अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
ऋषिः - चातनः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यातुधाननाशन सूक्त
179
आज्य॑स्य परमेष्ठि॒ञ्जात॑वेद॒स्तनू॑वशिन्। अग्ने॑ तौ॒लस्य॒ प्राशा॑न यातु॒धाना॒न्वि ला॑पय ॥
स्वर सहित पद पाठआज्य॑स्य । प॒र॒मे॒स्थि॒न् । जात॑वेद: । तनू॑वशिन् । अग्ने॑ । तौ॒लस्य॑ । म । अ॒शा॒न॒ । या॒तु॒धाना॑न् । वि । ला॒प॒य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आज्यस्य परमेष्ठिञ्जातवेदस्तनूवशिन्। अग्ने तौलस्य प्राशान यातुधानान्वि लापय ॥
स्वर रहित पद पाठआज्यस्य । परमेस्थिन् । जातवेद: । तनूवशिन् । अग्ने । तौलस्य । म । अशान । यातुधानान् । वि । लापय ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सेनापति के लक्षण।
पदार्थ
(परमेष्ठिन्) हे बड़े ऊँचे पदवाले ! (जातवेदः) हे ज्ञान वा धन के देनेवाले ! (तनूवशिन्) शरीरों को वश में रखने हारे ! (अग्ने) अग्नि, राजन् ! तू (तौलस्य) तोल से पाये हुए (आज्यस्य) घृत का (प्र-अशान) भोजन कर। और (यातुधानान्) दुःखदायी राक्षसों से (विलापय) विलाप करा ॥२॥
भावार्थ
जैसे अग्नि स्रुवादि के तौल व परिमाण से दिये हुए घृतादि हवन सामग्री को पाकर प्रज्वलित होता है, वैसे ही प्रतापी राजा प्रजा का दिया हुआ कर लेकर दुष्टों को दण्ड देता है, उससे प्रजा सदा आनन्दयुक्त रहती है ॥२॥
टिप्पणी
२−आज्यस्य। आङ्+अञ्ज मिश्रणे गतौ-क्यप्, न लोपः। कर्मणि षष्ठी, आ अज्यते शरीरेण। आज्यं, घृतम्। परमे-स्थिन्। परमे कित्। उ० ४।१०। इति परमे+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−इनि, स च कित्। हलन्तात् सप्तम्याः संज्ञायाम्। पा० ६।३।९। इत्यलुक्। स्थास्थिन्स्पृणाम्। वा० पा० ८।३।९७। इति षत्वम्। परमे उत्तमे पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी। हे उच्चपदस्थ राजन्। जात-वेदः। गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। उ० ४।२२७। इति जात+विद ज्ञाने, वा विद्लृ लाभे-असुन्। जातं प्रादुर्भूतं वेदो ज्ञानं धनं वा यस्मात् स जातवेदाः। जातवेदाः कस्माज् जातानि वेद जातानि वैनं विदुर्जाते जाते विद्यत इति वा जातवित्तो वा जातधनो जातविद्यो वा जातप्रज्ञानो वा−इति निरु० ७।१९। हे जातधन, हे जातप्रज्ञान। तनू−वशिन्। वशोऽस्त्यस्य−इनि। हे तनूनां अस्माकं शरीराणां वशयितः। अग्ने। मं० १। हे अग्निवत् तेजस्विन्। तौलस्य। तुल उन्माने−घञ्। तोल्यते उन्मीयते स्रुवादिना इति तोलम्। तोल-अण्। कर्मणि षष्ठी। तौलम्। तोलेन परिमाणेन कृतम्। प्र+अशान। अश भोजने-लोट्। हलः श्नः शानज् झौ। पा० ३।१।८३। इति श्नाप्रत्ययस्य शानच्। हौ परतः। अतो हेः। पा० ६।४।१०५। इति हेर्लुक्। त्वं भोजनं कुरु। भक्षय। यातु-धानान्। मं० १। पीडाप्रदान् राक्षसान्। वि+लापय। हेतुमति च। पा० ३।१।२६। इति वि विकृतम्। लप भाषे-णिच्-लोट्। विलापेन दुःखवचनेन युक्तान् कुरु ॥
विषय
प्रचारक का युक्ताहारवाला जीवन
पदार्थ
१. सुधारक ब्राह्मण से कहते हैं कि (परमेष्ठिन्) = उच्च स्थान में स्थित होनेवाले, प्रकृति व जीव से ऊपर उठकर हृदयस्थ 'प्रभु' में स्थित होनेवाले! (जातवेदः) = प्रभु में स्थित होकर ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करनेवाले! (तनुवशिन्) = अपने शरीर को वश में करनेवाले! (अग्ने) = ज्ञानप्रकाश के द्वारा उन्नति के कारणभूत ब्राह्मण! (आज्यस्य) = घी का (तौलस्य प्राशान) = तोलकर प्रयोग करनेवाला बन। तेरा भोजन मपा-तुला हो। यह परिमित व युक्त आहार ही तेरे स्वास्थ्य को ठीक रक्खेगा और वस्तुत: तेरी इस संयतवृत्ति का ही उन यातुधान और किमीदिन लोगों पर प्रभाव पड़ेगा। तु संयत जीवन के क्रियात्मक उपदेश के द्वारा यातुधानान्-इन पीड़ित करनेवाले दुष्टों को विलापय-नष्ट कर दे, रुला दे। ये अपने रद्दी जीवन पर पश्चात्ताप में विलाप करें। इनकी वृत्ति में परिवर्तन हो ये 'यातुधान' न रह जाएँ।
भावार्थ
प्रचारक ब्राह्मण युक्ताहारवाले होकर अपने संयत जीवन से यातुधानों के जीवन में भी परिवर्तन कर दें।
भाषार्थ
(परमेष्ठिन्) परम अर्थात् श्रेष्ठ स्थान अर्थात् पद पर स्थित, (जातवेदः) राष्ट्र में उत्पन्न तत्त्वों के जाननेवाले, या जातप्रज्ञ, (तनूवशिन्) निजतनू को वश में रखनेवाले (अग्ने) हे अग्रणी ! (तौलस्य आज्यस्य) मापे-तौले घृत का (प्राशान) प्राशन किया कर (यातुधानान्) यातनाओं के निधिभूतों को (विलापय) विलापयुक्त कर या रुला।
टिप्पणी
[मापे-तौले आज्य का प्रतिदिन सेवन करने से शरीर स्वस्थ तथा सशक्त रहता है, शक्ति प्रदान भी करता है।]
विषय
प्रजा के पीड़ाकारियों का दमन ।
भावार्थ
हे (परमेष्ठिन्) परम, सर्वोच्च पद पर अधिष्ठित ! हे ( जातवेदः ) वेदादि विद्याओं के जानने हारे ! हे ( तनूवशिन् ) जितेन्द्रिय ! हे ( अग्ने ) अग्नि के समान तेजस्विन् ! ब्राह्मण ! तू (तौलस्य) तुला से परिमित घृतादि ( आज्यस्य ) पदार्थों का ( प्र अशान ) भोजन किया कर और (यातुधानान्) पीड़ा करने वाले दुष्ट पुरुषों को ( वि लापय ) सद्-उपदेशों द्वारा पिघला दे, ऐसे उपदेश कर कि वे अपने बुरे कर्मों का प्रायश्चित्त करें । वेदों में प्रायः ‘अग्नि शक्ति’ ब्रह्म शक्ति और इन्द्र शक्ति क्षात्र शक्ति है। इस मन्त्र में यह दर्शाया है कि ब्राह्मण का कर्तव्य राष्ट्र में उपदेश द्वारा राष्ट्र के पापी जनों को सुधारना है। बड़े २ पापी भी जब ब्राह्मण का उपदेश सुनकर अपने पापों को छोडने के लिये तैयार हो जाय और वे उसके उपदेश के गुण गान करने लगें तब उपदेष्टा ब्राह्मण का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह उन्हें अपनी शरण में ले और अन्य सद्उपदेशों द्वारा भी उनके दस्युपन को दूर करता रहे । दस्युओं के दस्युपन को दूर करना ही दस्यु का नाश करना है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः । अग्निर्देवता । १-४, ६, ७ अनुष्टुभः ५, त्रिष्टुप् । सप्तर्चं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Elimination of Negative Forces
Meaning
Seated in the highest position, all knowing, self controlled, Agni, taking measured and balanced part of ghrta from us, objective and balanced in judgement of what you receive, punish the negatives and make them repent.
Translation
O most exalted Lord, O omniscient, O controller of body, may you consume butter and oil,(in a prescribed quantity), and make the deceit weep in mourning.
Translation
O' ruler ! you are the occupant of highest position, wise and physically controlled. You always take restricted measured diet and make the anti-social elements lament over themselves.
Translation
O preacher, occupying a lofty position, master of the Vedas, controller of physical organs, eat butter in a measured quantity, and make the sinners repent for their deeds through thy noble preaching.
Footnote
Pt. Raja Ram differs from the generally accepted text. In place of तौलस्य, he accepts तौलस्य, and interprets it as oil.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−आज्यस्य। आङ्+अञ्ज मिश्रणे गतौ-क्यप्, न लोपः। कर्मणि षष्ठी, आ अज्यते शरीरेण। आज्यं, घृतम्। परमे-स्थिन्। परमे कित्। उ० ४।१०। इति परमे+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−इनि, स च कित्। हलन्तात् सप्तम्याः संज्ञायाम्। पा० ६।३।९। इत्यलुक्। स्थास्थिन्स्पृणाम्। वा० पा० ८।३।९७। इति षत्वम्। परमे उत्तमे पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी। हे उच्चपदस्थ राजन्। जात-वेदः। गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। उ० ४।२२७। इति जात+विद ज्ञाने, वा विद्लृ लाभे-असुन्। जातं प्रादुर्भूतं वेदो ज्ञानं धनं वा यस्मात् स जातवेदाः। जातवेदाः कस्माज् जातानि वेद जातानि वैनं विदुर्जाते जाते विद्यत इति वा जातवित्तो वा जातधनो जातविद्यो वा जातप्रज्ञानो वा−इति निरु० ७।१९। हे जातधन, हे जातप्रज्ञान। तनू−वशिन्। वशोऽस्त्यस्य−इनि। हे तनूनां अस्माकं शरीराणां वशयितः। अग्ने। मं० १। हे अग्निवत् तेजस्विन्। तौलस्य। तुल उन्माने−घञ्। तोल्यते उन्मीयते स्रुवादिना इति तोलम्। तोल-अण्। कर्मणि षष्ठी। तौलम्। तोलेन परिमाणेन कृतम्। प्र+अशान। अश भोजने-लोट्। हलः श्नः शानज् झौ। पा० ३।१।८३। इति श्नाप्रत्ययस्य शानच्। हौ परतः। अतो हेः। पा० ६।४।१०५। इति हेर्लुक्। त्वं भोजनं कुरु। भक्षय। यातु-धानान्। मं० १। पीडाप्रदान् राक्षसान्। वि+लापय। हेतुमति च। पा० ३।१।२६। इति वि विकृतम्। लप भाषे-णिच्-लोट्। विलापेन दुःखवचनेन युक्तान् कुरु ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(পমমোষ্ঠিন্) হে উচ্চ পদস্থিত! (জাতবেদঃ) জ্ঞান ও ধন দাতা! (তনুবশিম্) শরীরের বশকারী! (অগ্নে) অগ্নিতুল্য প্রতাপবান রাজন! (তৌলস্য) পরিমিত (আজস্য) ঘৃত (অশান) ভোজন কর এবং (য়াতুধানান্) পরপীড়ক রাক্ষসদের দ্বারা (বিলাপয়) বিরাপ করাও।।
‘জাতবেদঃ’ জাতং প্রাদুর্ভূতং বেদো জ্ঞানং ধনং বা স জাতবেদাঃ। জাতবেদাঃ কস্মাৎ জাতানি বেদ জাতানি বৈনং বিদুর্জাতে জাতে বিদ্যত বা জাতবিত্তো বা জাতধনো জাতবিদ্যো বা জাত প্রজ্ঞানো বা। নিরুক্ত ৭.১৯৷৷২৷৷
भावार्थ
হে রাজন! তুমি উচ্চপদে অধিষ্ঠিত রহিয়াছ, জ্ঞান বা ধনকে দান করিতেছ, শরীরকে নিজের বশীভূত রাখিয়াছ, তুমি পরিমিত ঘৃত সেবন কর এবং দুঃখদায়ী রাক্ষসগণকে এমন দণ্ড দান কর যাহাতে তাহারা বিলাপ করে।।
দ্রবাদি দ্বারা পরিমিত ঘৃতাহুতি পাইয়া যজ্ঞাগ্নি যেমন প্রজ্বলিত হয়। প্রতাপী রাজা তেমন প্রজাদের নিকট হইতে পরিমিত কর গ্রহণ করিয়া দুষ্টকে দমন করেন ও শিষ্টকে পালন করেন।।
मन्त्र (बांग्ला)
আজ্যস্য পরমেষ্টি জাতবেদপ্তমু বশিম্। অগ্নে তৌলস্য প্রাশান য়াতুধানম্ বিলাপয়।।
ऋषि | देवता | छन्द
চাতনঃ। অগ্নিঃ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(সেনাপতিলক্ষণানি) সেনাপতির লক্ষণ
भाषार्थ
(পরমেষ্ঠিন্) হে উচ্চ পদস্থ ! (জাতবেদঃ) হে জ্ঞান বা ধন প্রদানকারী ! (তনূবশিন্।) শরীরকে নিয়ন্ত্রণকারী ! (অগ্নে) অগ্নি, রাজন্ ! আপনি (তৌলস্য) স্রুবাদি থেকে প্রাপ্ত (আজ্যস্য) ঘৃতের (প্র-অশান) ভোজন করুন। এবং (যাতুধানান্) দুঃখদায়ী রাক্ষসদের (বিলাপয়) বিলাপ করান/ শোক দিন ॥২॥
भावार्थ
যেভাবে অগ্নি স্রুবাদির [হবনে দ্রব্যাদি দেওয়ার জন্য একপ্রকারের চামচ] পরিমাণে প্রদত্ত ঘৃতাদি হবন সামগ্রী পেয়ে প্রজ্জ্বলিত হয়, সেভাবেই প্রতাপশালী রাজা প্রজার দেওয়া কর গ্রহণ করে দুষ্টদের দণ্ড দেন, যার ফলে প্রজা সদা আনন্দযুক্ত থাকে ॥২॥
भाषार्थ
(পরমেষ্ঠিন্) পরম অর্থাৎ শ্রেষ্ঠ স্থান অর্থাৎ পদে স্থিত, (জাতবেদঃ) রাষ্ট্রে উৎপন্ন তত্ত্বজ্ঞাতা, বা জাতপ্রজ্ঞ, (তনূবশিন্) নিজতনূকে বশবর্তীকারী/নিয়ন্ত্রণকারী (অগ্নে) হে অগ্রণী ! (তৌলস্য আজ্যস্য) পরিমাপ করা/পরিমিত ঘৃতের (প্রাশান) প্রাশন করো (যাতুধানান্) যাতনার নিধিভূতদের/পীড়াদায়ক/শত্রুদের (বিলাপয়) বিলাপযুক্ত করো বা রোদন করাও।
टिप्पणी
[পরিমাপ করা/পরিমিত আজ্যের/ঘৃতের প্রতিদিন সেবন করলে শরীর সুস্থ ও সশক্ত থাকে, শক্তি প্রদানও করে।]
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