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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पाशविमोचन सूक्त
    84

    मु॒ञ्चामि॑ त्वा वैश्वान॒राद॑र्ण॒वान्म॑ह॒तस्परि॑। स॑जा॒तानु॑ग्रे॒हा व॑द॒ ब्रह्म॒ चाप॑ चिकीहि नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मु॒ञ्चामि॑ । त्वा॒ । वै॒श्वा॒न॒रात् । अ॒र्ण॒वात् । म॒ह॒त: । परि॑ । स॒ऽजा॒तान् । उ॒ग्र॒ । इ॒ह । आ । व॒द॒ । ब्रह्म॑ । च॒ । अप॑ । चि॒की॒हि॒ । न॒: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मुञ्चामि त्वा वैश्वानरादर्णवान्महतस्परि। सजातानुग्रेहा वद ब्रह्म चाप चिकीहि नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मुञ्चामि । त्वा । वैश्वानरात् । अर्णवात् । महत: । परि । सऽजातान् । उग्र । इह । आ । वद । ब्रह्म । च । अप । चिकीहि । न: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वरुण का क्रोध प्रचण्ड है।

    पदार्थ

    [हे आत्मा !] (महतः) विशाल (अर्णवात्) समुद्र के समान गंभीर (वैश्वानरात्) सब नरों के हितकारक वा सबके नायक परमेश्वर से (त्वा) तुझको (परि मुञ्चामि) मैं छुड़ाता हूँ। (उग्र) हे प्रचण्डस्वभाव [परमेश्वर !] (सजातान्) [मेरे] तुल्य जन्मवालों को (इह) इस विषय में (आवद) उपदेश कर (च) और (नः) हमारे (ब्रह्म) वैदिक ज्ञान को (अप) आनन्द से (चिकीहि) तू जान ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य पापकर्म छोड़ने से सर्वहितकारी परमेश्वर के कोप से मुक्त होते हैं। परमात्मा सब प्राणियों को उपदेश करता और सबकी सत्य भक्ति को स्वीकार कर यथार्थ आनन्द देता है ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−परि+मुञ्चामि। म० ३। सर्वथा मोचयामि। वैश्वानरात्। नॄ प्रापणे-अच्। नृणातीति नरः पुरुषः। विश्वश्चासौ नरश्चेति। नरे संज्ञायाम्। प० ६।३।१२९। इति विश्वस्य दीर्घः। विश्वानर एव वैश्वानरः। स्वार्थे अण्। यद्वा। तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। यद्वा। तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति अण्। वैश्वानरः कस्माद् विश्वान् नरान् नयति विश्व एनं नरा नयन्तीति वापि वा विश्वानर एव स्यात् प्रत्यृतः सर्वाणि भूतानि तस्य वैश्वानरः−निरु० ७।२१। सर्वनायकात्। सर्वोपास्यात्। सर्वनरहितात् परमेश्वरात्। अर्णवात्। केशाद् वोऽन्यतरस्याम्। पा० ५।२।१०९। अत्र। अर्णसो लोपश्च। इति वार्त्तिकम्। अर्णस्+व, सलोपः। अर्णांसि जलानि सन्त्यस्मिन्। समुद्रात् समुद्रवद् गम्भीरस्वभावात्। महतः। वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्जगच्छतृवच्च। उ० २।८४। इति मह पूजायाम्-अति। विशालात्। सजातान्। समानजन्मनः पुरुषान्। उग्र। म० १। हे प्रचण्ड, महाक्रोधिन् वरुण ! आ+वद। समन्तात् कथय, उपदिश। ब्रह्म। १।८।४। वेदविज्ञानम्। अप। आनन्दे−इति शब्दस्तोममहानिधौ। चिकीहि। म० २। कि ज्ञाने-लोट्। जानीहि ॥

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    विषय

    भवसागर से पार मुञ्चामि

    पदार्थ

    १. गतमन्त्रों के अनुसार जब हम द्रोह और असत्य से ऊपर उठने का निश्चय करते हैं तब प्रभु कहते हैं कि मैं (त्वा) = अद्रोही व सत्यनिष्ठ तुझे इस (महतः) = महान् (वैश्वानरात्) = सब मनुष्यों के विचरण के स्थानभूत (अर्णवात्) = भवसागर से (परिमुञ्चामि) = मुक्त करता हूँ। भवसागर से तैरने के लिए (ऋतस्य नाव: सकृतमपीपरन्) = सत्य की नाव अत्यन्त उपयोगी है। सत्य और अद्रोह [अहिंसा] को अपनाकर हम मोक्ष का साधन कर पाते हैं। २. प्रभु कहते हैं कि उग्र-सत्य व अद्रोह के पालन से तेजस्वी बना हुआ तू (इह) = इस जीवन में (सजातान्) = अपने समान जन्मवाले इन मनुष्यों को (आवद) = इस ज्ञान का उपदेश कर-इस ज्ञान का कथन कर। इसके द्वारा उन्हें भी सत्य व अद्रोह के महत्व को समझा (च) = और तू स्वयं (न:) = हमारे (ब्रह्म) = इस वेदज्ञान को (अपचिकीहि) = अच्छी प्रकार जाननेवाला बन ['अप' उपसर्ग यहाँ 'निर्देश' अर्थ में आया है] और जानकर औरों के प्रति उसका निर्देशक बन।

    भावार्थ

    संसार-सागर को तैरने के लिए आवश्यक है कि हम ज्ञान प्राप्त करके उसका .समुचित प्रसार करें।

    विशेष

    सूक्त के प्रारम्भ में कहा है कि वासनाओं के नाश के द्वारा मैं अपने को प्रभु का कोपभाजन नहीं होने देता [१], मैं द्रोह से ऊपर उठता हूँ [२], असत्य से दूर होता हूँ और [३] इसप्रकार ज्ञान-प्रसार करता हुआ भवसागर से पार होता हूँ [४]। इसप्रकार की उत्तम वृत्ति होने पर हमारी सन्तान भी उत्तम बनती हैं -

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    भाषार्थ

    (वैश्वानरात्) सब नरों के हितकारी, (अर्णवात्) जलवाले उदधि के सदृश गम्भीर, (महतः परि) तथा सर्वतो महान् वरुण-परमेश्वर के दण्ड से (त्वा) तुझे (मुञ्चामि) मैं उन्मुक्त करता हूँ [उसके दुण्ड से छुड़ाता हूँ]। (उग्र) हे कष्टों द्वारा उद्विग्न हुए! (सजातान् ) स्वसमान कष्टोत्पन्नों को (इह) इस जीवन में (आवद) कह, और (अप) अपने कष्ट के अपाकृत करने के पश्चात् (न:) हमारे (ब्रह्म) परमेश्वर को (चिकीहि) तू जान। (जो हमारा उपास्य ब्रह्म है उसके स्वरूप को जानने में यत्न कर)

    टिप्पणी

    [कष्टोत्पन्नों के कष्टों का अपाकरण करना पुण्यकर्म है। पुण्यकर्मों के करने से ब्रह्मज्ञान होता है, पापियों को नहीं।]

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    विषय

    ईश्वर और राजा ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! ( वैश्वानरात् महत्ः अर्णवात् त्वा परिमुंचामि ) समस्त नरों या असत्य के महासागर से में उपदेश द्वारा तुझे छुड़ाता हुं, हे (उग्र) सत्य धर्म पर दृढ़ राजन् ! (इह) इस राज्य में ( सजातान् आवद ) अपने समान अन्यों को सत्य का उपदेश कर । ( नः ब्रह्म च अप चिकिहि ) और हमारे इस वैदिक उपदेश को तू पहचान । केवल प्रथम मन्त्र में ‘ब्रह्म’ और अन्तिम मन्त्र में ‘अर्णव’ शब्द देख कर सायणाचार्य ने जलोदर रोग पर इस सूक्त को लगाने का यत्न किया है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। असुरो वरुणो देवता। १, २ त्रिष्टुप्, ३ ककुम्मती अनुष्टुप्। ४ अनुष्टुप् चतुर्ऋचं सूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Sin

    Meaning

    O man, I release you from the fear and terror of Varuna, mighty master and leader of humanity, and from the boundless bottomless ocean of existence. O formidable lord, speak to our fellow men of the universal Veda and receive and accept our devotion and prayer.

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    Translation

    I get you released completely from the watcher of all men very much agitated (in it) (arnavat). O formidable man, let you tell your kinsfolk here about it and respect our true (tenets) and knowledge.

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    Translation

    I free you, O king, from the great tormenting worldly sea. O formidable and convey my teachings to your kinsmen and subject and you yourself pay attention on them.

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    Translation

    O King, I tree thee from all persons, from the great surging flood of sin through my instructions. O King as a strict follower of religion, preach truth unto others in thy kingdom, and pay attention to our Vedic teaching.

    Footnote

    I means the royal priest. 'Our' refers to learned preceptors. This hymn has been interpreted by Sayana as a remedy for dropsy, on the basis of the word ब्रह्म in the first verse, and अर्पण in the last. This is a far-fetched explanation which does not appeal to me.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−परि+मुञ्चामि। म० ३। सर्वथा मोचयामि। वैश्वानरात्। नॄ प्रापणे-अच्। नृणातीति नरः पुरुषः। विश्वश्चासौ नरश्चेति। नरे संज्ञायाम्। प० ६।३।१२९। इति विश्वस्य दीर्घः। विश्वानर एव वैश्वानरः। स्वार्थे अण्। यद्वा। तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। यद्वा। तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति अण्। वैश्वानरः कस्माद् विश्वान् नरान् नयति विश्व एनं नरा नयन्तीति वापि वा विश्वानर एव स्यात् प्रत्यृतः सर्वाणि भूतानि तस्य वैश्वानरः−निरु० ७।२१। सर्वनायकात्। सर्वोपास्यात्। सर्वनरहितात् परमेश्वरात्। अर्णवात्। केशाद् वोऽन्यतरस्याम्। पा० ५।२।१०९। अत्र। अर्णसो लोपश्च। इति वार्त्तिकम्। अर्णस्+व, सलोपः। अर्णांसि जलानि सन्त्यस्मिन्। समुद्रात् समुद्रवद् गम्भीरस्वभावात्। महतः। वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्जगच्छतृवच्च। उ० २।८४। इति मह पूजायाम्-अति। विशालात्। सजातान्। समानजन्मनः पुरुषान्। उग्र। म० १। हे प्रचण्ड, महाक्रोधिन् वरुण ! आ+वद। समन्तात् कथय, उपदिश। ब्रह्म। १।८।४। वेदविज्ञानम्। अप। आनन्दे−इति शब्दस्तोममहानिधौ। चिकीहि। म० २। कि ज्ञाने-लोट्। जानीहि ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    হে আত্মন! (মহতঃ) বিশাল (অর্ণবাং) সমুদ্র তুল্য গভীর (বৈশ্বানরাং) সব মনুষ্যের হিতকারক পরমেশ্বরের রুদ্র দণ্ড হইতে (ত্বা) তোমাকে (পরি মুঞ্চামি) ছাড়াইতেছি। (উগ্র) হে প্রচণ্ড স্বভাব পরমাত্মন! (সজাতাম্) আমার সম জন্মযুক্ত প্রাণীকে (ইহ) এই বিষয়ে (আবদ) উপদেশ কর (চ) কেননা (নঃ) আমাদের (ব্রহ্ম) বৈদিক জ্ঞানকে (অপ) সানন্দে (চিকীহি) অবগত আছ।।

    भावार्थ

    হে আত্মন! বিশাল সমুদ্র তুল্য গভীর এবং সর্ব মনুষ্যের হিতকারী পরমেশ্বরের রুদ্র দণ্ড হইতে তোমাকে নিষ্কৃতি দিতেছি। হে প্রচণ্ড স্বভাব পরমাত্মন! আমার সম জন্মযুক্ত মনুষ্যকে তুমি এ বিষয়ে উপদেশ দান কর কেননা আমাদের বৈদিক জ্ঞানকে তুমি পূর্ণরূপে ধারণ করিয়া আছ।।
    মনুষ্য পাপকর্ম ত্যাগ করিলে সর্বহিতকারী পরমাত্মার ক্রোধ হইতে মুক্ত হয়।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    মুঞ্চামি ত্বা বৈশ্বানরাদর্ণবান্ মহতত্পরি। সজাতানুগ্ৰেহা বদ ব্রহ্ম চাপ চিকীহি নঃ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। বরুণঃ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (বরুণস্য ক্রোধঃ প্রচণ্ডঃ) বরুণের প্রচণ্ড ক্রোধ

    भाषार्थ

    [হে আত্মা !] (মহতঃ) বিশাল (অর্ণবাৎ) সমুদ্রের সমান গম্ভীর (বৈশ্বানরাৎ) সমস্ত নর/মানুষের হিতকারক বা সকলের নায়ক পরমেশ্বরের মাধ্যমে/থেকে (ত্বা) তোমাকে (পরি মুঞ্চামি) আমি মুক্ত করি। (উগ্র) হে প্রচণ্ডস্বভাব [পরমেশ্বর !] (সজাতান্) [আমার] তুল্য জন্মধারণকারীদের (ইহ) এই বিষয়ে (আবদ) উপদেশ করুন (চ) এবং (নঃ) আমাদের (ব্রহ্ম) বৈদিক জ্ঞানকে (অপ) আনন্দের মাধ্যমে (চিকীহি) তুমি জানো/জ্ঞাত হও ॥৪॥

    भावार्थ

    মনুষ্য পাপকর্ম ত্যাগের মাধ্যমে সর্বহিতকারী পরমেশ্বরের প্রকোপ থেকে মুক্ত হয়। পরমাত্মা সমস্ত প্রাণীদের উপদেশ করে এবং সকলের সত্য ভক্তি স্বীকার করে যথার্থ আনন্দ প্রদান করেন ॥৪॥

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    भाषार्थ

    (বৈশ্বানরাৎ) সকল নরের হিতকারী, (অর্ণবাৎ) জলসম্পন্ন সমুদ্র/সাগরের সদৃশ গম্ভীর, (মহতঃ পরি) তথা সর্বতো মহান্ বরুণ-পরমেশ্বরের শাস্তি থেকে (ত্বা) তোমাকে (মুঞ্চামি) আমি মুক্ত করি [তার শাস্তি থেকে মুক্ত করি]। (উগ্র) হে কষ্ট দ্বারা উদ্বিগ্ন হওয়া! (সজাতান্) স্বসমান কষ্টোৎপন্নকে (ইহ) এই জীবনে (আবদ) বলো, এবং (অপ) নিজের কষ্ট অপাকৃত/দূর করার পর (নঃ) আমাদের (ব্রহ্ম) পরমেশ্বরকে (চিকীহি) তুমি জানো। (আমাদের উপাস্য হলেন ব্রহ্ম, উনার স্বরূপ জানার চেষ্টা করো)

    टिप्पणी

    [কষ্টোৎপন্নের কষ্টের অপাকরণ/নিরাকরণ/দূর করা পুণ্যকর্ম। পুণ্যকর্ম করলে ব্রহ্মজ্ঞান হয়, পাপীদের নয়।]

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