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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आशापाला वास्तोष्पतयः छन्दः - परानुष्टुप्त्रिष्टुप् सूक्तम् - पाशविमोचन सूक्त
    148

    स्व॒स्ति मा॒त्र उ॒त पि॒त्रे नो॑ अस्तु स्व॒स्ति गोभ्यो॒ जग॑ते॒ पुरु॑षेभ्यः। विश्व॑म्सुभू॒तम्सु॑वि॒दत्रं॑ नो अस्तु॒ ज्योगे॒व दृ॑शेम॒ सूर्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्व॒स्ति । मा॒त्रे । उ॒त । पि॒त्रे । न॒: । अ॒स्तु॒ । स्व॒स्ति । गोभ्य॑: । जग॑ते । पुरु॑षेभ्य: । विश्व॑म् । सु॒ऽभू॒तम् । सु॒ऽवि॒दत्र॑म् । न॒: । अ॒स्तु॒ । ज्योक् । ए॒व । दृ॒शे॒म॒ । सूर्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्यः। विश्वम्सुभूतम्सुविदत्रं नो अस्तु ज्योगेव दृशेम सूर्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वस्ति । मात्रे । उत । पित्रे । न: । अस्तु । स्वस्ति । गोभ्य: । जगते । पुरुषेभ्य: । विश्वम् । सुऽभूतम् । सुऽविदत्रम् । न: । अस्तु । ज्योक् । एव । दृशेम । सूर्यम् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (6)

    विषय

    पुरुषार्थ और आनन्द के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (नः) हमारी (मात्रे) माता के लिये (उत) और (पित्रे) पिता के लिये (स्वस्ति) आनन्द (अस्तु) होवे और (गोभ्यः) गौओं के लिये (पुरुषेभ्यः) पुरुषों के लिये और (जगते) जगत् के लिये (स्वस्ति) आनन्द होवे। (विश्वम्) संपूर्ण (सुभूतम्) उत्तम ऐश्वर्य और (सुविदत्रम्) उत्तम ज्ञान वा कुल (नः) हमारे लिये (अस्तु) हो, (ज्योक्) बहुत काल तक (सूर्यम्) सूर्य को (एव) ही (दृशेम) हम देखते रहें ॥४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य माता-पिता आदि अपने कुटुम्बियों और अन्य माननीय पुरुषों और गौ आदि पशुओं से लेकर सब जीवों और संसार के साथ उपकार करते हैं, वे पुरुषार्थी सब प्रकार का उत्तम धन, उत्तम ज्ञान और उत्तम कुल पाते और वही सूर्य जैसे प्रकाशमान होकर दीर्घ आयु अर्थात् बड़े नाम को भोगते हैं ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−स्वस्ति। १।३०।२। क्षेमम्, मङ्गलम्। मात्रे। १।२।१। माननीयायै जनन्यै। पित्रे। १।२।१। पालकाय, जनकाय। गोभ्यः। १।२।३। गन्तव्याभ्यः प्रापणीयाभ्यः धेनुभ्यः गवादिपशुभ्यः। जगते। वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्जगच्छतृवच्च। उ० २।८४। इति गम्लृ-अति। निपातितश्च। गतिशीलाय संसाराय। पुरुषेभ्यः। पुरः कुषन्। उ० ४।७४। पुर अग्रगत्याम्−कुषन्। पुरति अग्रे गच्छतीति। पुत्रभृत्यादिमनुष्येभ्यः। विश्वम्। सर्वम्। सु-भूतम्। म० ३। प्रभूतमैश्वर्यम्। सुविदत्रम्। सुविदेः कत्रन्। उ० ३।१०८। इति सु+विद ज्ञाने, विद्लृ लाभे वा−कत्रन्। यास्कस्तु द्वेधा व्युत्पादयामास। सुविदत्रं धनं भवति विन्दतेर्वेकोपसर्गाद् ददातेर्वा स्याद् द्व्युपसर्गात्−निरु० ९।७। तथा। सुविदत्रः कल्याणविद्यः−निरु० ६।१४। शोभनं ज्ञानं कुटुम्बं वा। ज्योक्। १।६।३। चिरकालम्। दृशेम। दृशिर् प्रेक्षणे−आशीर्लिङ्। वयं पश्येम। सूर्यम्। १।३।५। आदित्यम्। भानुप्रकाशम् ॥

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    विषय

    माता पिता के कल्याण के लिए प्रार्थना

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    मेरे प्यारे! देखो, बालक नाचिकेता से ब्रह्मचारी से आचार्य से कहा।

    हे ब्रह्मचारी! मैं तुम्हे तीन रात्रि और तीन दिवस तीन वरदान देता हूँ

    तीन वचन देता हूँजो तुम्हारी इच्छा है, वह स्वीकार करो

    उन्होंने बालक ब्रह्मचारी नाचिकेता ने मुनिवरों! यमाचार्य से कहा हे भगवन! आपने यम को विजय कर लिया है,

    हे प्रभु! मेरी इच्छा यह है क्या जिस अभिलाषा से मेरे पिता विश्वश्रवा ने गऊं और द्रव्य सर्वत्र मानो देखो, याग में हूत कर दिया है, उन्होंने याग किया है, हे प्रभु! मेरे पिता की जिस अभिलाषा से उन्होंने किया है, वह उसकी पूर्ण हो जानी चाहिए।

    मेरे प्यारे! देखो, वह यमाचार्य ने उन्हें तथास्तु कह करके मेरे पुत्रों! देखो, सन्तुष्ट कर दिया।

    मेरे प्यारे! यह तो तुम्हे प्रतीत है कि मानो देखो, हमारे यहाँ महाराजा शान्तनु का वंशलज था, यह और महाराज शान्तनु के वंशलज में उनके पुत्र देवव्रत थे, और उनका संस्कार जो द्वितीय हुआ उससे विचित्र, वीर्य हुएपरन्तु विचित्र, वीर्य से दो पुत्र उत्पन्न हुए, एक तो अन्ध था, और एक पाण्डु था, धृतराष्ट्र और पाण्डु परन्तु जय अप्रतम क्योंकि देवव्रत ने अपने पिता की इच्छा पूर्ण करने के लिए सङ्कल्पबद्ध हो गएं

    भगवान का माता कैकेई की आज्ञा का पालन करके वन को जाना।

    मेरे प्यारे! देखो, वह यमाचार्य ने उन्हें तथास्तु कह करके मेरे पुत्रों! देखो, सन्तुष्ट कर दिया।

    मेरे प्यारे! यह तो तुम्हे प्रतीत है कि मानो देखो, हमारे यहाँ महाराजा शान्तनु का वंशलज था, यह और महाराज शान्तनु के वंशलज में उनके पुत्र देवव्रत थे, और उनका संस्कार जो द्वितीय हुआ उससे विचित्र, वीर्य हुए। परन्तु विचित्र, वीर्य से दो पुत्र उत्पन्न हुए, एक तो अन्ध था, और एक पाण्डु था, धृतराष्ट्र और पाण्डु परन्तु जय अप्रतम क्योंकि देवव्रत ने अपने पिता की इच्छा पूर्ण करने के लिए सङ्कल्पबद्ध हो गएं।

    राम का हृदय मुनिवरों! तपा हुआ था, राम जन्म जन्मान्तरों से महापुरुष होते चले आए थे। मेरे प्यारे! वह दिव्य आत्मा कहलाती थी। क्योंकि कुछ आत्माएँ ऐसी होती हैं इस संसार में जो प्रभु के नियन्त्रण में होती हैं, इन आत्माओं का मोक्ष नहीं होता अर्थात मोक्ष से पूर्व की स्थिति में आत्मा रहते हैं, इनमें व्यापकवाद होता है, जो कुछ इस संसार में आती हैं कोई राष्ट्र गृहों में आती हैं, कोई निर्धन गृहों में जन्म लेती हैं और अपना अपना कर्तव्य पूर्ण करके वे वहाँ से चली जाती हैं, ऐसा वैदिक साहित्य में भी आता है, दर्शनकारों ने भी इसका वर्णन किया है परन्तु आज मैं दर्शनकारों के क्षेत्र में नहीं जा रहा हूँ। यह तुम्हें मैं त्रेताकाल के समय की वार्ता प्रकट कर रहा हूँ। तो मुनिवरों! देखो, राम का हृदय तपा हुआ था।

    राम ने जब यह श्रवण किया कि माता कैकेयी की यह कामना है कि मुझे वन जाना है तो मुनिवरों! देखो, मध्यरात्रि में वह भी शोक भवन में जा पहुँचे। शोक भवन में कैकेयी विद्यमान है। राम ने कैकेयी के चरणों को स्पर्श किया। कैकेयी ने कहा, धन्य हो पुत्र! आज तुम मेरे द्वार पर आए हो, मेरी इच्छा है कि तुम चौदह वर्ष के लिए वन चले जाओ। राम ने कहा, मेरी तो यह कामना रहती है मातेश्वरी कि मुझे माताओं की आज्ञा का पालन करना है, जिन माताओं के गर्भस्थल में मेरा जीवन पनपा है यदि मैं उन माताओं की आज्ञा का पालन नहीं करूँगा तो मेरे पुत्र होने का अस्तित्व ही क्या है? राम कहते हैं मातेश्वरी! तुम्हारा जो अन्तःकरण है उसमें कुछ और भावना है, बाह्य जगत में कुछ और भावना है। मैं वन अवश्य चला जाऊँगा। मातेश्वरी! मानो तुम्हारे हृदय में जितनी प्रीति है, उस प्रीति को मैं जानता हूँ। परन्तु तुम्हारे समीप कोई ऐसी विवशता आ गई है, जिससे तुम मुझे यह उच्चारण कर रही हो कि तुम वन चले जाओ, मैं बन जा रहा हूँ। माता के चरणों को स्पर्श किया, राजसी वस्त्रों को उन्होंने अपने से दूर कर दिया।

    पिता के द्वारा पर पहुँचे। पिता से कहते हैं, हे पितः। माता की आज्ञा का पालन करना तो पुत्र का कर्तव्य होता है। आप मुझे कर्तव्य से दूर क्यों ले जा रहे हैं? आप शोकाकुल क्यो हो रहे हैं? ममतव में क्यों आ रहे हैं? माता का हृदय तो और भी नम्र होता है। हे पितः! आपका हृदय इतना नम्र बन गया है? यह मेरे विचार में नहीं आ पा रहा। आप अपने मनों में यह स्वीकार न करें कि राम कौशल्या के हैं। मानो मैं कैकेयी का ही पुत्र हूँ। यदि कैकेयी के गर्भ से मेरा जन्म होता तो माता कैकेयी वन जाने के लिए विवश कर देती। यह ऋषि मुनियों की भुजाओं में मुझे त्याग देती कि यह राम है। आज भी मेरी यही प्रिय माता हैं। उनके मेरे हृदय में द्वितीय भाव नहीं हैं। मेरे प्यारे! जब राजा दशरथ इन वाक्यों को पान कर रहे थे तो बेटा! उनका अन्तःकरण व्याकुल हो रहा था। वह ममतव में परणित हो रहे थे। पुत्र का मोह उन्हें विवश कर रहा था। राम कहते हैं आप मोह के वशीभूत न हो जाओ। मेरे वन जाने से कितना ही संसार मेरे से प्रसन्न होगा। कितना संसार मेरे से अप्रसन्न होगा? यदि मैं महापुरुषों की आज्ञा का पालन करता रहूँ तो मेरे जीवन का कुछ उपयोग है और यदि महापुरुषों की मैं आज्ञा का पालन नहीं करूँगा तो मेरे जीवन का कोई उपयोग नहीं है। मेरे पुत्र! उन्होंने कहा, सबसे प्रथम तो मेरे लिए माता ही महा माता है। उसके पश्चात और नाना ऋषि हैं। तो मेरे पुत्रो! राम इन उदारतामय शब्दों को उच्चारण कर रहे थे। परन्तु राजा मोहवश थे मोहवश हो करके व्याकुल हो रहे थे। राम को अपने हृदय से आलिंगन करते हुए बोले, हे पुत्र! मेरा हृदय नहीं चाहता। मेरे हृदय में यह वेदना नहीं है कि तुम वन चले जाओ। मेरे हृदय में तो यह है कि तुम राष्ट्र का पालन करो। राज को भोगो। राज के भोगने में ही मानो सर्वत्रता है। मेरे प्यारे! राजा के वाक्य पान करके राम का हृदय मोहवश नहीं हुआ। वह एकरस रहने वाली महान आत्मा थी। इसीलिए मेरे प्यारे! मानव को तप में रहना चाहिए। कठोरता आ जाए, आपत्तिकाल आ जाए, उसको आपत्ति जो स्वीकार नहीं करता और उसमें मगनता आ जाए तो मन में अति हर्ष नहीं आता। वास्तव में यह मानव महापुरुष कहलाता है। मेरे प्यारे! राम कैसे प्रिय महापुरुष कहलाए गए। वह सदैव दैवी सम्पदा में विचारते रहते थे।

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    विषय

    सुभूत-सुविदत्रम्

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में कहा था कि यज्ञशील व प्रभु के प्रति समर्पण करनेवाले को प्रभु उत्तम स्थिति प्राप्त कराते हैं। उसी का चित्रण करते हुए कहते हैं कि (मात्रे) = माता के लिए (उत) = और (नः पित्रे) = हमारे पिता के लिए (स्वस्ति) = कल्याण हो। घर में मङ्गल के लिए पहली बात यही है कि माता-पिता की स्थिति ठीक हो। वे नीरोग, आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त व स्वाध्यायशील हों। ऐसा होने पर ही सन्तानों की उत्तमता सम्भव है। (गोभ्यः) = गौओं के लिए, (जगते) = गतिशील अन्य प्राणियों के लिए तथा (पुरुषेभ्यः) = घर से सम्बद्ध अन्य व्यक्तियों के लिए (स्वस्ति) = कल्याण हो। घर के साथ गौ का विशेष सम्बन्ध है। वस्तुत: यह गौ ही हमारे स्वास्थ्य को तथा यज्ञादि को सिद्ध करनेवाली होती है। यजुर्वेद का प्रारम्भ ही इन गौओं के 'अनमीव व अयक्ष्म' होने की प्रार्थना से होता है। घर के साथ सम्बद्ध अन्य व्यक्तियों का स्वास्थ्य भी घर की उत्तम स्थिति के लिए नितान्त आवश्यक है। २. इसप्रकार घर के उत्तम वातावरण में न: हमारे लिए विश्व सुभूतम्-सब उत्तम ऐश्वर्य तथा सुविदत्रम्-उत्तम ज्ञान अस्तु-हो। हम उत्तम ऐश्वर्य और ज्ञान को प्राप्त करते हुए ज्योक एव-चिरकाल तक ही सूर्यम्-सूर्य को दुशेम-देखें, अर्थात् अतिदीर्घ जीवन प्राप्त करनेवाले हों। 'ऐश्वर्य, ज्ञान व दीर्घजीवन' की प्राप्ति ही उच्चतम स्थिति है। इसी के लिए गतमन्त्र में प्रभु से प्रार्थना की गई थी।

    भावार्थ

    घर में सब स्वस्थ हों। हमें वहाँ 'ऐश्वर्य, ज्ञान व दीर्घजीवन' प्राप्त हो।

    विशेष

    यह सूक्त बड़ी सुन्दरता से मुख आदि द्वारों का वर्णन करता है। चार द्वार हैं चारों द्वारों को ठीक रखनेवाला 'ब्रह्मा' इस सूक्त का ऋषि है। यह चतुर्मुख है-चारों उत्तम द्वारोंवाला है। इन द्वारों के ठीक होने पर सब 'सुभूत व सुविदा' की प्राप्ति होती है। यह ब्रह्मा ही अगले सूक्त में द्यावापृथिवी की रचना में ब्रह्म की महिमा को देखता है -

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = ( नः ) = हमारी  ( मात्रे ) = माता के लिए  ( उत पित्रे ) = और पिता के लिए  ( स्वस्ति अस्तु ) = कल्याण होवे।  ( गोभ्यः ) = गौओं के लिए  ( पुरुषेभ्यः ) = पुरुषों के लिए और  ( जगते ) = जगत् के लिए  ( स्वस्ति ) = कल्याण होवे ।  ( विश्वम् ) = सम्पूर्ण  ( सुभूतम् ) = उत्तमैश्वर्य और  ( सुविदत्रम् ) = उत्तम ज्ञान और कुल  ( नः अस्तु ) = हमारे लिए हो ।  ( ज्योक् ) = वहुत काल तक  ( सूर्यम् एव दृशेम ) = हम सूर्य को देखते रहें ।
     

    भावार्थ

    भावार्थ = जो श्रेष्ठ पुरुष अपनी माता-पिता आदि कटुम्बियों और अन्य माननीय पुरुषों का सत्कार करते और गौ अश्व आदि पशुओं से लेकर सब जीवों तथा संसार के साथ उपकार करते हैं वे पुरुषार्थी उत्तम धन, उत्तम ज्ञान और उत्तम कुल पाते और सूर्य के समान होकर बड़ी आयु को प्राप्त होते हैं।

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    भाषार्थ

    (नः) हमारी (मात्रे) माता के लिये, (उत) तथा (पित्रे) पिता के लिये (स्वस्ति) उत्तम स्थिति (अस्तु) हो, (गोभ्यः) गौओं के लिये, (जगते) जगत् के लिये या जङ्गम प्राणिसमूह के लिए, (पुरुषेभ्यः) पुरुषों के लिये (स्वस्ति) उत्तमस्थिति हो। (विश्वम्) समग्र संसार ( सुभूतम् ) उत्तम स्थितिवाला, (सुविदत्रम् ) उत्तम धन को प्राप्त तथा सबका त्राण करनेवाला (नः) हमारे लिये हो, ताकि (ज्योग् एव) चिरकाल तक ही (सूर्यम् ) सूर्य का (दृशेम) दर्शन करें। अथवा स्वस्ति= कल्याण या कुशलता ।

    टिप्पणी

    [सुविदत्रम् =सुविद्, इगुपधत्त्वात् "क:" प्रत्ययः+ त्रम्, त्रैङ् पालने या त्राण (औणादिक) "ड:" प्रत्ययः।]

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    विषय

    समर्पण ।

    भावार्थ

    हे ब्रह्मदेव ! आपसे प्रार्थना करता हूं कि ( नः ) हमारी ( मात्रे ) माता को ( स्वस्ति ) सुख हो, ( उत ) और ( पित्रे ) पिता को सुख हो, ( गोभ्यः ) राष्ट्रों के लिये ( जगते ) सब जगत् के लिये ( पुरुषेभ्यः ) सब जीवों के लिये ( स्वस्ति ) सुख और शान्ति प्राप्त हो । ( नः ) हमारा ( विश्वं ) समस्त संसार ( सुभूतं ) उत्तम विभूति से युक्त तथा ( सुविदत्रं ) उत्तम ज्ञानों से सम्पन्न हो और हम ( ज्योक् एव ) चिरकाल तक अपनी चक्षुओं से (सूर्यं) सूर्य और ज्ञान के प्रकाशक परमेश्वर का ( दृशेम ) दर्शन करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः । आशापालाः वास्तोष्पतयश्च देवताः । १, २ अनुष्टुभौ । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४ परानुष्टुप् । चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Hope and Fulfilment

    Meaning

    May there be Svasti, felicity of well being, for our mother and father, felicity for our cows, our world and our people. May there be total felicity and prosperity and abundant generosity of the world for us, and let us continue, go on seeing the sun for a long long time.

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    Translation

    May it be well with our mother and father, well with our cows, animals and men. May all the creatures be good and benevolent to us.May we behold the Sun for long long years.

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    Translation

    Be it auspicious for our mother and father, be it beneficial for our cows, world, and men, be our world full of good fortunes and full of knowledge and we behold the Sun very long.

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    Translation

    Well be it with our mother and our father, well be it with our cows, and beasts, and people. Ours be all happy fortune, grace, and knowledge. Long, very long may we behold the sunlight.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−स्वस्ति। १।३०।२। क्षेमम्, मङ्गलम्। मात्रे। १।२।१। माननीयायै जनन्यै। पित्रे। १।२।१। पालकाय, जनकाय। गोभ्यः। १।२।३। गन्तव्याभ्यः प्रापणीयाभ्यः धेनुभ्यः गवादिपशुभ्यः। जगते। वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्जगच्छतृवच्च। उ० २।८४। इति गम्लृ-अति। निपातितश्च। गतिशीलाय संसाराय। पुरुषेभ्यः। पुरः कुषन्। उ० ४।७४। पुर अग्रगत्याम्−कुषन्। पुरति अग्रे गच्छतीति। पुत्रभृत्यादिमनुष्येभ्यः। विश्वम्। सर्वम्। सु-भूतम्। म० ३। प्रभूतमैश्वर्यम्। सुविदत्रम्। सुविदेः कत्रन्। उ० ३।१०८। इति सु+विद ज्ञाने, विद्लृ लाभे वा−कत्रन्। यास्कस्तु द्वेधा व्युत्पादयामास। सुविदत्रं धनं भवति विन्दतेर्वेकोपसर्गाद् ददातेर्वा स्याद् द्व्युपसर्गात्−निरु० ९।७। तथा। सुविदत्रः कल्याणविद्यः−निरु० ६।१४। शोभनं ज्ञानं कुटुम्बं वा। ज्योक्। १।६।३। चिरकालम्। दृशेम। दृशिर् प्रेक्षणे−आशीर्लिङ्। वयं पश्येम। सूर्यम्। १।३।५। आदित्यम्। भानुप्रकाशम् ॥

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    बंगाली (4)

    पदार्थ

    (নঃ) আমাদের মাতার জন্য (উত) এবং (পিত্রে) পিতার জন্য (স্বপ্তি) আনন্দ (অন্তু) হউক এবং (গোভ্যঃ) গরুর জন্য (পুরুষেভ্যঃ) পুরুষদের জন্য ও (জগতে) জগতের জন্য (স্বপ্তি) আনন্দ হউক। (বিশ্বং) সম্পূর্ণ (সুভূতং) উত্তম ঐশ্বর্য ও (সুবিদত্রং) উত্তম জ্ঞান (নঃ) আমাদের জন্য (অন্তু) হউক। (জ্যোক্) দীর্ঘকাল পর্যন্ত (সূয়ং) সূর্যকে (এব)(দৃশেম্) আমরা দেখিতে থাকিব।

    भावार्थ

    আমাদের মাতার জন্য ও পিতার জন্য আনন্দ হউক। গরুর জন্য, মনুষ্যের জন্য ও জগতের জন্য আনন্দ হউক। উৎকৃষ্ট ঐশ্বর্য ও উত্তম জ্ঞানকে আমরা লাভ করি। সূর্যকে আমরা যেন দীর্ঘকাল এই চক্ষু দ্বারা দেখিতে পারি।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    স্বস্তি মাত্র উত পিত্রে নো অন্তু স্বস্তি গোভ্যঃ জগতে পুরুষেভ্যঃ বিশ্বং সুভূতং সুবিদত্রং নো অস্ত্র জ্যোগে ব দৃশেম সূর্যম্।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ব্ৰহ্মা। আশাপালাঃ (বাস্তোষ্পতয়ঃ। পরানুষ্টুপ্ ত্রিষ্টুপ্

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    পদার্থ

    স্বস্তি মাত্র উত পিত্রে নো অস্তু স্বস্তি গোম্যো জগতে পুরুষেভ্যঃ ৷

    বিশ্বং সুভূতং সুবিদত্রং নো অস্তু জ্যোগেব দৃশেম সূর্য়ম্ ।।৭১।।

    (অথর্ব ১।৩১।৪)

    পদার্থঃ (নঃ) আমাদের (মাত্রে) মাতার (উত পিত্রে) আর পিতার (স্বস্তি অস্তু) কল্যাণ হোক। (গোম্যঃ) গোজাতির এবং (পুরুষেভ্যঃ) মানবজাতির আর (জগতে) জগতের (স্বস্তি) কল্যাণ হোক। (বিশ্বম্) সকল (সুভূতম্) উত্তম ঐশ্বর্য আর (সুবিদত্রম্) উত্তম জ্ঞান (নঃ অস্তু) আমাদের হোক (জ্যোক্) যেন বহু কাল পর্যন্ত (সূর্য়ম্ এব দৃশেম) আমরা সূর্যকে দেখতে থাকি।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ যে শ্রেষ্ঠ পুরুষ নিজের মা বাবা ও আত্মীয় কুটুম্বদের ও অন্য মাননীয় পুরুষদের সৎকার করেন, আর গো ইত্যাদি পশু থেকে সকল জীবের তথা সংসারের সাথে উপকার করেষ, সেই পরিশ্রমী ব্যক্তিই উত্তম ধন, উত্তম জ্ঞান ও উত্তম কুল লাভ করেন আর সূর্যের ন্যায় তেজস্বী হয়ে দীর্ঘায়ু প্রাপ্ত হন ।।৭১।।

     

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    मन्त्र विषय

    (পুরুষার্থানন্দোপদেশঃ) পুরুষার্থ এবং আনন্দের জন্য উপদেশ

    भाषार्थ

    (নঃ) আমাদের (মাত্রে) মাতার জন্য (উত) এবং (পিত্রে) পিতার জন্য (স্বস্তি) আনন্দ (অস্তু) হোক এবং (গোভ্যঃ) গাভীসমূহের জন্য (পুরুষেভ্যঃ) পুরুষদের জন্য এবং (জগতে) জগতের জন্য (স্বস্তি) আনন্দ হোক। (বিশ্বম্) সম্পূর্ণ (সুভূতম্) উত্তম ঐশ্বর্য এবং (সুবিদত্রম্) উত্তম জ্ঞান বা কুল (নঃ) আমাদের জন্য (অস্তু) হোক, (জ্যোক্) বহু কাল পর্যন্ত (সূর্যম্) সূর্যকে (এব)(দৃশেম) আমরা যেন দর্শন করি ॥৪॥

    भावार्थ

    যে মনুষ্য মাতা-পিতা আদি নিজের আত্মীয়দের এবং অন্য মাননীয় পুরুষদের এবং গোরু আদি পশুদের থেকে শুরু করে সকল জীবের এবং সংসারের উপকার করেন, সেই পুরুষার্থী মনুষ্য সকল প্রকারের উত্তম ধন, উত্তম জ্ঞান এবং উত্তম কুল প্রাপ্ত হন এবং তিনি সূর্যের ন্যায় প্রকাশমান হয়ে দীর্ঘ আয়ু অর্থাৎ উত্তম নাম ভোগ করেন॥৪॥

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    भाषार्थ

    (নঃ) আমাদের (মিত্র) মাতার জন্য, (উত) এবং (পিত্রে) পিতার জন্য (স্বস্তি) উত্তম স্থিতি (অস্তু) হোক, (গোভ্যঃ) গাভীর জন্য, (জগতে) জগতের জন্য বা জঙ্গম প্রাণীসমূহের জন্য, (পুরুষেভ্যঃ) পুরুষদের জন্য (স্বস্তি) উত্তম স্থিতি হোক। (বিশ্বম্) সমগ্র সংসার (সুভূতম্) উত্তম স্থিতির, (সুবিদত্রম্) উত্তম ধন প্রাপ্তকারী এবং সকলের ত্রাণকর্তা (নঃ) আমাদের জন্য হোক, যাতে (জ্যোগ্ এব) চিরকাল পর্যন্ত (সূর্যম্) সূর্যের (দৃশেম) দর্শন করতে পারি। অথবা স্বস্তিঃ=কল্যাণ বা কুশলতা।

    टिप्पणी

    [সুবিদত্রম্= সুবিদ্, ইগুপধত্বাৎ "কঃ" প্রত্যয়ঃ + ত্রম্, ত্রৈঙ্ পালনে বা ত্রাণ (ঔণাদিক) "ডঃ" প্রত্যয়ঃ।]

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