अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 3
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - हरिमा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - हृद्रोगकामलाशन सूक्त
85
या रोहि॑णीर्देव॒त्या॑३ गावो॒ या उ॒त रोहि॑णीः। रू॒पंरू॑पं॒ वयो॑वय॒स्ताभि॑ष्ट्वा॒ परि॑ दध्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठया: । रोहि॑णी: । दे॒व॒त्या: । गाव॑: । या: । उ॒त । रोहि॑णी: ।रू॒पम्ऽरू॑पम् । वय॑:ऽवय: । ताभि॑: । त्वा॒ । परि॑ । द॒ध्म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
या रोहिणीर्देवत्या३ गावो या उत रोहिणीः। रूपंरूपं वयोवयस्ताभिष्ट्वा परि दध्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठया: । रोहिणी: । देवत्या: । गाव: । या: । उत । रोहिणी: ।रूपम्ऽरूपम् । वय:ऽवय: । ताभि: । त्वा । परि । दध्मसि ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोगनाश के लिये उपदेश।
पदार्थ
(याः) जो (देवत्याः) दिव्य गुण युक्त (रोहिणीः) स्वास्थ्य उत्पन्न करनेवाली ओषधें (उत) और (याः) जो (रोहिणीः) लाल वर्णवाली (गावः) दिशाएँ हैं। (ताभिः) उन सबके साथ (त्वा) तुझको (रूपम् रूपम्) सब प्रकार की सुन्दरता और (वयः वयः) सब प्रकार के बल के लिये (परि दध्मसि) हम सर्वथा पुष्ट करते हैं ॥३॥
भावार्थ
जब सूर्य की किरणों से दिशाएँ रक्तवर्ण दिखायी देती हैं, तब प्रातः-सायं दोनों समय सद्वैद्य रोगी को सुपरीक्षित औषधों और यथायोग्य वायुसेवन से स्वस्थ करके सब प्रकार से हृष्ट-पुष्ट और बलवान् करें ॥३॥
टिप्पणी
३−रोहिणीः। रुहेश्च। उ० २।५५। इति रुह उद्भवे−इनन्। षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। इति गौरादित्वात् ङीष्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। रोहयन्ति जनयन्ति स्वास्थ्यं ता रोहिण्यः, ओषधयः। देवत्याः। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति देवता-यत्। दिव्यगुणयुक्ताः। गावः। स्त्रीलिङ्गम्। दिशाः। रोहिणीः। वर्णादनुदात्तात् तोपधात्तो नः। पा० ४।१।३९। इति रोहित−ङीप्, तकारस्य नकारः। जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। रोहिण्यः, लोहितवर्णाः प्रातःसायंकालभवाः। रूपं−रूपम्। नित्यवीप्सयोः। पा० ८।१।४। इति द्विर्वचनम्। सर्वसौन्दर्येण। सर्वसौन्दर्याय। वयः−वयः। वय गतौ−असुन्। वीप्सायां द्विर्वचनम्। कृत्स्नेन यौवनेन, सर्वेण सामर्थ्येण। सर्वसामर्थ्याय। ताभिः। गोभिश्च रोहिणीभिश्च ॥
विषय
रोहिणी गौएँ
पदार्थ
१. (यः) = जो (रोहिणी:) =-रोहित वर्ण की (देवत्याः) = दिव्य दुग्ध देनेवाली (गाव:) = गौएँ हैं, (उत) = और (या:) = जो (रोहिणी:) = रोहित वर्ण की सूर्य-किरणें हैं, (ताभि:) = उनसे (त्वा) = तुझे (रूपम्-रूपम्) = रूप रूप के अनुसार (वयोवयः) = और आयुष्य के अनुसार (परिदध्मसि) = धारण करते हैं। २. यहाँ मन्त्र में प्रात:कालीन सूर्य की अरुण किरणों के साथ रोहित वर्ण की गौओं का उल्लेख भी स्पष्ट है। जहाँ रोहित वर्ण की किरणे अत्यन्त उपयोगी है, वहाँ हृद्रोग व हरिमा को दूर करने में लाल रंग की गौओं के दूध का उपयोग भी अत्यधिक महत्त्व रखता है। यही गौ ('कपिला') कहलाती है और ऋषि-आश्रमों के साथ साहित्य में सर्वत्र इसका सम्बन्ध दीखता है। इसके दूध में भी वे ही गण आ जाते हैं जो सर्य की अरुण किरणों में होते हैं। ३. ("रुपंरूपम्') ये शब्द 'त्वचा का रंग गोरा है या कालिमा को लिए हुए' इस बात का संकेत कर रहे हैं और स्पष्ट है कि त्वचा के रंग-भेद से किरणों का कम या अधिक देर तक सेवन अभीष्ट होता है। गौर वर्ण अधिक देर तक किरणों को सहन नहीं कर सकता। इसीप्रकार ('वयोवयः') शब्द आयुष्य-भेद से अधिक व कम देर तक सूर्य-किरणों के सेवन का संकेत करते हैं। छोटा बच्चा कम देर तक सहन करेगा तो एक युवक अधिक देर तक।
भावार्थ
सूर्य की रोहित किरणों व रोहिणी गौओं के दूध का आयुष्य व शक्ति के अनुसार सेवन द्वारा हम नीरोग हों।
भाषार्थ
(याः) जो (देवत्याः रोहिणीः) दैवी लाल रश्मियाँ हैं, (उत) तथा (याः) जो (रोहिणी:) मानुषी लाल रश्मियाँ हैं, (रूपम्, रूपम् ) तेरे प्रत्येक रूप को, (वयः वयः) तथा प्रत्येक वयस् अथात् वाल, युवा, तथा वृद्धावस्था को, (ताभिः) उन रश्मियों द्वारा ( परि दध्मसि ) हम ढॉँपते हैं। इन अवस्थाओं में प्रकट विकृतियों के निराकरण के लिये।
टिप्पणी
[देवत्याः= सूर्यसम्बन्धी लाल रश्मियां, तथा रोहिणी: अर्थात् मनुष्योत्पादित कृत्रिम लाल रश्मियाँ। रूपम् रूपम्= प्रत्येक वयः अर्थात् शरीरावस्था में प्रकट नया-नया रूप, अर्थात् बाल, युवा, तथा वृद्धावस्था के वयस् में प्रकट विकृत नया-नया रूप रोग। ताभिः यद्यपि स्त्रीलिंगी प्रयोग है, यह गो पद की दृष्टि से है। गो पद गोओं और बेलों इन दोनों में प्रयुक्त होता है। गो पद प्रायः स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त होता है (आप्टेकोष)।]
विषय
हृद्रोग और कामला की चिकित्सा।
भावार्थ
( याः ) जो ( देवत्याः ) देव, प्रकाशस्वरूप सूर्य की ( रोहिणीः ) प्रातः कालिक रक्त वर्ण की ( गावः ) किरणें हैं और (याः) जो ( रोहिणीः ) लाल वर्ण की कपिला गौएं हैं या उगने वाली ओषधियां हैं उनके भीतर विद्यमान ( रूपं ) कान्तिजनक दीप्ति को और ( वयः ) दीर्घ आयु जनक (वयः) दुग्ध आदि अन्न को प्राप्त करके ( ताभिः ) उन द्वारा ( त्वा ) तुझको ( परि दध्मसि ) सब प्रकार से परिपुष्ट करते और चिकित्सित करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः । सूर्यो मन्त्रोक्तो हरिमा हृद्रोगश्च देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Heart Trouble and Jaundice
Meaning
We treat you with the divine rays of the sun which are crimson red, with whatever else also is crimson red, such as milk of crimson red cows, paste of crimson red herbs, of any form and every age.
Translation
Whatever are the divine red rays or the cows are of ruddy colour, with various forms and with various potencies; with them we enclose and surround you.
Translation
O' patient! For restoration of your beautiful complexion and age we encompass you with those Sun-rays which possess the brilliant red hue and which are only red colour.
Translation
The efficacious ruddy rays of the sun and the medicinal herbs that exist with their diverse beauty and diverse power we compass thee about.
Footnote
We refers to the physicians, and “thee” to the patient. The physicians cure the patient by exposing him to the highly useful morning rays of the sun, and giving him red medicinal herbs, the use of which lends beauty and strength to the patient. Griffith considers the meaning of the word Devatya as uncertain. Weber translates the word as divine powers’. The St. Petersburg Dictionary leaves the word unexplained with the remark that animals of some kind must be intended. The word means/full of good qualities.’
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−रोहिणीः। रुहेश्च। उ० २।५५। इति रुह उद्भवे−इनन्। षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। इति गौरादित्वात् ङीष्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। रोहयन्ति जनयन्ति स्वास्थ्यं ता रोहिण्यः, ओषधयः। देवत्याः। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति देवता-यत्। दिव्यगुणयुक्ताः। गावः। स्त्रीलिङ्गम्। दिशाः। रोहिणीः। वर्णादनुदात्तात् तोपधात्तो नः। पा० ४।१।३९। इति रोहित−ङीप्, तकारस्य नकारः। जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। रोहिण्यः, लोहितवर्णाः प्रातःसायंकालभवाः। रूपं−रूपम्। नित्यवीप्सयोः। पा० ८।१।४। इति द्विर्वचनम्। सर्वसौन्दर्येण। सर्वसौन्दर्याय। वयः−वयः। वय गतौ−असुन्। वीप्सायां द्विर्वचनम्। कृत्स्नेन यौवनेन, सर्वेण सामर्थ्येण। सर्वसामर्थ्याय। ताभिः। गोभिश्च रोहिणीभिश्च ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(য়াঃ) যে (দেবত্যাঃ) দিব্য গুণযুক্ত (রোহিণীঃ) স্বাস্থ্য উৎপন্নকারী ওষধি (উত) এবং (য়াঃ) যে (রোহিণীঃ) লোহিত বর্ণ যুক্ত (গাবঃ) দিশা আছে (তাভিঃ) তাহার সঙ্গে (ত্বা) তোমাকে (রূপং রূপং) সর্ব প্রকারের সৌন্দর্য ও (বয়ঃ বয়ঃ) সর্ব প্রকারের বলের জন্য (পরি দসি) পুষ্ট করিতেছি।।
भावार्थ
দিব্য গুণযুক্ত স্বাস্থ্য উৎপাদিনী ওষধি এবং লোহিত বর্ণযুক্ত দিশার সহিত তোমার সর্ব প্রকারের সৌন্দর্য ও বল বিধান করিতেছি।।
সূর্যকিরণে যখন দিশায় রক্তবর্ণ হয়, সেই প্রাতঃ ও সায়ংকালে বৈদ্য ঔষধ সেবনের বিধান করিবে। ইহাতে বল ও সৌন্দর্য বৃদ্ধি পায়।।
मन्त्र (बांग्ला)
য়া রোহিণী দেবত্যা ৩ গাবো য়া উত রোহিণীঃ রূপংরূপং বয়োবয়স্তাভিষ্ট্রা পরি দসি।।
ऋषि | देवता | छन्द
ব্ৰহ্মা। সূর্যঃ, হরিমা, হদ্রোগশ্চ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(রোগনাশোপদেশঃ) রোগনাশের জন্য উপদেশ
भाषार्थ
(যাঃ) যে (দেবত্যাঃ) দিব্যগুণযুক্ত (রোহিণীঃ) স্বাস্থ্য উৎপন্নকারী ঔষধি-সমূহ (উত) এবং (যাঃ) যে (রোহিণীঃ) লাল বর্ণময় (গাবঃ) দিক রয়েছে, (তাভিঃ) সেই সবকিছুর সাথে (ত্বা) তোমাকে (রূপম্ রূপম্) সকল প্রকারের সুন্দরতা এবং (বয়ঃ বয়ঃ) সকল প্রকারের বলের জন্য (পরি দধ্মসি) আমরা সর্বথা পুষ্ট করি ॥৩॥
भावार्थ
যখন সূর্যের কিরণ দ্বারা দিকসমূহ রক্তবর্ণ দেখা যায়, তখন প্রাতঃ-সায়ং উভয় সময়ে সদ্বৈদ্য রোগীকে সুপরীক্ষিত ঔষধি/সমূহ এবং যথাযোগ্য বায়ুসেবন দ্বারা সুস্থ করে সকল ভাবে হৃষ্ট-পুষ্ট এবং বলবান করবেন॥৩॥
भाषार्थ
(যাঃ) যে (দেবতাঃ রোহিণী) দৈবী লাল (গাবঃ) রশ্মি রয়েছে, (উত) তথা (যাঃ) যে (রোহিণীঃ) মানুষী লাল রশ্মি রয়েছে (রূপম্, রূপম্) তোমার প্রত্যেক রূপকে, (বয়ঃ বয়ঃ) তথা প্রত্যেক বয়স অর্থাৎ বাল্য, যুবক, তথা বৃদ্ধাবস্থাকে, (তাভিঃ) সেই রশ্মির দ্বারা (পরি দধ্মসি) আমি আচ্ছাদিত করি, এই অবস্থাগুলোতে প্রকট বিকৃতির নিবারণের জন্য।
टिप्पणी
[দেবত্যাঃ=সূর্যসম্বন্ধী লাল রশ্মি, তথা রোহিণীঃ অর্থাৎ মনুষ্যোৎপাদিত কৃত্রিম লাল রশ্মি। রূপম্ রূপম্=প্রত্যেক বয়ঃ অর্থাৎ শরীরাবস্থায় প্রকট নতুন-নতুন রূপ, অর্থাৎ বাল্য, যুবক, তথা বৃদ্ধাবস্থার বয়সে প্রকটিত বিকৃত নতুন-নতুন রূপ রোগ। যদ্যপি স্ত্রীলিঙ্গ প্রয়োগ হয়েছে, তা গো পদের দৃষ্টিতে। গো পদ গাভী ও বলদ এই দুটোতেই প্রযুক্ত হয়। গো পদ প্রায়ঃ স্ত্রীলিঙ্গে প্রযুক্ত হয় (আপ্টেকোষ)।]
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