग्य वस्तुओं को प्राप्त करेंगे तथा ३. इस ऐश्वर्यमय चमकते संसार में न उलझते हुए अपने सोम की रक्षा कर सकेंगे। भावार्थ—सामुदायिक प्रार्थना हमें १. प्रलोभनों से बचाए, २. वार्य वस्तुएँ ही प्राप्त कराए तथा ३. सोम की रक्षा के योग्य बनाए ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = (२) ( पुरूणां ) = प्रजाओं और इन्द्रियों में सबसे ( पुरूतमम् ) = श्रेष्ठ (वार्याणाम् ) = वरण करने योग्य ज्ञानों और धनों के ( ईशानम् ) = स्वामी (इन्दम्) = राजा और आत्मा की ( सुते सोमे ) = उत्पन्न किये इस आनन्दकारी, सबके प्रेरक, भोग्य रस या ज्ञानरस, या ऐश्वर्य में मग्न होकर सब (सचा) = साथ मिलकर ( अभि प्र गायत ) = गान करो, उसकी स्तुति करो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - मधुछन्द:। देवता - इन्द्र:। स्वरः - षड्ज: ।
संस्कृत (1)
विषयः
आत्मोद्बोधनानन्तरमथ परमात्मविषयमाह।
पदार्थः
हे सखायः ! (पुरूणाम्) पूर्णानां पालकानां वा (पुरूतमम्२)पूर्णतमं पालकतमं वा। [पॄ पालनपूरणयोः इत्यस्मात् ‘पृभिदिव्यधिगृधिधृषिहृषिभ्यः। उ० १।२३’ इत्यनेन कुः प्रत्ययः।] (वार्याणाम्) वरणीयानां गुणानाम् (ईशानम्) अधीश्वरम् (इन्द्रम्)परमात्मानं प्रति (सुते) श्रद्धारसे अभिषुते सति (सचा) सम्मिल्य, ‘प्रगायत’ इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते, स्तुतिगीतानि गायत ॥२॥३
भावार्थः
यः स्वयं पूर्णोऽन्येषां च पूरको निखिलगुणगणविभूषितः परमेश्वरोऽस्ति स सर्वैः सम्मिल्य श्रद्धया समुपास्यः ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।५।२, अथ० २०।६८।१२। २. पुरुतमं पुरून् बहून् शत्रून् तामयति ग्लापयतीति पुरुतमः, तमु ग्लानौ इति धातोर्ण्यन्तात् पचाद्यचि चित्त्वादन्तोदात्तेऽपि पा० ६।१।१६३ कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरं पा० ६।२।१३ बाधित्वा “परादिश्छन्दसि बहुलम्” पा० ६।२।१९९ इत्युत्तरपदाद्युदात्तत्वम्—इति सा०। तत्तु पदकारविरुद्धम् पदपाठेऽवग्रहाभावात्। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं परमात्मपक्षे भौतिकवायुपक्षे च व्याचष्टे।
इंग्लिश (2)
Meaning
Laud unitedly, with exultation, God, richest of the rich. Who ruleth over noblest wealth.
Meaning
Friends and comrades in study and meditation, when you have distilled the essence of soma, life and spirit present at the heart of things, then sing in praise of Indra, closest at hand of things in heaven and earth, and ruler dispenser of the fruits of love and desire. (Rg. 1-5-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सोमे) પરમાત્માના ઉપાસનારસ સંપાદનને માટે ઉપાસકો ! (पुरुतमम्) અનેક પ્રસંગોમાં કાંક્ષીય-વાંછનીય (पुरुणां वार्याणाम् ईशानम्) બહુજ-અનેક વરણીય સુભ કામનાઓ કમનીય વસ્તુઓના સ્વામી (इन्द्रम्) પરમાત્માનું (सचा) એકાગ્ર મનથી ગાન કરો-સ્તુત કરો. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : ઉપાસનારસ નિષ્પાદન માટે હે ઉપાસકો ! બહુજ વાંછનીય, અનેક વરણીય કામના અને કમનીય વસ્તુઓના સ્વામી પરમાત્માની એકાગ્ર મનથી સ્તુતિ ગાન કરવું જોઈએ. (૨)
मराठी (2)
भावार्थ
जो स्वत: पूर्ण असून इतरांनाही पूर्ण करणारा, सर्व गुणांनी विभूषित असा परमेश्वरच आहे. त्याची सर्वांनी मिळून श्रद्धेने उपासना करावी. ॥२॥
विषय
आत्म्याला उद्बोधन केल्यानंतर आता परमात्म्याविषयी सांगत आहेत.
शब्दार्थ
हे सहकाऱ्यांनो, मित्रांनो (पुरुणाम्) पूर्ण असलेल्या तसेच सर्वांचे पालन करणाऱ्या लोकांमध्ये (राजा, महाराजा आदी लोकांपेक्षाही) जो (पुरुतमम्) पूर्णतम आहे आणि सर्वश्रेष्ठ पालक आहे. तसेच जो (वार्याणाम्) वरणीय गुणांचा (ईशानम्) अधीश्वर आहे अशा त्या (इन्द्रम्) परमेश्वराविषयी (सुते) जेव्हा तुमच्या हृदयात श्रद्धारूप रस उत्पन्न होईल तेव्हा (सचा) सर्व जण मिळून (प्रगायत) त्या परमेश्वराचे स्तुति गीत गा ।। (या मंत्रात प्रत्यक्ष प गायत शब्द नाही. हा शब्द पूर्वीच्या मंत्रातून संदर्भाची आवश्यकता म्हणून घेतला गेला आहे, असे जाणावे ।।२।।
भावार्थ
जो स्वत: संपूर्ण असून, अन्यांना पूर्ण व पालन करणारा आहे, तसेच जो सर्व सद्गुणांनी विभूषित आहे सर्वांनी मिळून त्या परमेश्वराची मनी श्रद्धाभाव ठेवून उपासना केली पाहिजे. ।।२।।
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