अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - विद्युत्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विद्युत सूक्त
106
नम॑स्ते प्रवतो नपा॒द्यत॒स्तपः॑ स॒मूह॑सि। मृ॒डया॑ नस्त॒नूभ्यो॒ मय॑स्तो॒केभ्य॑स्कृधि ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । ते॒ । प्र॒ऽव॒त॒: । न॒पा॒त् । यत॑: । तप॑: । स॒म्ऽऊह॑सि ।मृडय॑ । न॒:। त॒नूभ्य॑:। मय॑: । तो॒केभ्य॑: । कृ॒धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते प्रवतो नपाद्यतस्तपः समूहसि। मृडया नस्तनूभ्यो मयस्तोकेभ्यस्कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । ते । प्रऽवत: । नपात् । यत: । तप: । सम्ऽऊहसि ।मृडय । न:। तनूभ्य:। मय: । तोकेभ्य: । कृधि ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मरक्षा के लिये उपदेश।
पदार्थ
हे (प्रवतः) अपने भक्त, के (नपात्) न गिरानेहारे ! (ते) तुझको (नमः) नमस्कार है, (यतः) क्योंकि तू [दुष्टों पर] (तपः) संताप को (समूहसि) संयुक्त करता है। (नः) हमें (तनूभ्यः) हमारे शरीरों के लिये (मृडय) सुख दे और (तोकेभ्यः) हमारे सन्तानों के लिये (मयः) सुख (कृधि) प्रदान कर ॥२॥
भावार्थ
परमेश्वर भक्तों को आनन्द और पापियों को कष्ट देता है। सब मनुष्य नित्य धर्म में प्रवृत्त रहें और संसार भर में सुख की वृद्धि करें ॥२॥
टिप्पणी
२−प्र-वतः। प्रपूर्वकात् वन संभक्तौ=सेवने, याचे च-क्विप्। गमः क्वौ पा० ६।४।४०। अत्र। गमादीनामिति वक्तव्यम्। इति वार्त्तिकेन नकारलोपः। ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्। पा० ६।१।७१। इति तुक् आगमः। भक्तस्य सेवकस्य याचकस्य अथवा भक्तान् द्वितीयार्थे। नपात्। नञ्पूर्वकात् पत अधःपतने, णिच्-क्विप्। नभ्राण्नपात्०। पा० ६।३।७५। इति नञः प्रकृतिभावः। न पातयतीति नपात्। हे नपातयितः, न पातनशील ! धारयितः। (नपात्) य० १२।१०८। न विद्यते पातो धर्मात् पतनं यस्य सः−इति श्रीमद्दयानन्दः। यतः। यस्मात् कारणात्। तपः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति तप सन्तापे−असुन्। सन्तापम्। सम्+ऊहसि−ऊह वितर्के। उपसर्गवशात् संघीकरणे। संहतं करोषि, संयोजयसि। मृडय। मृड तोषणे। तोषय, अनुगृहाण। तनूभ्यः। १।१।१। शरीरेभ्यः। तेषां हिताय। मयः। मिञ् हिंसायाम्−असुन्। मिनोति दुःखम्। सुखम्। निघ० ३।६। तोकेभ्यः। कृदाधारार्चिकलिभ्यः कः। उ० ३।४०। इति तु वृद्धौ पूर्तौ−क प्रत्ययः। तौति पूरयति गृहमिति तोकम्। अपत्यनाम−निघ० २।२। अपत्येभ्यः। कृधि। कुरु। देहि। तोकेभ्यस्कृधि। कःकरत्करतिकृधिकृतेष्वनदितेः। पा० ८।३।५०। इति विसर्गस्य सत्त्वम् ॥
विषय
तप व उन्नति
पदार्थ
१. (प्रवतः नपात्) = उच्चता से न गिरने देनेवाले हे प्रभो! (ते नमः) = हम आपके लिए नमस्कार करते हैं। आप उच्चता से न गिरने देनेवाले इसलिए हैं, (यत:) = क्योंकि (तपः समूहसि) = आप तप का सञ्चय करते हैं। तप ही सम्पूर्ण उत्थान का मूल है। तप का विपरीत पत-पतन है। प्रभु तप:रूप हैं, अतः पूर्ण उन्नत हैं। प्रभुकृपा से हम भी तपस्वी बनते हैं और उन्नत हो पाते हैं। उन्नति तप के अनुपात में ही होती है। २. हे प्रभो! आप इस तप के द्वारा (न:) = हमारे (तनूभ्यः) = शरीरों के लिए (मृडय) = सुख देनेवाले होवें। इस तपस्या के परिणामस्वरूप हमारे शरीरों में किसी प्रकार का रोग न हो। हमें नीरोग बनाकर आप (तोकेभ्यः) = हमारे सन्तानों के लिए भी (मय:) = कल्याण (कृधि) = कीजिए। हमारे स्वस्थ शरीरों से हमारे सन्तानों के शरीर भी स्वस्थ हों।
भावार्थ
उच्चता तपोमूलक है। तप से ही हमारे शरीर भी स्वस्थ होते हैं, परिणामत: सन्तानों का भी कल्याण होता है।
भाषार्थ
(प्रवतः) प्रकृष्ट मनुष्य का (नपात्) पात न होने देनेवाले हे परमेश्वर ! (ते नमः ) तेरे लिये नमस्कार हो । (यतः) चूंकि (तपः) तपोमय जीवन को (समूहसि) तू संघीकृत करता है, बढ़ाता१ है। (नः) हमारे (तनूभ्यः) देहों के लिये (मृष्य) सुख पैदा कर, ( तोकेश्य: ) पुत्र-पौत्र आदि के लिये (मयः) सुख (कृधि) कर ।
टिप्पणी
[परमेश्वर हमारे तपोमय जीवन के बढ़ाने में सहायता देता है। मृडय=मृड सुखने (तुदादिः, तथा क्र्यादिः)। मयः सुखनाम (निघं० ३। ६ )। परमेश्वर निज उपासक को प्रकृष्ट मार्ग से गिरने नहीं देता, उसके तपोमय जीवन को प्रगति देता और उसे सुख प्रदान करता है। नपात् = न पातयति, पतन नहीं करता।] [१. परमेश्वर जैसे हमारे तपः को बढ़ाता है वैसे बह श्रद्धापूर्वक उपासित हुआ हमें नानाविध सहायता प्रदान करता है। यथा "प्राणिधानाद् भक्तिविशेषाद् आवर्जित ईश्वरस्तमनुगह्णाति अभिध्यानमात्रेण, तदभिध्यानादपि योगिन आसन्नतमः समाधिलाभः फलं च भवति" (योग, पाद १, सूत्र २३)।]
विषय
विद्युत् शक्ति।
भावार्थ
हे ( प्रवतः नपात् ) प्रपातों या वेगों से उत्पन्न होने वाली विद्युत् ! ( ते नमः ) तेरा यह सामर्थ्य है कि (यतः) जिससे तू (तपः) इस दीप्यमान तेज को ( समूहसि ) अपने भीतर एकत्र कर लेती है। तू ( नः ) हमारे ( तनूभ्यः ) शरीरों के लिये ( मृडय ) सुखकारी हो। ( तोकेभ्यः ) हमारी सन्तानों के लिये भी ( मयः ) कल्याण ( कृषि ) कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वंगिराः। ऋषिः। विद्युत् देवता। १, २ अनुष्टुप् छन्दः । ३ चतुष्पद विराड् जगती । ४ त्रिष्टुप् परा बृहतीगर्भा पंक्तिः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Electric Energy
Meaning
Homage to you, electric energy of the fall and flood and to the source whence you collect your power and heat. O centre of the energy and power of existence, be kind to our body’s health and bring us peace and well being for our future generations.
Translation
Homage be to you, O never falling from the moral height, due to which quality you gather warmth (influence) . May you be gracious to ourselves and bestow happiness on our children.
Translation
Our words of appreciation to the current of the flowing water whence electricity collects into it the fervent heat. Let it do good for our bodies and be source of happiness to our children.
Translation
Homage to Thee O God, who never allowest a devotee deviate from the path of righteousness, and because Thou makest our life full of penance. Be gracious to our bodies, give, our children happiness and joy.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−प्र-वतः। प्रपूर्वकात् वन संभक्तौ=सेवने, याचे च-क्विप्। गमः क्वौ पा० ६।४।४०। अत्र। गमादीनामिति वक्तव्यम्। इति वार्त्तिकेन नकारलोपः। ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्। पा० ६।१।७१। इति तुक् आगमः। भक्तस्य सेवकस्य याचकस्य अथवा भक्तान् द्वितीयार्थे। नपात्। नञ्पूर्वकात् पत अधःपतने, णिच्-क्विप्। नभ्राण्नपात्०। पा० ६।३।७५। इति नञः प्रकृतिभावः। न पातयतीति नपात्। हे नपातयितः, न पातनशील ! धारयितः। (नपात्) य० १२।१०८। न विद्यते पातो धर्मात् पतनं यस्य सः−इति श्रीमद्दयानन्दः। यतः। यस्मात् कारणात्। तपः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति तप सन्तापे−असुन्। सन्तापम्। सम्+ऊहसि−ऊह वितर्के। उपसर्गवशात् संघीकरणे। संहतं करोषि, संयोजयसि। मृडय। मृड तोषणे। तोषय, अनुगृहाण। तनूभ्यः। १।१।१। शरीरेभ्यः। तेषां हिताय। मयः। मिञ् हिंसायाम्−असुन्। मिनोति दुःखम्। सुखम्। निघ० ३।६। तोकेभ्यः। कृदाधारार्चिकलिभ्यः कः। उ० ३।४०। इति तु वृद्धौ पूर्तौ−क प्रत्ययः। तौति पूरयति गृहमिति तोकम्। अपत्यनाम−निघ० २।२। अपत्येभ्यः। कृधि। कुरु। देहि। तोकेभ्यस्कृधि। कःकरत्करतिकृधिकृतेष्वनदितेः। पा० ८।३।५०। इति विसर्गस्य सत्त्वम् ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
হে (প্রবতঃ) ভক্তে (নপাৎ) উন্নতির সহায় (তে) তোমাকে নমস্কার । (য়তঃ) কেননা দুষ্টের সহিত (তপ) সন্তাপকে (সমুহসি) যুক্ত কর (নঃ) আমাদের (তনুভ্যঃ) শরীরের জন্য (মুডয়) সুখদান কর। (তোকেভ্যঃ) সন্তানদের জন্য (ময়ঃ) সুখ (কৃধি) বিধান কর।।
भावार्थ
হে ভক্তজনের উন্নতি পথের সহায়ক পরমাত্মন! তোমাকে নমস্কার। তুমি দুষ্টের উপর সন্তাপ প্রদান কর। আমাদের শশীরের জন্য সুখ বিধান কর। আমাদের সন্তানদের জন্যও সুখ বিধান কর।।
मन्त्र (बांग्ला)
নমস্ত প্রবতো নপাদ্ য়তস্তপঃ সমূহসি। মৃডয়া নস্তনৃভ্যো ময় স্তোকেভ্যস্কৃধি।।
ऋषि | देवता | छन्द
ভৃগ্বঙ্গিরাঃ। বিদ্যুৎ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(আত্মরক্ষোপদেশঃ) আত্মরক্ষার জন্য উপদেশ
भाषार्थ
হে (প্রবতঃ) নিজের ভক্তের (নপাৎ) না পতনকারী ! (তে) আপনাকে (নমঃ) নমস্কার, (যতঃ) কারণ আপনি [দুষ্টের প্রতি] (তপঃ) সন্তাপ (সমূহসি) সংযুক্ত করেন। (নঃ) আমাদের (তনূভ্যঃ) আমাদের শরীরের জন্য (মৃডয়) সুখ প্রদান করুন এবং (তোকেভ্যঃ) আমাদের সন্তানদের জন্য (ময়ঃ) সুখ (কৃধি) প্রদান করুন ॥২॥
भावार्थ
পরমেশ্বর ভক্তদের আনন্দ এবং পাপীদের কষ্ট প্রদান করেন। সমস্ত মনুষ্য নিত্য ধর্মে প্রবৃত্ত থাকুক এবং সংসারে সুখের বৃদ্ধি করুক॥২॥
भाषार्थ
(প্রবতঃ) প্রকৃষ্ট মনুষ্যের (নপাৎ) ধারণকারী হে পরমেশ্বর ! (তে নমঃ) তোমার জন্য নমস্কার হোক। (যতঃ) অতএব (তপঃ) তপোময় জীবনকে (সমূহসি) তুমি সংঘীকৃত করো, বর্ধিত১ করো। (নঃ) আমাদের (তনূভ্যঃ) দেহের জন্য (মৃডয়) সুখ উৎপন্ন করো, (তোকেভ্যঃ) পুত্র-পৌত্র আদির জন্য (ময়ঃ) সুখ (কৃধি) করো।
टिप्पणी
[পরমেশ্বর আমাদের তপোময় জীবনের বৃদ্ধিতে সহায়তা প্রদান করেন। মৃডয়=মৃড সুখনে (তুদাদিঃ, তথা ক্র্যাদিঃ)। ময়ঃ সুখনাম (নিঘং০ ৩। ৬)। পরমেশ্বর নিজ উপাসকদের প্রকৃষ্ট মার্গ থেকে পতিত হতে দেন না, তাঁর/উপাসকের তপোময় জীবনকে প্রগতি দান করেন এবং তাঁকে সুখ প্রদান করেন। নপাৎ = ন পাতয়তি, পতন করে না।] [১. পরমেশ্বর যেমন আমাদের তপঃ বৃদ্ধি করেন সেভাবেই তিনি শ্রদ্ধাপূর্বক উপাসিত হয়ে আমাদের নানাবিধ সহায়তা প্রদান করেন। যথা "প্রণিধানাদ্ ভক্তিবিশেষাদ্ আবর্জিত ঈশ্বরস্তমনুগৃহ্ণাতি অভিধ্যানমাত্রেণ, তদভিধ্যানাদপি যোগিন আসন্নতমঃ সমাধিলাভঃ ফলং চ ভবতি" (যোগ, পাদ ১, সূত্র ২৩)।]
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