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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - मरुद्गणः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सुख प्राप्ति सूक्त
    63

    यू॒यं नः॑ प्रवतो नपा॒न्मरु॑तः॒ सूर्य॑त्वचसः। शर्म॑ यच्छाथ स॒प्रथः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यू॒यम् । न॒: । प्र॒ऽव॒त॒: । न॒पा॒त् । मरु॑त: । सूर्य॑ऽत्वचस: । शर्म॑ । य॒च्छा॒थ॒ । स॒ऽमथा॑: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यूयं नः प्रवतो नपान्मरुतः सूर्यत्वचसः। शर्म यच्छाथ सप्रथः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यूयम् । न: । प्रऽवत: । नपात् । मरुत: । सूर्यऽत्वचस: । शर्म । यच्छाथ । सऽमथा: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 26; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    युद्ध का प्रकरण।

    पदार्थ

    (प्रवतः) हे [अपने] भक्त के (नपात्) न गिरानेहारे राजन् ! और (सूर्यत्वचसः) हे सूर्यसमान प्रतापवाले (मरुतः) शत्रुओं के मारनेहारे शूरवीर महात्माओ ! (यूयम्) तुम सब (नः) हमारे लिये (सप्रथः) बहुत विस्तीर्ण (शर्म) सुख वा शरण (यच्छाथ) दान करो ॥३॥

    भावार्थ

    अपने भक्तों की रक्षा करनेहारा राजा और महाप्रतापी धर्म-धुरंधर शूरवीर मन्त्री आदि मिल कर प्रजा की सर्वथा रक्षा करके अपने शरण में रक्खें ॥३॥

    टिप्पणी

    टिप्पणी−अजमेर वैदिक यन्त्रालय और बंबई गवर्नमेन्ट के पुस्तक के संहितापाठ में (सप्रथाः) पाठ अशुद्ध दीखता है, सायणभाष्य और बंबई के सेवकलाल कृष्णदास-शोधित पुस्तक का (सप्रथः) पाठ शुद्ध जान कर हमने यहाँ पर लिया है ॥ ३−यूयम्। प्रवतो नपात् मरुतश्च। प्र-वतः। १।१३।२। भक्तस्य, सेवकस्य। भक्तान्। द्वितीयायां बहुवचनं वा। नपात्। १।१३।२। न पातयतीति। हे अपातनशील राजन् ! मरुतः। १।२०।१। मारयन्ति शत्रून् ते। हे शूरवीराः पुरुषाः। सूर्य-त्वचसः। त्वच संवरणे−असुन्। सूर्यस्य त्वक् संवरणमिव संवरणं येषां ते। सूर्यसमानतेजस्काः। शर्म। १।२०।३। सुखम्, शरणम्। यच्छाथ। दाण् दाने−लेट्। प्रयच्छत, दत्त। स-प्रथः। सह+प्रथ ख्यातौ असुन्। प्रथसा सहितं, सविस्तारम् ॥

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    विषय

    मरुतों की कल्याणकारिता

    पदार्थ

    १. हे (मरुतः) = प्राणो! (यूयम्) = आप (न:) = हमें (प्रवतः नपात्) = उच्च स्थान से न गिरने देनेवाले हो। प्राणसाधना हमें उच्च स्थिति में रखती है। इससे हममें दैवीभावों की वृद्धि होती है। केवल दैवीभावों का वर्धन ही नहीं, ये मरुत् (सुर्यत्वचस:) = सूर्य के समान ज्योतिर्मय त्वचा देनेवाले हैं। इनकी साधना से मनुष्य का स्वास्थ्य ऐसा उत्तम बनता है कि उसकी त्वचा सूर्य की भाँति चमकनेवाली बनती है। २. ('सूर्यत्वचसः') = शब्द का अर्थ यह भी हो सकता है कि ये मरुत् सूर्य को (त्वच) = [touch] छूनेवाली हैं, अर्थात् प्राणसाधना हमें सूर्यमण्डल का भेदन करके ब्रह्मलोक में ले-जानेवाली होती है। ३. हे मरुतो! आप (सप्रथा:) = विस्तृत (शर्म) = सुख (यच्छाथ) = दो। ये प्राण हमारे शरीरों को नीरोग, मनों को निर्मल तथा मस्तिष्क को दीस बनाकर विस्तृत सुखों को देनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    प्राणसाधना हमें ऊपर-और-ऊपर ले-चलती है। यह हमें सूर्यमण्डल का भेदन करनेवाला बनाती है और विस्तृत सुख प्रदान करती है।

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    भाषार्थ

    (प्रवतः) प्रकृष्ट गुणोंवाले व्यक्ति का ( नपात् ) न पात करनेवाले हे परमेश्वर! (सूर्यंत्वचसः) तथा सूर्य की त्वचा के सदृश त्वचावाले (मरुतः) शत्रु को मारनेवाले हे सैनिको! (यूयम्) तुम (न:) हम प्रजाजनों को (सप्रथाः) विस्तृत (शर्म) सुख या गृह (यच्छाथ) प्रदान करो।

    टिप्पणी

    [परमेश्वर प्रकृष्ट गुणोंवाले मनुष्य का पात नहीं करता, अपितु उसका उद्धार करता है, उसे समुन्नत करता है, सुखी करता है। नपात्= न पातयिता (सायण) । मरुतः= म्रियते मारयति वा स मरुत्, मनुष्यजाति: (उणादिः १।९४ दयानन्द)। ये सैनिक हैं जोकि युद्ध में मरते भी हैं और शत्रु को मारते भी हैं। ये सूर्यत्वचसः हैं, सूर्य की पृष्ठ के समान तेजस्वी, चमकीले। युद्ध के शस्त्रास्त्रों को धारण करने से उनकी चमक द्वारा चमकने वाले। ये प्रजाजनों की रक्षा कर उन्हें विस्तृत अर्थात् महासुख प्रदान करते तथा उनके राष्ट्रगह का विस्तार करते हैं, राष्ट्रगह की सीमाओं को बढ़ाते हैं। शर्म=सुखनाम तथा गृहनाम (निघं० ३।६ तथा ३।६)।

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    विषय

    रक्षा, सभ्यता और शान्ति।

    भावार्थ

    हे (मरुतः) सेना के अध्यक्षो ! वीर पुरुषों ! तुम ( सूर्य-त्वचसः) कवच की चमक द्वारा सूर्यके समान उज्वल होकर (प्रवतः नपात्) तथा गिरते हुए सैनिकों को न गिरने देने वाले हे मुख्य सेनापते ! ( यूयं ) आप लोग ( नः ) हमें ( सप्रथाः ) अतिविस्तृत (शर्म) सुख या शरण, नगर या दुर्ग (यच्छाथ) निवासार्थ प्रदान करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। इन्दादयो मन्त्रोक्ता बहवो देवताः। १,३ गायत्री, २ त्रिपदा साम्नी त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृत्। २, ४ एकावसाना। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Peace and Protection

    Meaning

    O Maruts, children of energy, mighty warriors, blazing with lustre as the sun, who never suffer a retreat, give us peace and protection of boundless possibilities of progress.

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    Translation

    O cloud-bearing winds, children of heavenly heights, with sun-like skins, may you grant us protection and happiness ever spreading.

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    Translation

    O Ye chiefs of armforces and protector of falling army men (the chief of staff’s) you shine like the Sun when equipped with your arms and armours. You give us excessive happiness and provide us with dwelling place.

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    Translation

    O generals, shining like the sun with the glow of your armor; O commander of the army never allowing the falling soldiers fall, give us far-reaching protection.

    Footnote

    In some texts सप्रथा: is used, while in others it is सप्रथ:,Pt. Satvalelkar and Pt. Jaidev Vidyalankar adopt सुप्रथा: Sayana Pt. Raja Ram and Pt. Khem Karan Das Trivedi adopt सप्रथ

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    टिप्पणी−अजमेर वैदिक यन्त्रालय और बंबई गवर्नमेन्ट के पुस्तक के संहितापाठ में (सप्रथाः) पाठ अशुद्ध दीखता है, सायणभाष्य और बंबई के सेवकलाल कृष्णदास-शोधित पुस्तक का (सप्रथः) पाठ शुद्ध जान कर हमने यहाँ पर लिया है ॥ ३−यूयम्। प्रवतो नपात् मरुतश्च। प्र-वतः। १।१३।२। भक्तस्य, सेवकस्य। भक्तान्। द्वितीयायां बहुवचनं वा। नपात्। १।१३।२। न पातयतीति। हे अपातनशील राजन् ! मरुतः। १।२०।१। मारयन्ति शत्रून् ते। हे शूरवीराः पुरुषाः। सूर्य-त्वचसः। त्वच संवरणे−असुन्। सूर्यस्य त्वक् संवरणमिव संवरणं येषां ते। सूर्यसमानतेजस्काः। शर्म। १।२०।३। सुखम्, शरणम्। यच्छाथ। दाण् दाने−लेट्। प्रयच्छत, दत्त। स-प्रथः। सह+प्रथ ख्यातौ असुन्। प्रथसा सहितं, सविस्तारम् ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (প্রবতঃ) হে ভক্তের উন্নতি পথের সহায়ক (সূর্য ত্বত্চসঃ) সূর্য তুল্য পরাক্রান্ত (মরুতঃ) শত্রু বিনাশক বীরগণ! (য়ূয়ং) তোমরা (নঃ) আমাদের জন্য (সপ্রথ) বহু বিস্তৃত (শৰ্ম) আশ্রয় (য়চ্ছাথ) দান কর।।

    भावार्थ

    হে ভক্তের উন্নতি পথের সহায়ক, সূর্য তুল্য পরাক্রমশালী, শত্রু বিনাশক বীরগণ! তোমরা আমাদিগকে বহু বিস্তৃত আশ্রয় দান কর।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ূয়ং নঃ প্রবতো নপাৎ মরুতঃ নর্সূয়ত্বত্চসঃ। শৰ্ম য়চ্ছাথ সপ্রথঃ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ব্ৰহ্মা। ইন্দ্রাদয়ো মন্ত্রোক্তাঃ। গায়ত্রী

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    मन्त्र विषय

    (যুদ্ধপ্রকরণম্) যুদ্ধের প্রকরণ

    भाषार्थ

    (প্রবতঃ) হে [নিজের] ভক্তের (নপাৎ) অপতিতকারী/রক্ষাকারী রাজন ! এবং (সূর্যৎবচসঃ) হে সূর্যসমান প্রতাপবান (মরুতঃ) শত্রুদের বিনাশকারী বীর মহাত্মাগণ ! (যূয়ম্) তোমরা সবাই (নঃ) আমাদের জন্য (সপ্রথঃ) বহু বিস্তীর্ণ (শর্ম) সুখ বা শরণ (যচ্ছাথ) দান করো ॥৩॥

    भावार्थ

    নিজের ভক্তদের রক্ষাকারী রাজা এবং মহাপ্রতাপী ধর্ম-ধুরন্ধর বীর মন্ত্রী আদি মিলে প্রজার সর্বথা রক্ষা করে নিজের শরণে রাখবে/রাখুক ॥৩॥ টিপ্পণী− অজমের বৈদিক যন্ত্রালয় এবং বোম্বাই গবর্নমেন্টের পুস্তকের সংহিতাপাঠে (সপ্রথাঃ) পাঠ অশুদ্ধ দেখা যায়। সায়ণভাষ্য রবং বোম্বাইয়ের সেবকলাল কৃষ্ণদাস-শোধিত পুস্তকে (সপ্রথঃ) পাঠ শুদ্ধ মেনে আমি এখানে এটি গ্রহণ করেছি॥

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    भाषार्थ

    (প্রবতঃ) প্রকৃষ্ট গুণবান্ ব্যক্তির (নপাৎ) ধারক/রক্ষক,‌ হে পরমেশ্বর ! (সূর্যত্বচসঃ) তথা সূর্যের ত্বকের সদৃশ ত্বকবিশিষ্ট (মরুতঃ) শত্রু হননক্ষমতাসম্পন্ন হে সৈনিকগণ ! (যূয়ম্) তোমরা (নঃ) আমাদের প্রজাদের (সপ্রথাঃ) বিস্তৃত (শর্ম) সুখ বা গৃহ (যচ্ছাথ) প্রদান করো।

    टिप्पणी

    [পরমেশ্বর প্রকৃষ্ট গুণবান্ মনুষ্যের নিপাত করেন না, বরং তাঁদের উদ্ধার করেন, তাঁদের সমুন্নত করেন, সুখী করেন। নপাৎ = ন পাতয়িতা (সায়ণ)। মরুতঃ=ম্রিয়তে মারয়তি বা স মরুৎ, মনুষ্য জাতিঃ (উণাদিঃ ১।৯৪, দয়ানন্দ)। এই সৈনিক যারা যুদ্ধে মৃত্যুবরণ করে এবং শত্রুদেরও বিনাশ করে। এরা সূর্যত্বচসঃ, সূর্যের পৃষ্ঠের সমান তেজস্বী, জাজ্বল্যমান। যুদ্ধের শস্ত্রাস্ত্র ধারণ করলে তাঁদের চমক দ্বারা জাজ্বল্যমান। এঁরা প্রজাদের/সৈনিকগণ রক্ষা করে তাঁদের/প্রজাদের বিস্তৃত অর্থাৎ মহাসুখ প্রদান করে তথা তাঁদের রাষ্ট্রগৃহের বিস্তার করে, রাষ্ট্রগৃহের সীমা বৃদ্ধি করে। শর্ম= সুখনাম এবং গৃহনাম (নিঘং০ ৩।৬ তথা ৩।৬)।]

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