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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 3
    ऋषिः - द्रविणोदाः देवता - विनायकः छन्दः - विराडास्तारपंक्तिः त्रिष्टुप् सूक्तम् - अलक्ष्मीनाशन सूक्त
    72

    यत्त॑ आ॒त्मनि॑ त॒न्वां॑ घो॒रमस्ति॒ यद्वा॒ केशे॑षु प्रति॒चक्ष॑णे वा। सर्वं॒ तद्वा॒चाप॑ हन्मो व॒यं दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता सू॑दयतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । आ॒त्मनि॑ । त॒न्वाम् । घो॒रम् । अस्ति॑ । यत् । वा॒ । केशे॑षु । प्र॒ति॒ऽचक्ष॑णे । वा॒। सर्व॑म् । तत् । वा॒चा । अप॑ । ह॒न्म॒: । व॒यम् । दे॒व: । त्वा॒ । स॒वि॒ता । सू॒द॒य॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्त आत्मनि तन्वां घोरमस्ति यद्वा केशेषु प्रतिचक्षणे वा। सर्वं तद्वाचाप हन्मो वयं देवस्त्वा सविता सूदयतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । आत्मनि । तन्वाम् । घोरम् । अस्ति । यत् । वा । केशेषु । प्रतिऽचक्षणे । वा। सर्वम् । तत् । वाचा । अप । हन्म: । वयम् । देव: । त्वा । सविता । सूदयतु ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के लिये धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य] ! (यत्) जो कुछ (ते) तेरे (आत्मनि) आत्मा में और (तन्वाम्) शरीर में (वा) अथवा (यत्) जो कुछ (केशेषु) केशों में (वा) अथवा (प्रतिचक्षणे) दृष्टि में (घोरम्) भयानक (अस्ति) है। (वयम्) हम (तत् सर्वम्) उस सबको (वाचा) वाणी से [विद्याबल से] (अप) हटाकर (हन्मः) मिटाये देते हैं। (देवः) दिव्यस्वरूप (सविता) सर्वप्रेरक परमेश्वर (त्वा) तुझको (सूदयतु) अङ्गीकार करे ॥३॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य अपने आत्मिक और शारीरिक दुर्गुणों और दुर्लक्षणों को विद्वानों के उपदेश और सत्सङ्ग से छोड़ देता है, परमेश्वर उसे अपना करके अनेक सामर्थ्य देता और आनन्दित करता है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−आत्मनि। सातिभ्यां मनिन्मनिणौ। उ० ४।१५३। इति अत सातत्यगमने−मनिण्। अतति निरन्तरं कर्मफलानि प्राप्नोतीति आत्मा। स्वभावे, मनसि, जीवे। तन्वाम्। १।१।१। शरीरे, देहे। घोरम्। हन्तेरच् घुर च। उ० ५।६४। इति हन बधे−अच्, घुरादेशः। हन्ति विनाशयतीति। भयंकरं दुर्लक्षणम्। केशेषु। के मस्तके शेते। शीङ् शयने−अच्। अलुक्-समासः। अथवा। क्लिशेरन् लो लोपश्च। उ० ५।३३। इति क्लिश उपतापे−अन्, ल लोपः। वालेषु, शिरोरुहेषु। प्रति-चक्षणे। चष्टे, पश्यतिकर्मा−निघ० ३।११। चक्षिङ् कथने, दर्शने च-करणे ल्युट्। दर्शनसाधने चक्षुषि। वाचा। १।१।१। वाण्या। सरस्वतीद्वारा। विद्याद्वारा। अप। वर्जयित्वा। हन्मः। नाशयामः। वयम्। उपासकाः। त्वा। त्वाम् आत्मानम्। सविता। सर्वप्रेरकः। सर्वपिता परमात्मा। सूदयतु। षूद आश्रुतिहत्योः−लोट्, आश्रुतिरङ्गीकारः। आशृणोतु, अङ्गीकरोतु ॥

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    विषय

    उत्तम आत्मप्रेरणा व देव-स्मरण

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो (ते) = तेरे (आत्मनि) = आत्मा में-मन में, (तन्वाम्) = या शरीर में (घोरम्) = भयानक चिह्न (अस्ति) = है, (वा) = अथवा (यत्) = जो (केशेषु) = बालों में वा-या प्रतिचक्षणे प्रत्येक आँख में विकार है, (तत् सर्वम्) = उस सब विकार को (वाचा) = वाणी के द्वारा (वयम्) = हम (अपहन्म:) = दूर करते हैं। मन में, शरीर में, बालों में, आँखों में कहीं भी कोई विकार हो, उसे वाणी से दूर करते हैं, अर्थात् आत्मप्रेरणा के रूप में वाणी के द्वारा शुभ शब्दों का उच्चारण करते हुए हम अशुभ लक्षणों को दूर करते हैं। मुझमें यह विकार नहीं रहेगा, इसका स्थान सौभग लेगा-इसप्रकार के दृढ़ विचारों को जन्म देनेवाले शब्द इन विकारों को सचमुच नष्ट करनेवाले होते है। २. इसप्रकार वाणी के द्वारा आत्मिक शक्ति को जाग्रत् करने में लगे हुए (त्वा) = तुझे (देवः सविता) = यह दिव्य गुणों का (पुज) = दिव्यता का उत्पादक प्रभु (सूदयतु) = [Urge on, animate] उन्नति-पथ पर आगे बढ़ने के लिए अशुभ लक्षणों को दूर करके शुभ लक्षणों की अभिवृद्धि के लिए प्रेरित करे। प्रभु की दिव्यता का स्मरण हममें दिव्यता की अभिवृद्धि का कारण होता है।

    भावार्थ

    उत्तम आत्मप्रेरणा व देव प्रभु का स्मरण हमारे मन, शरीर, बालों व आँखों के अशुभ लक्षणों को दूर करते हैं।

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    भाषार्थ

    [हे वधू !] (ते आत्मनि तन्वाम्) तेरी आत्मा में तथा तनू में या तेरी अपनी तनू में (यत्) जो (घोरम् अस्ति) जो घोर कर्म है, (यद् वा) या जो (केशेषु) केशोपलक्षित सिर में, (वा प्रतिचक्षणे) या प्रत्येक चक्षु में है, (तत् सर्वम्) उस सबको (वयम्) हम [अध्यात्मशक्तिसम्पन्न योगी] (वाचा अपहन्मः) मिलकर वाणी द्वारा नष्ट करते हैं, (सविता देवः) सर्वोत्पादक परमेश्वर देव (त्वा) तुझे (सूदयतु) घोर कर्मों से रहित करे।

    टिप्पणी

    [सूदयतु= षूद क्षरणे (भ्वादिः), जैसे जल द्वारा मल क्षरित किया जाता है वैसे परमेश्वर, निजकृपा द्वारा तेरे घोरकर्मों को क्षरित कर दे।]

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    विषय

    विवाह योग्य और अविवाह योग्य स्त्रियां।

    भावार्थ

    ( ते ) हे स्त्री ! तेरी ( आत्मनि ) आत्मा में और ( तन्वाम् ) तेरे देह में ( यत् ) जो ( घोरं ) पाप (अस्ति) विद्यमान है और ( यद् वा ) जो दुर्विचार रूप पाप ( केशेषु ) केशों अर्थात् तेरे सिर में हैं, ( वा ) और जो ( प्रति चक्षणे ) तेरी आंखों में क्रूरतारूप पाप है ( तत् सर्वं ) उन सब पापों को ( वयं ) हम ( वाचा ) वाणी के उपदेश से ( हन्मः ) विनाश करते हैं । हे स्त्री ! ( त्वा ) तुझको ( सविता ) उत्पादक ( देवः ) पिता देव ( सूदयतु ) सत् मार्ग में ग्रेरित करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    द्रविणोदाः ऋषिः। विनायको देवता। १ उपरिष्टाद् विराड् बृहती, २ निचृज्जगती, ३ विराड् आस्तारपंक्तिः त्रिष्टुप् । ४ अनुष्टुप् । चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Planning and Prosperity

    Meaning

    Whatever is forbidding, fearsome and ferocious in your body, mind and soul, or in your head and hair and in your behaviour, all that we transform positively with our word of divine love and wisdom. O man, we pray, may Lord Savita, giver of life and light of wisdom inspire you and raise you to maturity and perfection for success in life.

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    Translation

    Whatever is unpleasing (frightening) in your self, in your body, or in your hair or in your looks, all that we remove with our words. May the divine creator Lord guide you aright.

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    Translation

    O' man ; whatever ferocious sign is in your soul, in your body, in your hair or in your eyes, we drive away completely through my instruction. May God accept you as his devotee.

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    Translation

    O woman, whatever moral weakness is there in thy mind, or physical infirmity in thy body, or improve sentiment in thy head or ferocity in thy eyes; all these we drive away and banish with our speech. May thy father, thy birth-giver, lead thee on the path of virtue.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−आत्मनि। सातिभ्यां मनिन्मनिणौ। उ० ४।१५३। इति अत सातत्यगमने−मनिण्। अतति निरन्तरं कर्मफलानि प्राप्नोतीति आत्मा। स्वभावे, मनसि, जीवे। तन्वाम्। १।१।१। शरीरे, देहे। घोरम्। हन्तेरच् घुर च। उ० ५।६४। इति हन बधे−अच्, घुरादेशः। हन्ति विनाशयतीति। भयंकरं दुर्लक्षणम्। केशेषु। के मस्तके शेते। शीङ् शयने−अच्। अलुक्-समासः। अथवा। क्लिशेरन् लो लोपश्च। उ० ५।३३। इति क्लिश उपतापे−अन्, ल लोपः। वालेषु, शिरोरुहेषु। प्रति-चक्षणे। चष्टे, पश्यतिकर्मा−निघ० ३।११। चक्षिङ् कथने, दर्शने च-करणे ल्युट्। दर्शनसाधने चक्षुषि। वाचा। १।१।१। वाण्या। सरस्वतीद्वारा। विद्याद्वारा। अप। वर्जयित्वा। हन्मः। नाशयामः। वयम्। उपासकाः। त्वा। त्वाम् आत्मानम्। सविता। सर्वप्रेरकः। सर्वपिता परमात्मा। सूदयतु। षूद आश्रुतिहत्योः−लोट्, आश्रुतिरङ्गीकारः। आशृणोतु, अङ्गीकरोतु ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (য়ৎ) যাহা কিছু (তে) তোমার (আত্মনি) আত্মায় (তন্বাম্) শরীরে (বা) অথবা (য়ৎ) যাহা কিছু (কেশেষু) কেশে (বা) অথবা (প্রতি চক্ষণে) দৃষ্টিতে (ঘোরাং) ভয়ানক (অস্তি) আছে (বয়ং) আমরা (তৎ সর্বং) সে সব (বাচা) বাণী দ্বারা (অপ) দূর করিয়া (হন্ম) শেষ করি। (দেবঃ) দিব্য স্বরূপ (সবিতা) সর্ব প্রেরক পরমাত্মা (ত্বা) তোমাকে (সুদয়তু) শ্রবণ করুক।।

    भावार्थ

    হে মনুষ্য! তোমার আত্মায়, শরীরে, কেশে বা দৃষ্টিতে যাহা কিছু অশুভ আছে আমরা সে সব বিদ্যা প্রভাতে দূরীভূত ও নিষেধ করি। দিব্য স্বরূপ সর্ব প্রেরক পরমাত্মা তোমাদের প্রতি কৃপা করুক।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ত্ত আত্মনি তন্বাং ঘোরমস্তি য়ব্বা কেশেষ প্রতি চক্ষণে বা ৷ সর্বং তদ্‌ বাচাপ হন্মো বয়ং দেবস্তা সবিতা সুদয়তু।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    দ্রবিণোদাঃ। সবিত্রাদয়ো মন্ত্রোক্তাঃ। বিরাডাভারপঙ্কক্তিখ্রিষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (রাজধর্মোপদেশঃ) রাজার জন্য ধর্মের উপদেশ

    भाषार्थ

    [হে মনুষ্য] ! (যৎ) যা কিছু (তে) তোমার (আত্মনি) আত্মায় এবং (তন্বাম্) শরীরে (বা) অথবা (যৎ) যা কিছু (কেশেষু) কেশে (বা) অথবা (প্রতিচক্ষণে) দৃষ্টিতে (ঘোরম্) ভয়ানক (অস্তি) রয়েছে, (বয়ম্) আমরা (তৎ সর্বম্) সেই সবকে (বাচা) বাণী দ্বারা [বিদ্যাবল দ্বারা] (অপ) অপসারিত করে (হন্মঃ) নষ্ট করি। (দেবঃ) দিব্যস্বরূপ (সবিতা) সর্বপ্রেরক পরমেশ্বর (ত্বা) তোমাকে (সূদয়তু) অঙ্গীকার করুক ॥৩॥

    भावार्थ

    যখন মনুষ্য নিজের আত্মিক এবং শারীরিক দুর্গুণসমূহ এবং দুর্লক্ষণসমূহকে বিদ্বানদের উপদেশ এবং সৎসঙ্গের ফলে পরিত্যাগ করে দেয়, পরমেশ্বর তাকে আপন করে অনেক সামর্থ্য দান করেন এবং আনন্দিত করেন। ॥৩॥

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    भाषार्थ

    [হে বধূ !] (তে আত্মনি তন্বাম্) তোমার আত্মায় এবং দেহে বা তোমার নিজের শরীরে (যৎ) যে (ঘোরম্ অস্তি) যে ঘোর/পাপ কর্ম রয়েছে, (যদ্ বা) বা যা (কেশেষ) কেশপূর্ণ মাথায়, (ব প্রতিচক্ষণে) বা প্রত্যেক চক্ষুতে রয়েছে, (তৎ সর্বম্) সেই সবকিছুকে (বয়ম্) আমি [আধ্যাত্মিক শক্তিসম্পন্ন যোগী] (বাচা অপহন্মঃ) বাণী দ্বারা নষ্ট করি, (সবিতা দেবঃ) সর্বোৎপাদক পরমেশ্বর দেব (ত্বা) তোমাকে (সূদয়তু) ঘোর/পাপ কর্মরহিত করুক।

    टिप्पणी

    [সূদয়তু = ষূদ ক্ষরণে (ভ্বাদিঃ), যেভাবে জল দ্বারা মল ধৌত হয় সেভাবেই পরমেশ্বর, নিজকৃপা দ্বারা তোমার ঘোরকর্ম ক্ষরিত করুক।]

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