Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आशापाला वास्तोष्पतयः छन्दः - विराडनुष्टुप सूक्तम् - पाशविमोचन सूक्त
    67

    अस्रा॑मस्त्वा ह॒विषा॑ यजा॒म्यश्लो॑णस्त्वा घृ॒तेन॑ जुहोमि। य आशा॑नामाशापा॒लस्तु॒रीयो॑ दे॒वः स नः॑ सुभू॒तमे॒ह व॑क्षत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्रा॑म: । त्वा॒ । ह॒विषा॑ । य॒जा॒मि॒ । अश्रो॑ण: । त्वा॒ । घृ॒तेन॑ । जु॒हो॒मि॒ ।य: । आशा॑नाम् । आ॒शा॒ऽपा॒ल: । तु॒रीय॑: । दे॒व: । स: । न॒: । सु॒ऽभू॒तम् । आ । इ॒ह । व॒क्ष॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्रामस्त्वा हविषा यजाम्यश्लोणस्त्वा घृतेन जुहोमि। य आशानामाशापालस्तुरीयो देवः स नः सुभूतमेह वक्षत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्राम: । त्वा । हविषा । यजामि । अश्रोण: । त्वा । घृतेन । जुहोमि ।य: । आशानाम् । आशाऽपाल: । तुरीय: । देव: । स: । न: । सुऽभूतम् । आ । इह । वक्षत् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुरुषार्थ और आनन्द के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमेश्वर !] (अस्रामः) श्रमरहित मैं (त्वा) तुझको (हविषा) भक्ति से (यजामि) पूजता हूँ, (अश्लोणः) लंगड़ा न होता हुआ मैं (त्वा) तुझको (घृतेन) [ज्ञान के] प्रकाश से [अथवा घृत से] (जुहोमि) स्वीकार करता हूँ। (यः) जो (आशानाम्) सब दिशाओं में (आशापालः) आशाओं को पालन करनेवाला, (तुरीयः) बड़ा वेगवान् परमेश्वर [अथवा, चौथा मोक्ष] (देवः) प्रकाशमय है, (सः) वह (नः) हमारे लिये (इह) यहाँ पर (सुभूतम्) उत्तम ऐश्वर्य (आ+वक्षत्) पहुँचावे ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य निरालस्य होकर परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं अथवा जो घृत से अग्नि के समान प्रतापी होते हैं, वे शीघ्र ही जगदीश्वर का दर्शन करके [अथवा धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि से पाये हुए चौथे मोक्ष के लाभ से] महासमर्थ हो जाते हैं ॥३॥ सायणभाष्य में (अस्रामः) के स्थान में [अश्रामः] और (अश्लोणः) के स्थान में [अश्रोणः] हैं, वे अधिक शुद्ध जान पड़ते हैं ॥

    टिप्पणी

    ३−अस्रामः। श्रमु तपःखेदयोः−घञ्। शस्य सकारः। श्रमरहितः, खेदरहितः। त्वा। त्वाम्, परमेश्वरम्। हविषा। म० १। भक्त्या। यजामि। पूजयामि। अश्लोण। श्रोण संघाते=राशीकरणे−अच्। रस्य लः। अश्रोणः, अपङ्गः। घृतेन। अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति घृ भासे−भावे क्त। दीप्त्या, स्वज्ञानप्रकाशेन। आज्येन। जुहोमि। १।१५।१। अहम् आददे, स्वीकरोमि। यः। आशापालः। आशानाम्। म० १। दिशानाम्। आशा-पालः। म० १। इच्छापालकः। तुरीयः। तुरो वेगः, अस्त्यर्थे छ प्रत्ययः। तुरवान्, वेगवान् परमेश्वरः [अथवा। चतुरश्छयतावाद्यक्षरलोपश्च। वार्तिकम्। पा० ५।२।५१। इति चतुर्−छ, चकारलोपश्च। चतुर्थः। चतुर्णां पूरको। मोक्षः−इति] सु-भूतम्। सु+भू सत्तायां भावे क्त। सुभूतिम्। सु सुष्ठु प्रभूतं धनम्, आ−समन्तात्। इह। अत्र। वक्षत्। वह प्रापणे−लेटि अडागमः, द्विकर्मकः। आवहेत्, प्रापयेत्, आहृत्य दद्यात्।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अस्त्रामः-अश्लोण:

    पदार्थ

    १. (अस्त्रामः) = अश्रान्त होता हुआ (त्वा) = तुझे (हविषा) = दानपूर्वक अदन के द्वारा-यज्ञशेष के सेवन के द्वारा (यजामि) = उपासित करता हूँ। प्रभु का सच्चा पूजन यही है कि हमारा जीवन एक अविच्छिन्न यज्ञ बन जाए। ('यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा:') = देव यज्ञ के द्वारा ही उस उपास्य प्रभु का पूजन करते हैं। गतमन्त्रों में वर्णित मुख द्वार का संयम यज्ञशेष के सेवन की वृत्ति से ही होता है। २. (अश्लोण:) = [श्लोण-to heap together, collect, gather] धनों का परिग्रह न करता हुआ मैं (घृतेन) = मानस नैर्मल्य व मस्तिष्क की ज्ञानदीसि से (त्वा) = तेरे प्रति-(जुहोमि) = अपना अर्पण करता हूँ। धनों का संग्रह ही हमें प्रभु से दूर ले-जाता है। धन की चमक ही हमारी दृष्टि पर पर्दा डाल देती है और हम प्रभु-दर्शन से वञ्चित ही रह जाते हैं। ३. निरन्तर यज्ञमय जीवन बिताने पर तथा धनों के लोभ के त्याग से प्रभु के प्रति अपना अर्पण करने पर (य:) = जो (आशानाम्) = इन दिशाओं में (तुरीयः आशापाल:) = उत्तर दिशा का आशापाल 'ईशन' प्रभु है, (सः देव:) = वह प्रकाशमान् देव (न:) = हमारे लिए (इह) = इस जीवन में (सुभूतम्) = उत्तम स्थिति को (आवक्षत्) = सब प्रकार से प्राप्त कराए। विदृति द्वार ही शरीर में उत्तर द्वार है। यह हमें ब्रह्म की ओर ले-जाता है। हम ब्रह्म की ओर चलते हैं और ब्रह्म हमें 'सु-भूत' उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं। ४. प्रभु-प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि [क] हम यज्ञमय जीवन बिताएँ, [ख] धनों के प्रति आसक्ति न रखते हुए उस तुरीय देव प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें। ५. स्थूलतया मुख का सम्बन्ध स्थूलशरीर से है। ठीक खाएँगे तो यह शरीर ठीक बना रहेगा। पायु का कार्य ठीक होने पर ही सूक्ष्मशरीर के कार्य ठीक से चलते हैं, अन्यथा सब इन्द्रियाँ थकी-सी प्रतीत होती हैं, मस्तिष्क पीड़ित-सा हो जाता है। उपस्थ का संयम हमें कारणशरीर व आनन्दमयकोश में पहुँचाता है। जब हम प्राणसाधना से विति द्वार को खोलने के लिए प्रवृत्त होते हैं, तब समाधिजन्य तुरीय शरीर में पहुँचते हैं। यह तुरीय शरीर ब्रह्म ही है। यहाँ पहुँचने पर हम 'शान्त, शिव, अद्वैत स्थिति का अनुभव करते हैं। यह स्थिति ही "सु-भूत' है।

    भावार्थ

    हम ब्रह्म का यज्ञ करते हैं उसके प्रति अपना अर्पण करते हैं तो प्रभु हमें सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त करानेवाले होते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (अस्रामः) स्राम रोग से रहित हुआ, (त्वा) तुझे ( हविषा) हवि द्वारा (यजामि ) मैं पूजता हूँ, या तुझे यज्ञाग्नि द्वारा आहुतियाँ देता हूँ, (अश्लोणः) लंगड़ा न होता हुआ (त्वा) तुझे (घृतेन) घृत द्वारा ( जूहोमि ) आहुतियाँ देता हूँ। (यः) जो (आशानाम्) सब दिशाओं का (आशापालः) दिक्पाल (तुरीयः देवः) चतुर्थ देव है (सः) वह ( न:) हमारे लिए (इह) इस जीवन में (सुभूतम्) उत्तम स्थिति (आवक्षत्) प्राप्त कराए। वह प्रापणे (भ्वादिः)

    टिप्पणी

    [स्राम-रोग प्रवाही रोग है, सम्भवतः अतिसार। सामाः स्रु (स्रवित होना, स्रुत होना)। यज्ञ करने के लिये शरीर स्वस्थ तथा अविकृताङ्ग होना चाहिए । घृतरूपी हवि:१ श्रेष्ठ हविः है। सब दिशाओं का दिक्पाल एक है, जिसे कि "तुरीय" कहा है। इसे "चतुर्थ: पाद:" भी कहा है। जोकि ओङ्कार है (माण्डूक्योपनिषद्, सन्दर्भ १२)। चार दिशाओं के दिक्पालों का पृथक्-पृथक् कथन मन्त्र (२) में हुआ है। मन्त्र (३) में चार दिशाओं, अवान्तर दिशाओं, ध्रुवा, ऊर्ध्वा दिशाओं के एकपति का कथन "तुरीय" पद द्वारा हुआ है। सुभूतम्= सु + भू, सत्तायाम् (भ्वादिः), सत्ता है स्थिति। सृभूतम् को मन्त्र (४) में स्वस्ति कहा है। स्वस्ति=सु+अस्+ ति। तुरीय-परमेश्वर है ब्रह्म। देखो सूक्त ३२, मन्त्र ( १ ) में "महद् -ब्रह्म"।] [१ घृतरूपी हविः अथवा घृत और हविः।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    समर्पण ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( आशानां ) चार मुख्य दिशाओं में से ( आशापालः ) प्रत्येक दिशा का पालन करने हारा ( तुरीयः देव: ) तुर्यावस्था का देव अर्थात् ब्रह्म ( सः ) वह ( नः ) हमें ( सुभूतम् ) उत्तम विभूति ( इह ) इस जन्म में ही ( आवक्षत् ) प्राप्त करावे । हे ब्रह्मदेव ! ( अस्रामः ) अखिन्नचित्त होकर मैं ( त्वा ) तेरी ( हविषा ) उत्तम हवि द्वारा ( यजामि ) पूजा करता हूं, और ( अश्लोणः ) व्याधिरहित, अनालस होकर ( त्वा ) तेरे प्रति ( घृतेन ) घी की ( जुहोभि ) आहुति समर्पित करता हूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः । आशापालाः वास्तोष्पतयश्च देवताः । १, २ अनुष्टुभौ । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४ परानुष्टुप् । चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Hope and Fulfilment

    Meaning

    O lord transcendent of the fourth estate of the freedom of Moksha, I never tire of serving you with havi. I never give up the divine service with ghrta like a lame man giving up the journey. May the lord transcendent of spiritual freedom, protector and promoter of the regions of space, grant us the honour, excellence and glory of life.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    United I offer oblations to you. Unlamed I offer you oblations of melted butter. May that bounty of Nature, which is the fourth quarter-guard of the regions, bring well being to us.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May He who is turiyah, the most powerful God of all these guardians of the direction bless us with all prosperity in this life. O Almighty; We in peaceful mood enjoying full health worship you with great devotion and to attain you we perform the yajnas with ghee.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Free from lassitude, I serve Thee, O God, with devotion, free from disease, I acknowledge Thee with my knowledge. Let the strong God, the Guardian of our ambitions in the universe, bring to us hither safety and well being.

    Footnote

    The word तुरीय: translated as strong God, may also mean Moksha, the fourth end of human existence.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−अस्रामः। श्रमु तपःखेदयोः−घञ्। शस्य सकारः। श्रमरहितः, खेदरहितः। त्वा। त्वाम्, परमेश्वरम्। हविषा। म० १। भक्त्या। यजामि। पूजयामि। अश्लोण। श्रोण संघाते=राशीकरणे−अच्। रस्य लः। अश्रोणः, अपङ्गः। घृतेन। अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति घृ भासे−भावे क्त। दीप्त्या, स्वज्ञानप्रकाशेन। आज्येन। जुहोमि। १।१५।१। अहम् आददे, स्वीकरोमि। यः। आशापालः। आशानाम्। म० १। दिशानाम्। आशा-पालः। म० १। इच्छापालकः। तुरीयः। तुरो वेगः, अस्त्यर्थे छ प्रत्ययः। तुरवान्, वेगवान् परमेश्वरः [अथवा। चतुरश्छयतावाद्यक्षरलोपश्च। वार्तिकम्। पा० ५।२।५१। इति चतुर्−छ, चकारलोपश्च। चतुर्थः। चतुर्णां पूरको। मोक्षः−इति] सु-भूतम्। सु+भू सत्तायां भावे क्त। सुभूतिम्। सु सुष्ठु प्रभूतं धनम्, आ−समन्तात्। इह। अत्र। वक्षत्। वह प्रापणे−लेटि अडागमः, द्विकर्मकः। आवहेत्, प्रापयेत्, आहृत्य दद्यात्।

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (3)

    पदार्थ

    হে পরমেশ্বর! (অভ্রামঃ) শ্রমরহিত আমি (ত্বা) তোমাকে (হবিষা) ভক্তি দ্বারা (য়জামি) পূজা করিতেছি। (অশ্লোণঃ) খঞ্জ না হইয়া আমি (ত্বা) তোমাকে (ঘৃতেন) জ্ঞানের প্রকাশ দ্বারা (জুহোমি) আত্ম নিবেদন জানাইতেছি। (য়ঃ) যিনি (আশানাম্) সব আশার মধ্যে (আশাপালঃ) আশার রক্ষক (তুরীয়ঃ) বেগবান পরমেশ্বর (দেবঃ) প্রকাশময় (সঃ) তিনি (নঃ) আমাদের জন্য (ইহ) এখানে (সুভূতাং) উত্তম ঐশ্বর্য (আ বক্ষৎ) পৌছাইয়া দিন।।

    भावार्थ

    হে পরমেশ্বর! শ্রমরহিত আমি তোমাকে ভক্তি দ্বারা পূজা করিতেছি। স্বাস্থ্যবান আমি জ্ঞানের প্রকাশ দ্বারা তোমাকে পূজা করিতেছি। সব আশার মধ্যে আশার পালক বেগবান প্রকাশময় পরমাত্মা আমাদিগকে উৎকৃষ্ট ঐশ্বর্য প্রদান করুন।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    অস্রামস্ত্বা হবিষা য়জাম্যশ্লোণস্ত্বা ঘৃতেন জুহোমি। য় আশানামাশাপাল স্তুরীয়ো দেবঃ সনঃ সুভূতমেহ বক্ষং।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ব্ৰহ্মা। আশাপালাঃ (বাস্তোষ্পতয়ঃ)। বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्र विषय

    (পুরুষার্থানন্দোপদেশঃ) পুরুষার্থ এবং আনন্দের জন্য উপদেশ

    भाषार्थ

    [হে পরমেশ্বর !] (অস্রামঃ) শ্রমরহিত/অক্লান্ত/অপরিশ্রান্ত আমি (ত্বা) তোমাকে (হবিষা) ভক্তি দ্বারা (যজামি) পূজা করি, (অশ্লোণঃ) অসমর্থ না হয়ে আমি (ত্বা) তোমাকে (ঘৃতেন) [জ্ঞানের] প্রকাশ দ্বারা [অথবা ঘৃত দ্বারা] (জুহোমি) স্বীকার করি। (যঃ) যিনি (আশানাম্) সব দিকে (আশাপালঃ) আশাসমূহকে পালনকারী, (তুরীয়ঃ) উত্তম বেগবান পরমেশ্বর [অথবা, চতুর্থ মোক্ষ] (দেবঃ) প্রকাশময়, (সঃ) সেই তিনি (নঃ) আমাদের জন্য (ইহ) এখানে (সুভূতম্) উত্তম ঐশ্বর্য (আ+বক্ষৎ) প্রেরণ করেন/করুক ॥৩॥

    भावार्थ

    যে মনুষ্য নিরালস্য হয়ে পরমেশ্বরের আজ্ঞার পালন করে অথবা যিনি ঘৃত দ্বারা অগ্নির ন্যায় প্রতাপী হন, তাঁরা শীঘ্রই জগদীশ্বরকে প্রাপ্ত করে [অথবা ধর্ম, অর্থ এবং কামের সিদ্ধি দ্বারা প্রাপ্ত চতুর্থ মোক্ষের লাভ দ্বারা] মহাসমর্থ হয়॥৩॥ সায়ণভাষ্যে (অস্ত্রামঃ) এর স্থানে [অশ্রামঃ] এবং (অশ্লোণঃ) এর স্থানে [অশ্রোণঃ] রয়েছে, এটি অধিক শুদ্ধ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (অস্রামঃ) স্রাম রোগরহিত হওয়া, (ত্বা) তোমাকে (হবিষা) হবি দ্বারা (যজামি) আমি পূজা করি, বা তোমাকে যজ্ঞাগ্নি দ্বারা আহুতি প্রদান করি, (অশ্লোণঃ) অসমর্থ না হওয়া (ত্বা) তোমাকে (ঘৃতেন) ঘৃত দ্বারা (জুহোমি) আহুতি প্রদান করি। (যঃ) যে (আশানাম্) সব দিশার (আশাপালঃ) দিকপাল (তুরীয়ঃ দেবঃ) চতুর্থ পরম দেব রয়েছেন (সঃ) তিনি (নঃ) আমাদের জন্য (ইহ) এই জীবনে (সুভূতম্) উত্তম স্থিতি (আবক্ষৎ) প্রাপ্ত করান। বহ প্রাপণে (ভ্বাদিঃ)

    टिप्पणी

    [স্রাম-রোগ হলো প্রবাহী রোগ, সম্ভবতঃ অতিসার। স্রামাঃ স্রু (স্রবিত হওয়া, স্রুত হওয়া)। যজ্ঞ করার জন্য শরীর সুস্থ ও অবিকৃতাঙ্গ হওয়া উচিত। ঘৃতরূপী হবিঃ১ শ্রেষ্ঠ হবিঃ। সকল দিশার দিকপাল এক, যাকে "তুরীয়" বলা হয়েছে। একে "চতুর্থঃ পাদঃ" ও বলা হয়েছে। যা ওঙ্কার (মাণ্ডূক্যোপনিষদ্, সন্দর্ভ ১২)। চারটি দিশার দিকপালের পৃথক্-পৃথক্ কথন মন্ত্র (২) তে হয়েছে মন্ত্র (৩) এ চার দিকের, অবান্তর দিশার, ধ্রুবা, ঊর্ধ্বা দিশার একপতির কথন "তুরীয়" পদ দ্বারা হয়েছে। সুভূতম্= সু + ভূ, সত্তায়াম্ (ভ্বাদিঃ), সত্তা হলো স্থিতি। সুভূতম্-কে মন্ত্র (৪) এ স্বস্তি বলা হয়েছে। স্বস্তি= সু + অস্ + তি। তুরীয়-পরমেশ্বর হলেন ব্রহ্ম। দ্রষ্টব্য সূক্ত ৩২, মন্ত্র (১) এ "মহদ্-ব্রহ্ম"।]

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top