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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 863
    ऋषिः - पुरुहन्मा आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    21

    आ꣡ प꣢प्राथ महि꣣ना꣡ वृष्ण्या꣢꣯ वृष꣣न्वि꣡श्वा꣢ शविष्ठ꣣ श꣡व꣢सा । अ꣣स्मा꣡ꣳ अ꣢व मघव꣣न्गो꣡म꣢ति व्र꣣जे꣡ वज्रि꣢꣯ञ्चि꣣त्रा꣡भि꣢रू꣣ति꣡भिः꣢ ॥८६३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । प꣣प्राथ । महिना꣢ । वृ꣡ष्ण्या꣢꣯ । वृ꣣षन् । वि꣡श्वा꣢꣯ । श꣣विष्ठ । श꣡व꣢꣯सा । अ꣣स्मा꣢न् । अ꣣व । मघवन् । गो꣡म꣢꣯ति । व्र꣣जे꣢ । व꣡ज्रि꣢꣯न् । चि꣣त्रा꣡भिः꣢ । ऊ꣣ति꣡भिः꣢ ॥८६३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ पप्राथ महिना वृष्ण्या वृषन्विश्वा शविष्ठ शवसा । अस्माꣳ अव मघवन्गोमति व्रजे वज्रिञ्चित्राभिरूतिभिः ॥८६३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । पप्राथ । महिना । वृष्ण्या । वृषन् । विश्वा । शविष्ठ । शवसा । अस्मान् । अव । मघवन् । गोमति । व्रजे । वज्रिन् । चित्राभिः । ऊतिभिः ॥८६३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 863
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा और जीवात्मा दोनों का विषय वर्णित करते हैं।

    पदार्थ

    , (शविष्ठ) सबसे अधिक बली जगदीश्वर ! आपने (महिना) महिमा से और (शवसा) बल से (विश्वा) सब (वृष्ण्या) बलों को अर्थात् आत्मबल, विद्युद्बल, वायुबल, सूर्यबल आदि को (आ पप्राथ) फैलाया है। हे (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् ! हे (वज्रिन्) वज्रधर के समान दण्डसामर्थ्ययुक्त ! आप (गोमति व्रजे) सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि लोक-लोकान्तरों से युक्त इस ब्रह्माण्ड में (चित्राभिः) अद्भुत (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अस्मान्) हम उपासकों की (अव) रक्षा कीजिए ॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में। हे (वृषन्) शरीरस्थ मन, बुद्धि आदि में सबसे अधिक बली मेरे आत्मा ! तू (महिना) महिमा से और (शवसा) बल से (विश्वा) सब (वृष्ण्या) प्राण, मन, बुद्धि आदि के बलों को (आ पप्राथ) फैलाता है। हे (मघवन्) सद्गुणों के ऐश्वर्य से युक्त ! हे (वज्रिन्) वाणीरूप वज्रवाले ! तू (गोमति व्रजे) इन्द्रियरूप गौओं से युक्त शरीररूप गोशाला में (चित्राभिः) अद्भुत (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अस्मान्) हमारा (अव) पालन कर ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है, ‘वृष्, वृष’ और शवि, शव’ में छेकानुप्रास है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे ब्रह्माण्ड में सब बलवान् पदार्थों में परमेश्वर से उत्पन्न किया हुआ बल है, वैसे ही शरीररूप पिण्ड में प्राण, मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि में जीवात्मा से दिया हुआ सामर्थ्य है और जीवात्मा भी परमेश्वर से ही वैसा सामर्थ्य प्राप्त करता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (शविष्ठ वृषन्) हे अत्यन्त बलवान्—सुखवर्षक परमात्मन्! तू (शवसा) अपने बल से (विश्वा महिना वृष्ण्या) सारे प्रशंनीय सुख वर्षाने में योग्य तत्त्वों वस्तुओं को (आपप्राथ) पूरे हुए हैं (वज्रिन् मघवन्) हे ओजस्वी ऐश्वर्यवान् परमात्मन् “वज्रो वा ओजः” [श॰ ८.४.१.२०] (गोमति व्रजे) स्तुतिवाणियों वाले मन्त्रसमूह में “छन्दांसि वै व्रजः” [मै॰ ४.१.१०] (चित्राभिः-ऊतिभिः) चायनीय—प्रशंसनीय रक्षाओं द्वारा “चित्रं चायनीयं मंहनीयम्” [निरु॰ १२.७] (अस्मान्-अव) हमें सुरक्षित कर—हमारी रक्षा कर।

    भावार्थ

    हे अत्यन्त बलवान् सुखवर्षक परमात्मन्! तू अपने बल से सारे सुख वर्षा करने योग्य तत्त्वों वस्तुओं को पूरे हुए—व्यापे हुए हैं वे सुखवर्षाने योग्य तत्त्व तेरे से प्रेरित हुए ही सुख वर्षाते हैं, हे ओजस्वी ऐश्वर्यवन् परमात्मन् स्तुतिवाणियों वाले मन्त्रसमूह में—उसके धारण में आचरण में अपनी प्रशंसनीय रक्षाओं के द्वारा हमारी हम उपासकों की रक्षा कर—करता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    गोमान् व्रज

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'पुरुहन्मा'=अपने पालन व पूरण के लिए सदा प्रभु की ओर गति करनेवाला ‘आङ्गिरस’=अङ्ग-अङ्ग में रसवाला निम्न शब्दों में प्रभु का स्तवन करता है—

    १. हे (वृषन्) = सब इष्ट मनोरथों की वर्षा करनेवाले प्रभो! आप (वृष्ण्या) = सब मनोरथों के पूरक (महिना) = महान्, (शवसा) = बल से (विश्वा) = सब लोकों को (आपप्राथ) = व्याप्त किये हुए हैं । २. हे (शविष्ठ) = अत्यन्त शक्तिशालिन् ! (मघवन्) = सर्वैश्वर्यसम्पन्न ! (वज्रिन्) = [वज्रः कस्मात् वर्जयतीति सतः – नि० ३.११] सब पापों के निवर्तक प्रभो! (अस्मान्) = हमें (चित्राभिः ऊतिभिः) = अपनी विलक्षण रक्षाओं से (गोमति) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाली (व्रजे) = [व्रज गतौ] कर्मभूमि में (अव) = सुरक्षित कीजिए, अर्थात् आपकी कृपा से हम सदा अपनी इन्द्रियों को सुरक्षित रखने के लिए उत्तम कर्मों में व्याप्त रहें । ३. प्रभु की सर्वव्यापकता का चिन्तन करें, उस अनन्त शक्तिवाले प्रभु के रक्षण में विश्वास करें। उस प्रभु का सदा ‘शविष्ठ, मघवन्, वज्रिन्'=अनन्त शक्ति-सम्पन्न, सवैश्वर्यवान् तथा पापनिवर्तक के रूप में स्मरण करें।

    भावार्थ

    प्रभु की सर्वव्यापकता को न भूलते हुए, उत्तम कर्मों में व्यापृत रहकर हम पापों को अपने से दूर रक्खें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (वृषन् !) सुखों की वर्षा करने हारे परमात्मन् ! हे (शविष्ठ !) सर्वशक्तिमन् ! आप (महिना) बड़े भारी (शवसा) बल, शक्ति, सामर्थ्य से (विश्वा) समस्त (वृष्ण्या) सुखवर्षक और जलवर्षक सबके पोषक मेघ, पृथिवी आदि पदार्थों को (आ पप्राथ) पूर्ण कर रहे हो, सब मैं व्याप्त हो। हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! हे (वज्रिन्) पापनाशक ज्ञान के स्वामी ! (गोमति) इन्द्रिया से सम्पन्न इस (व्रजे) गतिशील नश्वर देह में (चित्राभिः) नाना आदरणीय (ऊतिभिः) रक्षाओं या ज्ञानधाराओं से आत्मा की (अव) पालन कर, पुष्ट कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मजीवात्मनोरुभयोर्विषयमाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे (वृषन्) सुखवर्षक, (शविष्ठ) बलवत्तम जगदीश्वर ! त्वम् (महिना) महिम्ना (शवसा) बलेन च (विश्वा) सर्वाणि (वृष्णया) वृष्ण्यानि बलानि आत्मबलविद्युद्बलवायुबलसूर्यबलादीनि। [वृषसु वीर्यवत्सु भवं वृष्ण्यम्, भवार्थे यत्।] (आ पप्राथ) विस्तारितवानसि। हे (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् ! हे (वज्रिन्) वज्रधर इव दण्डसामर्थ्ययुक्त ! त्वम् (गोमति व्रजे) सूर्यचन्द्रनक्षत्रादिलोकलोकान्तरयुक्तेऽस्मिन् ब्रह्माण्डे (चित्राभिः) अद्भुताभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः (अस्मान्) उपासकान् (अव) पालय ॥ द्वितीयः—जीवात्मपरः ! हे (वृषन्) देहस्थेषु मनोबुद्ध्यादिषु बलवत्तम मदीय आत्मन् ! त्वम् (महिना) महिम्ना (शवसा) बलेन च (विश्वा) सर्वाणि (वृष्ण्या) वृष्ण्यानि प्राणमनोबुद्धीन्द्रियादीनां बलानि (आ पप्राथ) विस्तारयसि। हे (मघवन्) सद्गुणैश्वर्यवन् ! हे (वज्रिन्) वाग्वज्रयुक्त ! [वाग्घि वज्रः। ऐ० ब्रा० ४।१।] त्वम् (गोमति व्रजे) इन्द्रियरूपगोयुक्ते देहरूपे गोष्ठे (चित्राभिः) अद्भुताभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः (अस्मान् अव) पालय ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। ‘वृष्, वृष’ ‘शवि, शव’ इत्यत्र छेकानुप्रासः ॥२॥

    भावार्थः

    यथा ब्रह्माण्डे सर्वेषु बलवत्सु पदार्थेषु परमेश्वरकृतं बलमस्ति तथा देहपिण्डे प्राणमनोबुद्धीन्द्रियादिषु जीवात्मदत्तं सामर्थ्यं विद्यते, जीवात्मापि च परमेश्वरादेव तादृशं सामर्थ्यं प्राप्नोति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।७०।६, अथ० २०।८१।२, ९२।२१।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Showerer of happiness, Almighty, Thou art pervading all objects like the cloud and earth. O Glorious God, the Master of knowledge, in this body full of organs, protect us with wondrous aids !

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    Meaning

    O lord of the thunderbolt, master and controller of worlds wealth, honour and power, most potent and lord of showers of generosity, with your generous and creative power and grandeur you pervade the universe. Pray protect, guide and promote us by your various and wondrous modes of protection and progress in our search for development of lands and cows, knowledge, language and culture. (Rg. 8-70-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (शविष्ठ वृषन्) હે અત્યંત બળવાન-સુખવર્ષક પરમાત્મન્ ! તું (शवसा) તારા બળથી (विश्वा महिना वृष्ण्या) સમસ્ત બળથી સુખની વર્ષા કરવામાં યોગ્ય તત્ત્વો વસ્તુઓમાં (आपप्राथ) વ્યાપ્ત થઈ રહેલો છે (वज्रिन् मघवन्) હે ઓજસ્વી ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ (गोमतिव्रजे) સ્તુતિ વાણીઓવાળા મંત્ર સમૂહમાં (चित्राभिः ऊतिभिः) ચાયનીય-પ્રશંસનીય રક્ષા સાધનો દ્વારા (अस्मान् अव) અમને સુરક્ષિત કર-અમારી રક્ષા કર. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે અત્યંત બળવાન, સુખવર્ષક પરમાત્મન્ ! તું પોતાનાં બળથી સમસ્ત સુખ વર્ષા કરવા યોગ્ય તત્ત્વો વસ્તુઓને પૂરીને વ્યાપ્ત થયેલ છે. તે સુખ વરસાવનારા યોગ્ય તત્ત્વો તારાથી પ્રેરિત થઈને જ સુખની વર્ષા કરે છે.

                  હે ઓજસ્વી ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! સ્તુતિ વાણીઓવાળા મંત્ર સમૂહમાં-તેના ધારણમાં-આચરણમાં તારી પ્રશંસનીય રક્ષાઓના દ્વારા અમારી ઉપાસકોની રક્ષા કર-કરે છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे ब्रह्मांडात सर्व बलवान पदार्थात परमेश्वराने उत्पन्न केलेले बल आहे, तसेच शरीररूपी पिंडात प्राण, मन, बुद्धी इंद्रिये यांच्यात जीवात्म्याने दिलेले सामर्थ्य आहे. जीवात्माही परमेश्वराकडून तसेच सामर्थ्य प्राप्त करतो. ॥२॥

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