अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 4
ऋषिः - चातनः
देवता - अग्निः
छन्दः - बार्हतगर्भा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यातुधाननाशन सूक्त
175
यत्रै॑षामग्ने॒ जनि॑मानि॒ वेत्थ॒ गुहा॑ स॒ताम॒त्त्रिणां॑ जातवेदः। तांस्त्वं ब्रह्म॑णा वावृधा॒नो ज॒ह्ये॑षां शत॒तर्ह॑मग्ने ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । ए॒षा॒म् । अ॒ग्ने॒ । जनि॑मानि । वेत्थ॑ । गुहा॑ । स॒ताम् । अ॒त्त्रिणा॑म् । जा॒त॒ऽवे॒द॒:।तान् । त्वम् । ब्रह्म॑णा । व॒वृधा॒न: । ज॒हि । ए॒षा॒म् । श॒त॒ऽतर्ह॑म् । अ॒ग्ने॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्रैषामग्ने जनिमानि वेत्थ गुहा सतामत्त्रिणां जातवेदः। तांस्त्वं ब्रह्मणा वावृधानो जह्येषां शततर्हमग्ने ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । एषाम् । अग्ने । जनिमानि । वेत्थ । गुहा । सताम् । अत्त्रिणाम् । जातऽवेद:।तान् । त्वम् । ब्रह्मणा । ववृधान: । जहि । एषाम् । शतऽतर्हम् । अग्ने ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सेनापति के लक्षण।
पदार्थ
(जातवेदः) हे अनेक विद्यावाले वा धनवाले ! (अग्ने) अग्नि [अग्निस्वरूप राजन्] ! (यत्र) जहाँ पर (गुहा) गुफा में (सताम्) वर्त्तमान (एषाम्) इन (अत्रिणाम्) उदरपोषकों के (जनिमानि) जन्मों को (वेत्थ) तू जानता है। (अग्ने) हे अग्निरूप राजन् ! (ब्रह्मणा) वेदज्ञान [वा अन्न वा धन] से (वावृधानः) बढ़ता हुआ (त्वम्) तू (तान्) उनकी और (एषाम्) इनकी (शततर्हम्) सैकड़ों प्रकार की हिंसा को (जहि) नाश कर ॥४॥
भावार्थ
अग्नि के समान तेजस्वी महाबली राजा गुप्त उपद्रवियों का खोज करे और उनको यथा नीति कड़े-कड़े दण्ड देकर प्रजा में शान्ति रक्खे ॥४॥
टिप्पणी
४−अग्ने। अग्निवत् तेजस्विन् राजन्। जनिमानि। जनिमृङ्भ्यामिमनिन्। उ० ४।१४९। इति जनी प्रादुर्भावे-इमनिन्। जन्मानि, उत्पत्तिकारणानि। वेत्थ। विद ज्ञाने-लट्। त्वं जानासि। गुहा। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति गुहू संवरणे-क, टाप् च। गूहति रक्षतीति। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तिलोपः। गुहायाम्, गर्त्ते, गह्वरे, गुप्तस्थाने। सताम्। अस सत्तायां-शतृ। विद्यमानानाम्। निवसताम्। अत्रिणाम्। १।७।३। अदनशीलानां, उदरपोषकाणाम्। जात-वेदः। १।७।२। हे जातविद्य ! ब्रह्मणा। बृंहेर्नोऽच्च। उ० ४।१४६। इति बृहि वृद्धौ-मनिन्, नकारस्य अकारः, रत्वं च। ब्रह्म अन्नम्−निघ० २।७। तथा, धनम्−निघ० २।१०। वेदेन। वेदज्ञानेन। परमेश्वरेण। वावृधानः। वृधु वृद्धौ-लिटः कानच्, छन्दसि दीर्घः। प्रवृद्धः। जहि। मं० ३। मारय। शत−तर्हम्। शतं बहुनाम्−निघ० ३।१। तृह हिंसायाम्-घञ्। बहुविधहिंसनम् ॥
विषय
यातुधानत्व की परम्परा का विनाश
पदार्थ
१, हे (जातवेदः अग्ने) = ज्ञान का प्रसार करनेवाले और ज्ञान द्वारा ही उन्नति-पथ पर ले चलनेवाले ब्राह्मण! (एषां गुहा सताम्) = गुफाओं में छिपकर रहनेवाले इन (अन्त्रिणाम्) = औरों को खा-जानेवाले-हानि पहुँचानेवाले यातुधानों के (जनिमानि) = उत्पन्न सन्तानों को (यत्र) = जहाँ भी (वेत्थ) = जानते हो, जहाँ भी इनके वंशजों का पता लगे, वहीं पहुँचकर (त्वम्) = तू (तान) = उन सबको ब्रह्मणा-ज्ञान के प्रसार से (वावृधान:) = खूब ही वृद्धि-पथ पर ले-चलता हुआ (अग्ने) = हे ब्राह्मण !तू (एषां शततई जहि) = इनका शतशः प्रकारों से विनाश कर दे। इनके जीवन की कमियों को दूर करके इनके जीवन को सुन्दर बना दे।
भावार्थ
यातुधानों की प्रजाओं के सुधार से यातुधानत्व की परम्परा चल नहीं पाती। उसका मूल में ही विनाश हो जाता है।
विशेष
सूक्त के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि प्रजा के धन का समाज-सुधार के लिए ऐसा उपयोग हो कि यातुधान इसप्रकार नष्ट हो जाएँ जैसेकि नदी फेन को नष्ट कर देती है [१]। सुधरने के सङ्कल्पवाले आगत यातुधानों का हमें स्वागत करना चाहिए [२] । सुधार प्रेम से ही सम्भव है [३]। इनकी सन्तानों को प्रेम से सुधारकर यातुधानत्व की परम्परा को मूल में ही विनष्ट कर देना चाहिए। इस प्रकार वैयक्तिक व सामाजिक सुधार होने पर प्रार्थना करते हैं -
भाषार्थ
(जातवेदः) हे जातप्रज्ञ (अग्ने) अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (गुहासताम्) गुफा में वर्तमान, (अत्रिणाम्) मांसभक्षक, (एषाम् ) इन यातुधानों के (यत्र) जिन स्थानविशेषों में (जनिमानि) जनों अर्थात् उत्पत्तियों को (वेत्थ) तू जानता है (तान् ) उन्हें (ब्रह्मणा) वेदमन्त्रों द्वारा (वावृधानः) ज्ञान में बढ़ा हुआ, तु (एषाम्) इन यातुधानों का (शततर्हम्) हिंसा के बहुविध प्रकार से (जहि) हनन कर।
टिप्पणी
[वैदिक मन्त्रों में यातुधानों के हनन के बहुविध उपाय दर्शाए हैं। शततर्हम् विशेषण है जहि क्रिया का।]
विषय
प्रजापीड़कों के नाश करने का उपाय
भावार्थ
हे (अग्ने ) विद्या से प्रकाशमान ! हे (जातवेदः) सब के ज्ञाता ! उपदेशक ! ( यत्र ) जहां २ ( गुहा ) गुफा तक में (सतां) विद्यमान ( एषां ) इन ( अत्रिणां ) प्रजाभक्षक लोगों की (जनिमानि) जातियों को या सन्तानों को ( वेत्थ ) तू जान पावे, ( तान् ब्रह्मणा वावृधानः ) उन्हें ब्रह्म अर्थात् वेदविद्या द्वारा उन्नत करता हुआ तू ( एषां शततर्हम् ) उनके पापों का सैंकडों प्रकार से ( जहि ) विनाश कर ।
टिप्पणी
राष्ट्र में राजा और उपदेशक के पक्ष में है। एवं शरीरपक्ष में अग्नि आत्मा, इन्द्र प्राण यातुधान किमीदी मानस दुःसंकल्प है, जो सदा ‘अब क्या’ इस प्रकार तृष्णा के भाव दर्शाते और सदा यातुमान् = बेचैनी प्रकट करते हैं। इसी प्रकार शरीर के विनाशक रोगों को दूर करने वाले वैद्य आदि के पक्ष में भी लगजाता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः । १, २ बृहस्पतिरग्निषोमौ च देवताः । ३, ४ अग्निर्देवता । १-३ अनुष्टुभः। ४, बार्हतगर्भा त्रिष्टुप् । चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Elimination of the Evil
Meaning
Agni, enlightened and fiery leader and ruler, strong with power and force, knowing all the facts and problems of the nation, as you know the generation, rise and growth of these saboteurs and damagers open or underground, ward off and eliminate their mischief of a hundredfold variety, also saving and raising their humanity as far as possible with sacred counsel and knowledge of positive value.
Translation
O adorable Lord, knower of each and everyone, wherever you know the races of these vagrants in their hide-outs, may you, strengthened by your search of and finding, destroy them in hundreds, O adorable Lord
Translation
O, wise ruler, as you know the place where these bandits and villains have their stronghold, so, you strengthened by the power destroy them and thus, their multi-furious activities.
Translation
As thou, O learned preacher, knowest the descendants of these secret greedy beings, so strengthened by the knowledge of Veda, O preacher, ameliorating them morally, destroy their sins through a hundred devices.
Footnote
A hundred means various.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−अग्ने। अग्निवत् तेजस्विन् राजन्। जनिमानि। जनिमृङ्भ्यामिमनिन्। उ० ४।१४९। इति जनी प्रादुर्भावे-इमनिन्। जन्मानि, उत्पत्तिकारणानि। वेत्थ। विद ज्ञाने-लट्। त्वं जानासि। गुहा। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति गुहू संवरणे-क, टाप् च। गूहति रक्षतीति। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तिलोपः। गुहायाम्, गर्त्ते, गह्वरे, गुप्तस्थाने। सताम्। अस सत्तायां-शतृ। विद्यमानानाम्। निवसताम्। अत्रिणाम्। १।७।३। अदनशीलानां, उदरपोषकाणाम्। जात-वेदः। १।७।२। हे जातविद्य ! ब्रह्मणा। बृंहेर्नोऽच्च। उ० ४।१४६। इति बृहि वृद्धौ-मनिन्, नकारस्य अकारः, रत्वं च। ब्रह्म अन्नम्−निघ० २।७। तथा, धनम्−निघ० २।१०। वेदेन। वेदज्ञानेन। परमेश्वरेण। वावृधानः। वृधु वृद्धौ-लिटः कानच्, छन्दसि दीर्घः। प्रवृद्धः। जहि। मं० ३। मारय। शत−तर्हम्। शतं बहुनाम्−निघ० ३।१। तृह हिंसायाम्-घञ्। बहुविधहिंसनम् ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(জাতবেদঃ) হে জ্ঞানদাতা বা ধনদাতা (অগ্নে) অগ্নিতুল্য তেজস্বী রাজন! (য়ত্র) যেখানে (গুহা) গুহায় (সতাং) বর্তমান (ত্রয়াং) এই (অত্রিণাং) উদরপোষকদের (জনিমানি) জন্মকে (বেত্থ) তুমি জান (অগ্নে) হে অগ্নিতুল্য প্রতাপবান রাজন! (ব্রহ্মণা) বেদজ্ঞান দ্বারা (বাবৃধানঃ) উন্নতি প্রাপ্ত তুমি (তান্) তাহাদিগকে (এষাং) এবং ইহাদিগের (শততর্হং) শত প্রকারের হিংসাকে (জহি) নাশ কর।।
भावार्थ
হে জ্ঞানদাতা ও ধনদাতা অগ্নিতুল্য তেজস্বী রাজন! যে কোন গুপ্ত স্থলেই যদি কোন স্বার্থপর স্বোদর পোষক দুষ্ট উন্নতি প্রাপ্ত হয় তুমি তাহা জানিতে পার। হে অগ্নিতুল্য প্রতাপবান রাজন! তুমি বেদ জ্ঞানে উন্নতি লাভ করিয়াছ। তুমি প্রত্যক্ষ ও পরোক্ষ শত্রুগণের বহু প্রকারের হিংসা কার্যকে বিনাশ কর।
मन्त्र (बांग्ला)
য়ত্রৈসামমগ্নে জনি মানি বেত্থ গুহা সতামত্রিণাং জাতবেদা। তাং স্ত্বং ব্রহ্মণা বাবৃধানো জহ্যেসাং শততমগ্নে।।
ऋषि | देवता | छन्द
চাতনঃ। অগ্নিঃ। বাৰ্হতগর্ভা ত্রিষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(সেনাপতিলক্ষণানি) সেনাপতির লক্ষণ
भाषार्थ
(জাতবেদঃ) হে অনেক বিদ্বান বা ধনবান, (অগ্নে) অগ্নি [অগ্নিস্বরূপ রাজন্]! (যত্র) যেখানে (গুহা) গুপ্ত স্থান, [সেখানে](সতাম্) বর্তমান (এষাম্) এই (অত্রিণাম্) উদরপোষকদের (জন্মা নি) জন্মকে (বেত্থ) তুমি জানো। (অগ্নে) হে অগ্নিরূপ রাজন্ ! (ব্রহ্মণা) বেদজ্ঞান [বা অন্ন বা ধন] দ্বারা (বাবৃধানঃ) বর্ধিত/বৃদ্ধি হয়ে (ত্বম্) তুমি (তান্) তাঁদের এবং (এষাম্) এঁদের (শততর্হম্) শত প্রকারের হিংসা (জহি) নাশ করো ॥৪॥
भावार्थ
অগ্নির সমান তেজস্বী মহাবলী রাজা গুপ্ত উপদ্রবকারীদের খোঁজ করুক এবং তাঁদের যথা নীতি কঠোর-কঠোর দণ্ড দিয়ে প্রজাদের শান্তিতে রাখুক ॥৪॥
भाषार्थ
(জাতবেদঃ) হে জাতপ্রজ্ঞ (অগ্নে) অগ্রণী প্রধানমন্ত্রী! (গুহাসতাম্) গুহায় বর্তমান, (অত্রিণাম্) মাংসভক্ষক, (এষাম্ ) এই যাতুধানদের (যত্র) যে স্থানবিশেষে (জনিমানি) জন অর্থাৎ উৎপত্তি-সমূহকে (বেত্থ) তুমি জানো (তান্) তা (ব্রহ্মণা) বেদমন্ত্রের দ্বারা (বাবৃধানঃ) জ্ঞানে বর্ধিত, তুমি (এষাম্) এই যাতুধানদের (শততর্হম্) হিংসার বহুবিধ প্রকারে (জহি) হনন করো।
टिप्पणी
[বৈদিক মন্ত্র-সমূহে যাতুধানদের হননের বহুবিধ উপায় দেখানো হয়েছে। শততর্হম্ হল বিশেষণ জহি ক্রিয়ার।]
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