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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - असुरः छन्दः - ककुम्मती अनुष्टुप् सूक्तम् - पाशविमोचन सूक्त
    77

    यदु॒वक्थानृ॑तम्जि॒ह्वया॑ वृजि॒नं ब॒हु। राज्ञ॑स्त्वा स॒त्यध॑र्मणो मु॒ञ्चामि॒ वरु॑णाद॒हम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्‍ । उ॒वक्थ॑ । अनृ॑तम्‍ । जि॒ह्वया॑ । वृ॒जि॒नम्‍ । ब॒हु । राज्ञ॑: । त्वा॒ । स॒त्यऽध॑र्मण: । मु॒ञ्चामि॑ । वरु॑णात् । अ॒हम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदुवक्थानृतम्जिह्वया वृजिनं बहु। राज्ञस्त्वा सत्यधर्मणो मुञ्चामि वरुणादहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्‍ । उवक्थ । अनृतम्‍ । जिह्वया । वृजिनम्‍ । बहु । राज्ञ: । त्वा । सत्यऽधर्मण: । मुञ्चामि । वरुणात् । अहम् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वरुण का क्रोध प्रचण्ड है।

    पदार्थ

    [हे आत्मा !] (यत्) जो (बहु) बहुत सा (अनृतम्) असत्य और (वृजिनम्) पाप (जिह्वया) जिह्वा से (उवक्थ) तू बोला है। (अहम्) मैं (त्वा) तुझको (सत्यधर्मणः) सच्चे धर्मात्मा वा न्यायी, (वरुणात्) सबमें श्रेष्ठ परमेश्वर (राज्ञः) राजा से (मुञ्चामि) छुड़ाता हूँ ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य मिथ्यावादी दुराचारी भी होकर उस प्रभु की शरण लेते और सत्कर्मों में प्रवृत्त होते हैं, वे लोग उस जगदीश्वर की न्यायव्यवस्था के अनुसार दुःखपाश से छूटकर आनन्द भोगते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−यत्। वचनम्। उवक्थ। ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि-लिट्, त्वम् उक्तवानसि। अनृतम्। न ऋतम्। असत्यं। मिथ्याभाषणम्। जिह्वया। शेवायह्वजिह्वाग्रीवाऽप्वामीवाः। उ०। १।१५४। इति जि जये-वन्, हुक् आगमे निपातितः। जयति रसमनया। रसनया। वृजिनम्। वृजेः किच्च। उ० २।४७। इति वृजी वर्जने-इनच्, स च कित्। पापम्। बहु। अधिकम्। राज्ञः। म० १। अध्यक्षात्। त्वा। त्वाम्। सेवकम्, आत्मानम्। सत्य-धर्मणः। धर्मादनिच् केवलात्। पा० ५।४।१२४। इति सत्य+धर्म+अनिच्, बहुव्रीहौ। यथार्थन्यायस्वभावात् मुञ्चामि। मुच्लृ मोक्षे-लट्। मोचयामि, वियोजयामि। वरुणात्। म० १। श्रेष्ठात् परमेश्वरात्। अहम्। उपासकः ॥

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    विषय

    असत्य से दूर

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो (जिह्वया) = जिला से (बहु) = बहुत अधिक (अनृतम्) = असत्य को तथा (वृजिनम्) = पाप को-पाप-वचन को (उवक्थ) = तूने अब तक बोला है (त्वा) = तुझे (सत्यधर्मण:) = सत्य का धारण करनेवाले (राज्ञः वरुणात्) = उस शासक, अनृतवादी के पाशों को छिन्न करनेवाले प्रभु के स्मरण के द्वारा (अहम्) = मैं (मुञ्चामि) = उस पाप से छुड़ाता हूँ। २. जब हम उस प्रभु का शासक के रूप में स्मरण करते हैं तब हमारी असत्य भाषणादि की वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। प्रभु का विस्मरण ही हमें पाप की ओर ले-जाता है।

    भावार्थ

    हम प्रभु का वरुणरूप में स्मरण करते हैं और असत्य से दूर होते हैं।

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    भाषार्थ

    (जिह्वया) जिह्वा द्वारा (यद्) जो (बहु) बहुत (वृजिनम्) पापरूप (अनृतम् उवक्थ) अनृत भाषण तूने किया है, (ततः) उस असत्य भाषण से (त्वा) तुझे (अहम्) मैं (सत्यधर्मणः) सत्यधर्मवाले अर्थात् सत्यस्वरूप (राज्ञः) संसार के राजा (वरुणात्) वरुण से ( मुञ्चामि ) मुक्त करता हूँ।

    टिप्पणी

    [वरुणसूक्त (अथर्व० ४।१६।७ ) में "अनृतवादी" (मन्त्र ६) का, तथा (मन्त्र ७) में “अनृत वाक्" का, तथा उसे "दण्डविधान" का कथन हुआ है। तथा (मन्त्र ८) में वरुण द्वारा प्रदत्त नाना रोगों का कथन हुआ है, जोकि अनृत वाक् तथा "अनृत" कर्मों के कारण फलरूप में प्राप्त होते हैं। सद्गुरु पापी को पापकर्मों से छुड़ाकर सन्मार्ग पर लाने का विश्वास दिलाता है, ताकि भविष्य में वह वारुण्य कोप से उन्मुक्त रहे।]

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    विषय

    ईश्वर और राजा ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! ( यद् ) जो भी तू ( जिह्वया ) जिह्वा, वाणी से (अनृतं) असत्य, अयथार्थ, वेदज्ञान के विपरीत ( उवक्थ ) बोलता है वह ( बहु ) बहुत ही बड़ा ( वृजिनं ) पाप है, उसको त्याग कर देना चाहिये । ( अहं ) मैं सत्यधर्म का उपदेष्टा राजपुरोहित (त्वा) तुझे यथोचित शिक्षा देकर उस ( सत्यधर्मणः ) सत्यस्वरूप सच्ची धर्म व्यवस्था करने हारे नियामक (वरुणात्) सर्वश्रेष्ठ ( राज्ञः ) राजा और परमेश्वर के आगामी दण्ड से ( मुञ्चामि ) छुड़ाता हूं।

    टिप्पणी

    वृजिनमनृतं दुश्चरितं, ऋजु कर्म सत्यं सुचरितम् ॥ तै० ब्रा० ३। ३। ७।१०॥ ‘यत्त्वमुवक्थानृतम्’ इति हिटनीकामितः पाठः । ‘उक्त’ इते सायणाभिमतः पाठः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। असुरो वरुणो देवता। १, २ त्रिष्टुप्, ३ ककुम्मती अनुष्टुप्। ४ अनुष्टुप् चतुर्ऋचं सूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Sin

    Meaning

    O man, whatever untrue or evil, much or otherwise, you have spoken with your tongue, I have you released by the grace of Varuna, lord ruler and ordainer of Truth and Dharma (if you dedicate yourself to Truth and Dharma in thought, word and deed).

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    Translation

    For the false-hood. and plenty of evil that you have been speaking with your tongue, I hereby get you released from : the venerable Lord, the king of true ordinances

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    Translation

    O' ruler, whatever falsehood you tell or think to tell with your organ of speech, is a great sin. I the priest (by my teaching) save you from the displeasure of the Supreme Ruling Power (GOD) who is the righteous by His nature.

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    Translation

    O King, whatever falsehood, thou hast uttered with thy tongue, is a great sin. I liberate thee from future punishment by the Just Supreme God!

    Footnote

    One has to suffer the consequences of his sin, but he can be saved from future punishment if he ameliorates himself morally through the teachings of a spiritual Guru,‘I’ refers to the royal priest.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−यत्। वचनम्। उवक्थ। ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि-लिट्, त्वम् उक्तवानसि। अनृतम्। न ऋतम्। असत्यं। मिथ्याभाषणम्। जिह्वया। शेवायह्वजिह्वाग्रीवाऽप्वामीवाः। उ०। १।१५४। इति जि जये-वन्, हुक् आगमे निपातितः। जयति रसमनया। रसनया। वृजिनम्। वृजेः किच्च। उ० २।४७। इति वृजी वर्जने-इनच्, स च कित्। पापम्। बहु। अधिकम्। राज्ञः। म० १। अध्यक्षात्। त्वा। त्वाम्। सेवकम्, आत्मानम्। सत्य-धर्मणः। धर्मादनिच् केवलात्। पा० ५।४।१२४। इति सत्य+धर्म+अनिच्, बहुव्रीहौ। यथार्थन्यायस्वभावात् मुञ्चामि। मुच्लृ मोक्षे-लट्। मोचयामि, वियोजयामि। वरुणात्। म० १। श्रेष्ठात् परमेश्वरात्। अहम्। उपासकः ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    হে আত্মন! (বহু) বহু প্রকারের (য়ৎ) যে (অনৃতং) অসত্য ও (বৃজিনং) পাপ (জিহ্বয়া) জিহ্বা দ্বারা (উক্থ) তুমি বলিয়াছ। (অহম্) আমি (ত্বা) তোমাকে (সত্য ধৰ্ম্মণঃ) ন্যায়বান (বরুণাং) সর্ব বৃহৎ (রাজ্ঞঃ) রাজা পরমেশ্বর দ্বারা (মুঞ্চামি) ছাড়াইতেছি।।

    भावार्थ

    হে আত্মন! তুমি তোমার জিহ্বা দ্বারা বহু অসত্য ও পাপ কথা উচ্চারণ করিয়াছ। আমি তোমার এই কদভ্যাসকে ন্যায়বান পরমেশ্বরের কৃপায় ত্যাগ করাইব।।
    মিথ্যাবাদী দুরাচারী মনুষ্যও প্রভু পরমাত্মার শরণ গ্রহণ করিলে এবং সৎকর্মে প্রবৃত্ত হইলে পরমাত্মার ন্যায় ব্যবস্তানুসরে দুঃখবন্ধন হইতে মুক্ত হইয়া আনন্দ ভোগ করে।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়দুবক্ থানৃতং জিহ্বয়া বৃজিনং বহু৷ রাজ্ঞস্ত্বা সত্যধর্মণো মুঞ্চামি বরুণাদহম্।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। বরুণঃ। ককুম্মত্যনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (বরুণস্য ক্রোধঃ প্রচণ্ডঃ) বরুণের প্রচণ্ড ক্রোধ

    भाषार्थ

    [হে আত্মা !] (যৎ) যে (বহু) বহু/অনেক (অনৃতম্) অসত্য ও (বৃজিনম্) পাপ (জিহ্বয়া) জিহ্বার মাধ্যমে (উবক্থ) তুমি বলেছো। (অহম্) আমি (ত্বা) তোমাকে (সত্যধর্মণঃ) সত্য ধর্মাত্মা বা ন্যায়ী, (বরুণাৎ) সর্বশ্রেষ্ঠ পরমেশ্বর (রাজ্ঞঃ) রাজার থেকে (মুঞ্চামি) মুক্ত করি ॥৩॥

    भावार्थ

    যে মনুষ্য মিথ্যাবাদী ও দুরাচারী হয়েও সেই প্রভুর শরণ নেয় এবং সৎকর্মে প্রবৃত্ত হয়, তাঁরা সেই জগদীশ্বরের ন্যায়ব্যবস্থার অনুসারে দুঃখ প্রাপ্ত করার থেকে মুক্ত হয়ে আনন্দ ভোগ করে ॥৩॥

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    भाषार्थ

    (জিহ্বয়া) জিহ্বা দ্বারা (যদ্) যে (বহু) বহু (বৃজিনম্) পাপরূপ (অনৃতম্ উবক্থ) অনৃত ভাষণ তুমি করেছো, (ততঃ) সেই অসত্য ভাষণ দ্বারা (ত্বা) তোমাকে (অহম্) আমি (সত্যধর্মণঃ) সত্যধর্মপরায়ণ অর্থাৎ সত্যস্বরূপ (রাজ্ঞঃ) সংসারের রাজা (বরুণাৎ) বরুণ থেকে (মুঞ্চামি) মুক্ত করি।

    टिप्पणी

    [বরুণসূক্ত (অথর্ব০ ৪।১৬।৭ ) এ "অনৃতবাদী" (মন্ত্র ৬) এর, এবং (মন্ত্র ৭) এ “অনৃত বাক্" এর, এবং তাঁকে "দণ্ডবিধান" এর কথন হয়েছে। তথা (মন্ত্র ৮) এ বরুণ দ্বারা প্রদত্ত নানা রোগের কথন হয়েছে, যা অনৃত বাক্ তথা "অনৃত" কর্মের কারণে ফলরূপে প্রাপ্ত হয়। সদ্গুরু পাপীকে পাপকর্ম থেকে মুক্ত করে সন্মার্গে নিয়ে আসার আশ্বাস দেয়, যাতে ভবিষ্যতে সে বারুণ্য কোপ থেকে মুক্ত থাকে।]

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