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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
    ऋषिः - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यातुधाननाशन सूक्त
    111

    या॑तु॒धान॑स्य सोमप ज॒हि प्र॒जां नय॑स्व च। नि स्तु॑वा॒नस्य॑ पातय॒ पर॒मक्ष्यु॒ताव॑रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या॒तु॒ऽधान॑स्य । सो॒म॒ऽप॒ । ज॒हि । प्र॒ऽजाम् । नय॑स्व । च॒ । ‍नि:। स्तु॒वा॒नस्य॑ । पा॒त॒य॒ । पर॑म् । अक्षि॑ । उ॒त । अव॑रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यातुधानस्य सोमप जहि प्रजां नयस्व च। नि स्तुवानस्य पातय परमक्ष्युतावरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यातुऽधानस्य । सोमऽप । जहि । प्रऽजाम् । नयस्व । च । ‍नि:। स्तुवानस्य । पातय । परम् । अक्षि । उत । अवरम् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सेनापति के लक्षण।

    पदार्थ

    (सोमप) हे अमृत पीने हारे [राजन्] ! तू (यातुधानस्य) पीडा देनेहारे पुरुष के (प्रजाम्) मनुष्यों को (जहि) मार, (च) और (नयस्व) ले आ। (निस्तुवानस्य) अपस्तुति [निन्दा] करते हुए [शत्रु की] (परम्) उत्तम [हृदय की] (उत) और (अवरम्) नीची [शिर की] (अक्षि) आँख को (पातय) निकाल दे ॥३॥

    भावार्थ

    (सोमप) अमृत पीने हारा अर्थात् शान्तस्वभाव यशस्वी राजा दुष्टों का नाश करे और पकड़ लावे। निन्दा फैलाने हारे मिथ्याचारी शत्रु को नष्ट भ्रष्ट कर दे कि वह पापी अपने मन के भीतरी कुविचार और बाहिरी कुचेष्टा और पाप कर्म छोड़ दे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−यातु-धानस्य। १।७।१। पीडाप्रदस्य। सोम-प। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति सोम+पा पाने-क। हे अमृतस्य पातः। जहि। हन हिंसागत्योः−लोट्। नाशय। प्र-जाम्। जनम्। मनुष्यान्। नयस्व। आनय। निः। क्षेपेण, अपवादेन। निषेधेन। स्तुवानस्य। म० २। स्तुवतः शत्रोः। पातय। पत अधोगतौ-णिच् लोट्। अधोगमय, च्यावय। परम्। ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति पॄ-पालने पूर्त्तौ च-अप्। श्रेष्ठम्। उच्चम्। अक्षि। अशेर्नित्। उ० ३।१५६। इति अशू व्याप्तौ-क्सि। यद्वा। अक्षू व्याप्तौ-इन्। चक्षुः, नेत्रम्। अवरम्। ग्रहिवृदृनिश्चिगमश्च। पा० ३।३।५८। इति न+वृञ् वरणे-अप्। न व्रियत इति। निकृष्टम्, नीचम् ॥

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    विषय

    प्रेम से सुधार

    पदार्थ

    १. हे (सोमप) = सोम का-वीर्यशक्ति का अपने अन्दर ही पान करनेवाले, अतएव उत्साह सम्पन्न ज्ञान-प्रसारक विद्वन् ! तू (यातुधानस्य) = इन प्रजापीड़कों की (प्रजाम्) = सन्तति को (जहि) = [हन् गतौ] प्राप्त करनेवाला हो (च) = और उन्हें ज्ञान देकर (नयस्व) = उत्तम मार्ग से ले-चल। २. तुम्हारे प्रेमभरे कार्यों को देखकर यातुधान को भी लज्जा अनुभव हो कि 'कहाँ मैं और कहाँ ये लोग। 'औरों को कष्ट पहुँचाना ही मेरा पेशा बना हुआ है और उन्होंने किस प्रकार लोक-सेवा का कार्य अपनाया है। इसप्रकार (स्तुवानस्य) = ज्ञान-प्रसारकों की स्तुति करते हुए इस पश्चात्तापयुक्त पुरुष की (परम्) = उत्कृष्ट, अर्थात् दक्षिण (उत) = और (अवरम्) = निचली, अर्थात् वाम (अक्षि) = आँख को (निपातय) = तू झुकानेवाला हो। ज्ञान-प्रसारक क्रूरचित्त यातुधान को अपने व्यवहार से लज्जित करके ही सुधार सकता है।

    भावार्थ

    यातुधानों की सन्तति से मेल करके उमति-पथ पर ले-चलने का यत्न होना चाहिए। इस प्रेमभरे कार्य को देखकर यातुधान भी लजित होंगे और अवश्य सन्मार्ग का ग्रहण करेंगे।

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    भाषार्थ

    (सोमप) हे सोमनामक१ अर्थात् सेनानायक के रक्षक ! (यातुधानस्य) यातुधान की (प्रजाम् ) प्रजा का (जहि) हनन कर, (नयस्य च), और निज प्रजा का उन्नति के मार्ग में नयन कर । (निस्तुवानस्य) जो अपना परिचय न दे उसके (परम् अक्षि) श्रेष्ठ अर्थात् दक्षिण आँख को, (उत) तथा (अवरम्) श्रेष्ठ, वाम अक्षि को (पातय) अधःपतित कर दे, निकाल दे। (नि२= निग्रह; रोकना, यथा इन्द्रिय-निग्रह।

    टिप्पणी

    [(१) में यातुधान, आततायी कहे हैं। मनु ने कहा है कि "आततायिनमायन्तं हन्यादेवाविचारयन्", अर्थात् आते हुए आततायी का हनन ही कर दे, बिना विचारे।] [१. सोम=सेनानायक (यजुर्वेद १७।४०)। २. नि=विनिग्रहार्थीयः (निरुक्त १।१।३)। विनिग्रहः = विशेषेण निग्रहः, रोकना । यथा इन्द्रियनिग्रहः, मनोनिग्रहः।]

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    विषय

    प्रजापीड़कों के नाश करने का उपाय

    भावार्थ

    हे ( सोमप ) सोम अर्थात् मुख्योपदेशक है रक्षक जिसका ऐसे ! अथवा ज्ञानरस का स्वयं और अन्यों को पान करनेकराने वाले अग्नि के समान प्रकाशित उपदेशक ! तू ( यातुधानस्य ) प्रजापीड़क नीच, चालबाज़ डाकू आदि के (प्रजां) सन्तति को भी (जहि) प्राप्त हो और ( नयस्व च ) और उसे भी सन्मार्ग पर ला और ( स्तुवानस्य ) नाना प्रकार से जब यह सन्तति भी तेरी स्तुति करे अर्थात् तेरे वश में हो जाय ( परम् अक्षि उत अवरम्) तब उसकी दायीं और बायीं दोनों आंखों को ( नि पातय ) नीचा करदे, शिक्षा द्वारा उसकी दोनों आंखों को विनयशील बना।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः । १, २ बृहस्पतिरग्निषोमौ च देवताः । ३, ४ अग्निर्देवता । १-३ अनुष्टुभः। ४, बार्हतगर्भा त्रिष्टुप् । चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Elimination of the Evil

    Meaning

    O Somapa, presiding power of peace and law and order, eliminate the saboteurs and the antisocial damagers, and counsel, guide and lead their followers on to the path of positive and creative living. Bring down their pride and insubordination to submission to law and acceptance of authority and remove their lowest spirit of frustration, despair and oppression, now that the defaulter respects and honours you.

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    Subject

    Agnih

    Translation

    O enjoyer of devotional bliss, despatch the progeny of the sorcerer (deceit) and lead it away. Make the deceit’s eye, this as well as that, fall out.

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    Translation

    O' protector of subjects, strike and bring the gang of bandis and villains and make the blamers right and left eyes fall

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    Translation

    O chief preacher, approach the children of a sinner, and bring them on the path of righteousness. Lower down with humility their right and left eyes, with thy moral instruction, when they sing thy praise in gratitude!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−यातु-धानस्य। १।७।१। पीडाप्रदस्य। सोम-प। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति सोम+पा पाने-क। हे अमृतस्य पातः। जहि। हन हिंसागत्योः−लोट्। नाशय। प्र-जाम्। जनम्। मनुष्यान्। नयस्व। आनय। निः। क्षेपेण, अपवादेन। निषेधेन। स्तुवानस्य। म० २। स्तुवतः शत्रोः। पातय। पत अधोगतौ-णिच् लोट्। अधोगमय, च्यावय। परम्। ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति पॄ-पालने पूर्त्तौ च-अप्। श्रेष्ठम्। उच्चम्। अक्षि। अशेर्नित्। उ० ३।१५६। इति अशू व्याप्तौ-क्सि। यद्वा। अक्षू व्याप्तौ-इन्। चक्षुः, नेत्रम्। अवरम्। ग्रहिवृदृनिश्चिगमश्च। पा० ३।३।५८। इति न+वृञ् वरणे-अप्। न व्रियत इति। निकृष्टम्, नीचम् ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (সোমপ) হে অমৃতপানকারী রাজন! (য়াতুধানস্য) পরপীড়ক (প্রজাং) মনুষ্যদিগকে (জহি) বিনাশ কর (চ) এবং (নয়ম্ব) আনয়ন কর। (নিঃস্তু বানস্য) অপস্তুতি কারক নিন্দুক শত্রুকে (পরং) উত্তম (উত) এবং (অবরম্) অধম অঙ্গকে (অকি) চক্ষুকে (পাতয়) উৎপাটন কর।

    भावार्थ

    হে জ্ঞানামৃত পানকারী রাজন! তুমি প্রজাপীড়ক মনুষ্যদিগের তাহাকেও বিনাশ কর এবং তাহাকেও নিজের বশে আনয়ন কর। যাহারা নিন্দাকারী তাহাদের উত্তম বা অধম অঙ্গ এমন কি চক্ষুকেও উৎপাটন কর।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়াতুধানস্য সোমপ জহি প্ৰজাং নয়স্ব চ। নিস্তু বানস্য পাতয় পরক্ষ্যুতাবরম্।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    চাতনঃ। অগ্নিঃ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (সেনাপতিলক্ষণানি) সেনাপতির লক্ষণ

    भाषार्थ

    (সোমপ) হে অমৃত পানকারী [রাজন্] তুমি (যাতুধানস্য) পীড়াদায়ক পুরুষের (প্রজাম্) মনুষ্যদের (জহি) মারো/হনন করো, (চ) এবং (নয়স্ব) নিয়ে এসো। (নিস্তুবানস্য) অপস্তুতি [নিন্দা] কারী [শত্রুদের] (পরম্) উত্তম [হৃদয়ের] (উত) এবং (অবরম্) নীচু [মাথার] (অক্ষি) চোখকে (পাতয়) বের করে দাও ॥৩॥

    भावार्थ

    (সোমপ) অমৃত পানকারী অর্থাৎ শান্তস্বভাব যশস্বী রাজা দুষ্টদের নাশ করুক এবং বন্দি করুক। নিন্দাকারী, মিথ্যাচারী শত্রুদের নষ্ট ভ্রষ্ট করুক যাতে সেই পাপী নিজের মনের ভিতরের কুবিচার ও বাইরের কুচেষ্টা এবং পাপ কর্ম ছেড়ে দেয়/পরিত্যাগ করে ॥৩॥

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    भाषार्थ

    (সোমপ) হে সোমনামক১ অর্থাৎ সেনানায়কের রক্ষক ! (যাতুধানস্য) যাতুধানের (প্রজাম্) প্রজাদের (জহি) হনন করো, (নয়স্য চ), এবং নিজ প্রজাদের উন্নতির মার্গে নয়ন করো/দেখাও/নিয়ে চলো। (নিস্তুবানস্য) যে নিজের পরিচয় না দেবে তাঁর (পরম্ অক্ষি) শ্রেষ্ঠ অর্থাৎ দক্ষিণ চোখকে, (উত) এবং (অবরম্) শ্রেষ্ঠ, বাম অক্ষিকে (পাতয়) অধঃপতিত করে দাও, বের করে দাও। (নি২= নিগ্রহ;,রোধ করা, যথা ইন্দ্রিয়-নিগ্রহ।

    टिप्पणी

    [(১) এ যাতুধান, আততায়ী বলা হয়েছে। মনু বলেছেন "আততায়িনমায়ন্তং হন্যাদেবাবিচারয়ন্", অর্থাৎ আগত আততায়ীদের হনন করো, বিনা বিচারে।] [১. সোম=সেনানায়ক (যজুর্বেদ ১৭।৪০)। ২. নি=বিনিগ্রহার্থীয়ঃ (নিরুক্ত ১।১।৩)। বিনিগ্রহঃ = বিশেষেণ নিগ্রহঃ, প্রতিরোধ করা। যথা ইন্দ্রিয়নিগ্রহঃ, মনোনিগ্রহঃ।]

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