अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 4
ऋषिः - शन्तातिः
देवता - चन्द्रमाः, आपः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आपः सूक्त
94
शि॒वेन॑ मा॒ चक्षु॑षा पश्यतापः शि॒वया॑ त॒न्वोप॑ स्पृशत॒ त्वचं॑ मे। घृ॑त॒श्चुतः॒ शुच॑यो॒ याः पा॑व॒कास्ता न॒ आपः॒ शं स्यो॒ना भ॑वन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒वेन॑ । मा॒ । चक्षु॑षा । प॒श्य॒त॒ । आ॒प॒: । शि॒वया॑ । त॒न्वा । उप॑ । स्पृ॒श॒त॒ । त्वच॑म् । मे॒ । घृ॒त॒ऽश्चुत॑: । शुच॑य: । या: । पा॒व॒का: । ता: । न॒: । आप॑: । शम् । स्यो॒ना: । भ॒व॒न्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं मे। घृतश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठशिवेन । मा । चक्षुषा । पश्यत । आप: । शिवया । तन्वा । उप । स्पृशत । त्वचम् । मे । घृतऽश्चुत: । शुचय: । या: । पावका: । ता: । न: । आप: । शम् । स्योना: । भवन्तु ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सूक्ष्म तन्मात्राओं का विचार।
पदार्थ
(आपः) हे तन्मात्राओ ! (शिवेन) सुखप्रद (चक्षुषा) नेत्र से (मा) मुझको (पश्यत) तुम देखो, (शिवया) अपने सुखप्रद (तन्वा) रूप से (मे) मेरे (त्वचम्) शरीर को (उपस्पृशत) तुम स्पर्श करो। (याः) जो (आपः) तन्मात्राएँ (घृतश्चुतः) अमृत बरसानेवाली, (शुचयः) निर्मल स्वभाव और (पावकाः) शुद्धि जतानेवाली हैं, (ताः) वे [तन्मात्राएँ] (नः) हमारे लिये (शम्) शुभ करनेहारी और (स्योनाः) सुख देनेवाली (भवन्तु) होवें ॥४॥
भावार्थ
(आपः) तन्मात्राएँ मुझे नेत्र से देखें, अर्थात् पूर्ण ज्ञान हमें प्राप्त हो और उससे हमारे शरीर और आत्मा स्वस्थ रहें। अथवा, (आपः) शब्द से तन्मात्राओं के ज्ञाता और वशयिता परमेश्वर वा विद्वान् पुरुष का ग्रहण है। जो मनुष्य सृष्टि के विज्ञान से शरीर का स्वास्थ्य और आत्मा की उन्नति करके उपकारी होते हैं, उनके लिये परमेश्वर की कृपा से सदा अमृत अर्थात् स्थिर सुख बरसता है ॥४॥
टिप्पणी
४−शिवेन। सर्वनिघृष्वरिष्व०। उ० १।१५३। इति शीङ् शयने यद्वा, शो तनूकरणे−वन्। शेरते विद्यन्ते शुभगुणा यत्र, वा श्यति अशुभानीति। सुखकरेण। मा। माम्। चक्षुषा। चक्षेः शिच्च। उ० २।११९। इति चक्ष कथने दर्शने च-उसि। स च शित्। शित्वात् ख्याञादेशाभावः। लोचनेन, नयनेन। पश्यत। अवलोकयत। आपः। म० १। हे सूक्ष्मतन्मात्राः। शिवया। कल्याण्या, इष्टप्राप्तिहेतुभूतया। तन्वा। १।१।१। रूपेण। उप+स्पृशत। संमृशत। त्वचम्। १।२४।२। शरीरम्। घृत-श्चुतः। घृ दीप्तौ सेके च-क्त। घृतं सारः, अमृतम्। श्चुतिर् क्षरणे क्विप्। अमृतस्राविण्यः अन्यद् व्याख्यातम् म० १ ॥
विषय
शिव जल
पदार्थ
१. हे (आप:) = जलो! आप (मा) = मुझे (शिवेन चक्षुषा) = कल्याणकर मङ्गलमयी आँख से (पश्यत) = देखो, अर्थात् जल के प्रयोग से मेरी आँखें शिव बनें-मेरी आँखों में किसी प्रकार का विकार न हो। २. हे जलो! आप (शिवया तन्वा) = कल्याणकर शरीर से (मे त्वचम्) = मेरी त्वचा को (उपस्पृशत) = स्पृष्ट करो। जलों का त्वचा पर अभ्यञ्जन [sponging] के प्रकार के किया गया प्रयोग त्वचा को स्निग्ध व नीरोग बनाए। ३. (घृतश्चुत:) = हमारे अन्दर दीसि व नैर्मल्य का क्षरण करनेवाले (शचय:) = पवित्रता को लानेवाली (या:) = जो (पावका:) = मानस भावनाओं को भी पवित्र करनेवाले हैं (ता:) = वे (आपः) = जल (न:) = हमारे लिए (शम्) = शान्ति देनेवाले व (स्योना:) = सुखकर (भवन्तु) = हों।
भावार्थ
जलों का सुप्रयोग आँखों व त्वचा को सौन्दर्य प्राप्त कराता है। ये जल मलों को दूर करके शरीर को स्वास्थ्य की दीति प्रदान करते हैं, शरीर व मन को पवित्र करते हैं।
विशेष
यह सुक्त जलों के सुप्रयोग से सुख व शान्ति की प्रासि का वर्णन कर रहा है। यह नीरोग व शान्त जीवनवाला व्यक्ति 'अथर्वा' स्थिर वृत्ति का बनता है और मधुवाली [इक्षु] से प्रेरणा प्राप्त करके अपने जीवन को मधुर बनाने का प्रयत्न करता है।
भाषार्थ
(आपः) हे आपः ! (मा) मुझे (शिवेन चक्षुषा) शिवकारी चक्षु द्वारा (पश्यत) देखो, (शिवया तन्वा) शिवकारी तनू द्वारा (मे) मेरी (त्वचम्) त्वचा का (उपस्पृशत) स्पर्श करो। (घृतश्चुतः) घृतस्रावी (शुचयः) और शुचि, (याः) जो तुम (पावकाः) पवित्र करनेवाले हो, (ताः) वे तुम (आप: ) आप (नः) हमें (शम्) शान्तिप्रद, (स्योना:) सुखप्रद (भवन्तु) होओ।
टिप्पणी
[मन्त्र में चक्षु आदि पदों द्वारा आपः को चेतनरूप में वर्णित किया है । यह शैली भी वैदिक वर्णनों में अपनाई गयी है, यथा "अचेतनान्यपि एवं स्तूयन्ते यथा अक्षप्रभृतीनि ओषधिपर्यन्तानि ।" (निरुक्त ७।२।२७) । अथवा [आपः पद, व्यापी परमेश्वर का व्यापक है, आप्लृ व्याप्तौ स्वादिः] तथा "ता आप:, स: प्रजापति:" (यजु:० ३२।१)। परमेश्वर चेतन है। अतः उसके साथ "शिवेन चक्षुषा" का सम्बन्ध सार्थक हो सकता है। यथा "चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्य अग्नेः" (यजु:० ७।४२)। मित्र है सूर्य (मिदि स्नेहने चरादिः), सूर्य वर्षा द्वारा स्निग्ध करता है, वरुण है आवरण करनेवाला वायु मण्डल, अग्नि है पार्थिव अग्नि । ये सब जड़ हैं। इन्हें परमेश्वर की शिवचक्षु मार्ग प्रदर्शन करा रही है। वस्तुतः परमेश्वर ही सुर्य आदि का मार्ग प्रदर्शन करा रहा है, जिससे ये नियम से निज पथों पर गतियाँ कर रहे हैं। तन्वा व्याप्त्या (तनु विस्तारे, तनादिः)। परमेश्वररूपी आप: "घृतश्चुतः" हैं। प्रदीप्त सूर्य आदि को भी क्षरित कर देते हैं । च्युतिर् क्षरणे, (भ्वादिः)। क्षरण=विनाश । प्रलयकाल में परमेश्वर ही इन सबको विनष्ट करता है, प्रकृति में विलीन करता है। चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः "एवमपररूपेण स्तुत्वा पररूपेण स्तौति जगतः तस्थुषश्च आत्मा जङ्गमस्य स्थावरस्य च आत्मा अन्तर्यामी" (महीधर )। सूर्य अर्थात् आदित्य में भी स्थित हुआ परमेश्वर समग्र जगत् का नियन्त्रण कर रहा है। योसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म (यजु:० ४०।१७)।]
विषय
मूलकारण ‘आपः’ और आप्तजनों का वर्णन
भावार्थ
हे (आपः ) ‘आपः’ प्राप्त करने योग्य आप्तजन ! ( मा ) मुझको आप लोग ( शिवेन ) सुख, कल्याणयुक्त ( चक्षुषा ) चक्षु से ( पश्यत ) देखो। और (शिवया) कल्याणकारी ( तन्वा ) स्वरूप से ( मे ) मेरी ( त्वचं ) त्वचा को (उपस्पृशत) स्पर्श करो। ( याः ) जो आप ( शुचयः ) कान्तिमय, शुद्ध ( घृतश्चुतः ) कान्ति, तेज को देने वाले और स्नेह के देने वाले (पावकाः) पवित्रकारी है (ताः, आपः) ‘आपः’ वे आप्तजन ( नः ) हमें ( शं स्योनाः ) कल्याण और सुखकारक ( भवन्तु ) हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
‘सर्वकारणमाप’ इति ज्ञानवान् शंतातिर्ऋषिः । चन्द्रमा उत आपो देवताः । त्रिष्टुप् छन्दः । चतुऋचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
for Peace
Meaning
May these waters with immanent divinity look at me with a blissful eye. May they touch the form and complexion of my body with the softness of love. Overflowing with the ghrta of kindness and grace, pure and purifying, may they be full of peace, bliss and divine grace for us.
Translation
O elemental waters, may you behold me with an auspicious glance; may you touch my skin with your body. Dripping lustre, glittering here and that are purifying, may those elemental waters be gracious and pleasing to us.
Translation
May for us be auspicious and beneficial those waters which yield splendid and which are bright and pure. May they give Pleasure to us with splendid transparency and may they come in contact of cur skin with their pleasant essence.
Translation
O self-abnegating souls, behold me with auspicious eye, touch Ye my skin with your auspicious hand. May they bright and pure, shedding loveliness and brilliancy, bring felicity and bless us.
Footnote
In this hymn the word आप: has been translated differently by different Commentators. Sayana translates the word as water, Pt. Jaidev Vidyalankar as self-abnegating souls, i.e., आप्त पुरुष, Pt. Khem Karan Das translate it as elements . Swami Dayanand Saraswati has translated the word as subtle primary element vide his translation Yajur, 27-25
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−शिवेन। सर्वनिघृष्वरिष्व०। उ० १।१५३। इति शीङ् शयने यद्वा, शो तनूकरणे−वन्। शेरते विद्यन्ते शुभगुणा यत्र, वा श्यति अशुभानीति। सुखकरेण। मा। माम्। चक्षुषा। चक्षेः शिच्च। उ० २।११९। इति चक्ष कथने दर्शने च-उसि। स च शित्। शित्वात् ख्याञादेशाभावः। लोचनेन, नयनेन। पश्यत। अवलोकयत। आपः। म० १। हे सूक्ष्मतन्मात्राः। शिवया। कल्याण्या, इष्टप्राप्तिहेतुभूतया। तन्वा। १।१।१। रूपेण। उप+स्पृशत। संमृशत। त्वचम्। १।२४।२। शरीरम्। घृत-श्चुतः। घृ दीप्तौ सेके च-क्त। घृतं सारः, अमृतम्। श्चुतिर् क्षरणे क्विप्। अमृतस्राविण्यः अन्यद् व्याख्यातम् म० १ ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(আপঃ) হে তন্মাত্রা! (শিবেন) সুখপ্রদ (চক্ষুষা) নেত্র দ্বারা (মা) আমাকে (পশ্যত) দেখ (শিবয়া) সুখপ্রদ (তন্বা) রূপ দ্বারা (মে) আমার (ত্বচম্) শরীরকে (উপস্পৃশত) নিকট হইতে স্পর্শ কর। (ত্বম্) যে তন্মাত্রা (ঘৃতশ্চত) অমৃতবর্ধিণী (শুচয়ঃ) নির্মল স্বভাব (পাবকাঃ) শুদ্ধিকারক (তাঃ) সেই তন্মাত্রা (নঃ) আমাদের নিকট (শম্) কল্যাণকারিণী ও (স্যোনাঃ) সুখদায়িনী (ভবন্তু) হউন।।
भावार्थ
হে তন্মাত্রা! সুখপ্রদ নেত্র দ্বারা আমাকে দেখ, সুখপ্রদ রূপদ্বারা আমার শরীরকে নিকট হইতে স্পর্শ কর। যে তন্মাত্রা অমৃতবর্ধিণী, নির্মল স্বভাবও শুদ্ধিকারক সেই তন্মাত্রা আমাদের নিকট কল্যাণকারিণী ও সুখদায়িনী হউক।।
मन्त्र (बांग्ला)
শিবেন মা চক্ষুষা পশ্যতাপঃ শিবয়া তম্বোপ স্পৃশত ত্বচং মে। ঘৃতচুতঃ শুচয়ো য়াঃ পাবকাস্তা ন আপঃ শং স্যোনাঃ ভবন্তু।।
ऋषि | देवता | छन्द
শস্তাতিঃ। আপঃ। ত্রিষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(সূক্ষ্মতন্মাত্রাবিচারঃ) সূক্ষ্ম তন্মাত্রাসমূহের বিচার
भाषार्थ
(আপঃ) হে তন্মাত্রাসমূহ ! (শিবেন) সুখপ্রদ (চক্ষুষা) নেত্র দ্বারা (মা) আমাকে (পশ্যত) দেখো/প্রত্যক্ষ করো, (শিবয়া) নিজের সুখপ্রদ (তন্বা) রূপ দ্বারা (মে) আমার (ত্বচম্) শরীরকে (উপস্পৃশত) স্পর্শ করো। (যাঃ)। যেসব (আপঃ) তন্মাত্রাসমূহ (ঘৃতশ্চুতঃ) অমৃত বর্ষণকারী, (শুচয়ঃ) নির্মল স্বভাব এবং (পাবকাঃ) শুদ্ধি জ্ঞাপক, (তাঃ) সেসব [তন্মাত্রাসমূহ] (নঃ) আমাদের জন্য (শম্) কল্যাণকারী এবং (স্যোনাঃ) সুখদায়ী (ভবন্তু) হোক ॥৪॥
भावार्थ
(আপঃ) তন্মাত্রাসমূহ আমায় নেত্র দ্বারা দেখুক, অর্থাৎ পূর্ণ জ্ঞান আমাদের প্রাপ্ত হোক এবং তার দ্বারা আমাদের শরীর এবং আত্মা সুস্থ থাকুক। অথবা, (আপঃ) শব্দ দ্বারা তন্মাত্রাসমূহের জ্ঞাতা এবং বশকারী/নিয়ন্ত্রণকারী পরমেশ্বর বা বিদ্বান পুরুষের গ্রহণ হয়। যে মনুষ্য সৃষ্টির বিজ্ঞান দ্বারা শরীরের স্বাস্থ্য এবং আত্মার উন্নতি করে উপকারী হন, তাঁর জন্য পরমেশ্বরের কৃপা দ্বারা সদা অমৃত অর্থাৎ স্থির সুখ বর্ষিত হয় ॥৪॥
भाषार्थ
(আপঃ) হে আপঃ ! (মা) আমাকে (শিব চক্ষুষা) শিবকারী চক্ষু দ্বারা (পশ্যত) দেখো, (শিবয়া তন্বা) শিবকারী তনু দ্বারা (মে) আমার (ত্বচা) ত্বকের (উপস্পৃশত) স্পর্শ করো। (ঘৃতশ্চুতঃ) ঘৃতস্রাবী (শুচয়ঃ) এবং শুচি, (যাঃ) যে তুমি (পাবকঃ) পবিত্রকারী হও, (তাঃ) সেই তুমি (আপঃ) আপঃ (নঃ) আমাদের (শম্) শান্তিপ্রদ, (স্যোনাঃ) সুখপ্রদ (ভবন্তু) হও।
टिप्पणी
[মন্ত্রে চক্ষু আদি পদ দ্বারা আপঃ-কে চেতনরূপে বর্ণিত করা হয়েছে। এই শৈলীও বৈদিক বর্ণনায় নেওয়া হয়েছে, যথা-- “অচেতনান্যপি এবং স্তূয়ন্তে যথা অক্ষপ্রভৃতীনি ওষধিপর্যন্তানি।" (নিরুক্ত ৭।২।২৭)। অথবা [আপঃ পদ, ব্যাপী পরমেশ্বরের ব্যাপক, আপ্লৃ ব্যাপ্তৌ স্বাদিঃ] তথা "তা আপঃ, স প্রজাপতিঃ" (যজু:০ ৩২।১)। পরমেশ্বর চেতন। অতএব উনার সাথে "শিবেন চক্ষুষা" এর সম্পর্ক সার্থক হতে পারে। যথা "চক্ষুমিত্রস্য বরুণস্য অগ্নেঃ" (যজু০ ৭।৪২)। মিত্র হলো সূর্য (মিদি স্নেহনে, চুরাদিঃ), সূর্য বর্ষা দ্বারা স্নিগ্ধ করে, বরুণ হলো আবরণকারী বায়ুমন্ডল, অগ্নি হলো পার্থিব অগ্নি। এগুলো সব জড়। এগুলোকে পরমেশ্বরের মঙ্গলময় চক্ষু মার্গদর্শন করাচ্ছে। বস্তুতঃ পরমেশ্বরই সূর্যাদির মার্গপ্রদর্শন প্রদর্শন করাচ্ছে। যার ফলে এগুলো নিয়মের মধ্যে নিজ পথে গমন করছে। তন্বা ব্যাপ্ত্যা (তনু বিস্তারে, তনাদিঃ)। পরমেশ্বররূপী আপঃ "ঘৃতশ্চুতঃ"। প্রদীপ্ত সূর্য আদিকেও ক্ষরিত করে দেয়। শ্চ্যুতির্ ক্ষরণে, (ভ্বাদিঃ)। ক্ষরণ=বিনাশ। প্রলয়কালে পরমেশ্বরই এই সবকিছুকে বিনষ্ট করেন, প্রকৃতির মধ্যে বিলীন করেন। চক্ষুর্মিত্রস্য বরুণস্যাগ্নেঃ "এবমপররূপেণ স্তুত্বা পররূপেণ স্তৌতি জগতঃ তস্থুষশ্চ আত্মা জঙ্গমস্য স্থাবরস্য চ আত্মা অন্তর্যামী" (মহীধর)। সূর্য অর্থাৎ আদিত্যেও স্থিত হয়ে পরমেশ্বর সমগ্র জগতের নিয়ন্ত্রণ করছেন। যোঽসাবাদিত্যে পুরুষঃ সোঽসাবহম্ । ও৩ম্ খং ব্রহ্ম (যজুঃ০ ৪০।১৭)।]
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