अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 4
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - मरुद्गणः
छन्दः - एकावसाना पादनिचृद्गायत्री
सूक्तम् - सुख प्राप्ति सूक्त
64
सु॑षू॒दत॑ मृ॒डत॑ मृ॒डया॑ नस्त॒नूभ्यो॑ मय॑स्तो॒केभ्य॑स्कृ॒धि ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒सू॒दत॑ । मृ॒डत॑ । मृ॒डय॑ । न॒: । त॒नूभ्य॑: । मय॑: । तो॒केभ्य॑: । कृ॒धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुषूदत मृडत मृडया नस्तनूभ्यो मयस्तोकेभ्यस्कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठसुसूदत । मृडत । मृडय । न: । तनूभ्य: । मय: । तोकेभ्य: । कृधि ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
युद्ध का प्रकरण।
पदार्थ
(सुषूदत) तुम सब [हमें] अङ्गीकार करो और (मृडत) सुखी करो, [हे राजन् !] तू (नः) हमारे (तनूभ्यः) शरीरों को (मृडय) सुख दे और (तोकेभ्यः) बालकों को (मयः) आनन्द (कृधि) कर ॥४॥
भावार्थ
महाप्रतापी राजा और सुयोग्य कर्मचारी मिल कर सब प्रजा और उनकी सन्तानों की उत्तम शिक्षा आदि से उन्नति करें और सुख पहुँचाते रहें ॥४॥
टिप्पणी
४−सुषूदत। षूद आश्रुतिहत्योः। निरासे च। आश्रुतिरङ्गीकारः। इति शब्दकल्पद्रुमः। अङ्गीकुरुत। मृडत। मृड सुखने। सुखयत। मृडय। सुखय। तनूभ्यः। १।१।१। शरीरेभ्यः। मयः। १।१३।२। सुखम्। १। तोकेभ्यः। १।१३।२। अपत्येभ्यः ॥
विषय
अपना व सन्तानों का स्वास्थ्य
पदार्थ
१. हे प्राणो! (सषूदत) = [षद् क्षरणे] आप हमारे सब मलों का क्षरण-दूर करनेवाले होओ, शरीर के मलों को दूर करके हमें स्वस्थ बनाओ। मनों की मैल को दूर करके उन्हें निर्मल बनाओ तथा मस्तिष्क की कुण्ठता को दूर करके हमें तीन बुद्धि बनाओ। ऐसा बनाकर (मृडत) = हमें सुखी करो। वास्तविक सुख'शरीर, मन व मस्तिष्क' तीनों के नैर्मल्य में ही है। २. (न: तनूभ्य:) = हमारे शरीरों के लिए तो (मृडय) = सुख प्रदान करो ही (तोकेभ्य:) = हमारी सन्तानों के लिए भी (मयः) = (कृधि) = कल्याण व नीरोगता कीजिए। हमारे शरीर स्वस्थ होंगे तो हमारे सन्तानों के शरीरों पर उनका प्रभाव पड़ेगा ही।
भावार्थ
प्राणसाधना से नैर्मल्य को सिद्ध करके हम अपने व सन्तानों के स्वास्थ्य को प्राप्त करनेवाले हों।
विशेष
संक्षेप में सूक्त का भाव यही है कि प्राणसाधना से नैर्मल्य को सिद्ध करके, देव बनकर, हम आधिदैविक आपत्तियों से बचें। यह प्राणसाधना हमें चित्तवृत्ति-निरोध के द्वारा 'अथर्वा' बनाती है। अथ अर्वाड्ह म अन्तर्मुखी वृत्तिवाले बनते हैं, साथ ही हममें वीरता का संचार होता है
भाषार्थ
[हे मरुतः, सैनिको! मन्त्र (३)] तुम (सुषूदत) शत्रुओं पर वाणों को क्षरित करो, फेंको (मुडय) तथा हे परमेश्वर, मन्त्र (३) तू सुख प्रदान कर (न:) हमारे (तनूभ्यः) शरीरों के लिये तथा हमारे (तोकेभ्यः) सन्तानों के लिये (मयः) सुख (कृधि) कर।
टिप्पणी
[सुषूदत=षूद क्षरणे (भ्वादिः)। मयः सुखनाम (निघं० ३।६) । तोकम् अपत्यनाम (निघं० २।२) । मृड सुखने (तुदादिः)।]
विषय
रक्षा, सभ्यता और शान्ति।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! ( सु सूदत ) शत्रुओं को नदी के बहाव के समान बहाकर दूर करदो, ( मृडत ) सदा स्वतः सुखी रहो और प्रजा को सुखी करो ( नः ) हमारे (तनूभ्यः) शरीरों को (मृडय) सुखी करो और ( नः तोकेभ्यः ) हमारे अगले सन्तानों के लिये भी ( मयः ) कल्याण, सुख का ( कृषि ) सम्पादन करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। इन्दादयो मन्त्रोक्ता बहवो देवताः। १,३ गायत्री, २ त्रिपदा साम्नी त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृत्। २, ४ एकावसाना। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Peace and Protection
Meaning
Guide us aright, lead us to advance, be gracious, bring us peace and settlement for our body, mind and soul, bring us felicity of well being for our people and for our future generations.
Translation
May you give us good shelter. Be gracious and bestow happiness on our bodies. May you grant delight to our offsprings.
Translation
O Ye learned men; drive away our enemies, be happy yourself and extend happiness and pleasure to our bodies and make our progeny happy.
Translation
O learned persons, afford us protection, grunt us happiness, grant our bodies freedom from disease. Give our children happiness !
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−सुषूदत। षूद आश्रुतिहत्योः। निरासे च। आश्रुतिरङ्गीकारः। इति शब्दकल्पद्रुमः। अङ्गीकुरुत। मृडत। मृड सुखने। सुखयत। मृडय। सुखय। तनूभ्यः। १।१।१। शरीरेभ्यः। मयः। १।१३।२। सुखम्। १। तोकेभ्यः। १।१३।२। अपत्येभ्यः ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(সুসুদত) তোমরা সকলে অঙ্গীকার কর ও (মৃত) সুখী কর। (নঃ) আমাদের (তনূভ্যঃ) শরীরকে (মৃডয়) সুখ দান কর (তোকেভ্যঃ) বালকদিগকে (ময়ঃ) আনন্দ (কৃধি) দান কর।।
भावार्थ
হে রাজন! তোমরা সকলে অঙ্গীকার কর । সকলকে সুখী কর। আমাদের শরীরকে সুখ দাও এবং বালকদিগকে আনন্দ দাও।।
मन्त्र (बांग्ला)
সুষুদত মৃডত মৃডয়া ন স্তনূভ্যঃ ৷ ময়স্তোকেভ্য স্কৃধি।।
ऋषि | देवता | छन्द
ব্ৰহ্মা। ইন্দ্রাদয়ো মন্ত্রোক্তাঃ। পাদনিচূৎ গায়ত্রী (একাবসানা)
मन्त्र विषय
(যুদ্ধপ্রকরণম্) যুদ্ধের প্রকরণ
भाषार्थ
(সুষূদত) তোমরা সবাই [আমাদের] অঙ্গীকার করো এবং (মৃডত) সুখী করো, [হে রাজন !] তুমি (নঃ) আমাদের (তনূভ্যঃ) শরীরকে (মৃডয়) সুখ দাও এবং (তোকেভ্যঃ) বালকদের (ময়ঃ) আনন্দিত (কৃধি) করো ॥৪॥
भावार्थ
মহাপ্রতাপী রাজা এবং সুযোগ্য কর্মচারী মিলে সকল প্রজা এবং তাদের সন্তানদের উত্তম শিক্ষা আদি দ্বারা উন্নতি করবে/করুক এবং সুখ প্রেরণ করুক/করতে থাকবে॥৪॥
भाषार्थ
[হে মরুতঃ, সৈনিকগণ! মন্ত্র (৩)] তোমরা (সুষূদত) শত্রুর প্রতি বাণ ক্ষরিত করো, নিক্ষেপ করো। (মৃডত) তথা হে পরমেশ্বর, মন্ত্র (৩) (মৃডয়া) তুমি সুখ প্রদান করো (নঃ) আমাদের (তনূভ্যঃ) শরীরের জন্য এবং আমাদের (তোকেভ্যঃ) সন্তানদের জন্য (ময়ঃ) সুখ (কৃধি) করো।
टिप्पणी
[সুষূদত=ষূদ ক্ষরণে (ভ্বাদিঃ) ময়ঃ সুখনাম (নিঘং০ ৩।৬)। তোকম্ অপত্যনাম (নিঘং০ ২।২) মৃড সুখনে (তুদাদিঃ)।]
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