अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 7
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
34
पर्य॑स्या॒स्मिंल्लो॒क आ॒यत॑नं शिष्यते॒ य ए॒वं वि॒दुषा॒ व्रात्ये॒नाति॑सृष्टोजु॒होति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । अ॒स्य॒ । अ॒स्मिन् । लो॒के । आ॒ऽयत॑नम् । शि॒ष्य॒ते॒ । य: । ए॒वम् । वि॒दुषा॑ । व्रात्ये॑न। अति॑ऽसृष्ट: । जु॒हो॒ति॒ ॥१२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
पर्यस्यास्मिंल्लोक आयतनं शिष्यते य एवं विदुषा व्रात्येनातिसृष्टोजुहोति ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । अस्य । अस्मिन् । लोके । आऽयतनम् । शिष्यते । य: । एवम् । विदुषा । व्रात्येन। अतिऽसृष्ट: । जुहोति ॥१२.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
यज्ञ करने में विद्वान् की सम्मति का उपदेश।
पदार्थ
(अस्मिन् लोके) इससंसार में (अस्य) उस [गृहस्थ] की (आयतनम्) मर्यादा (परि) सब प्रकार (शिष्यते)शेष रह जाती है, (यः) जो [गृहस्थ] (एवम्) व्यापक [परमात्मा] को (विदुषा) जानतेहुए (व्रात्येन) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] करके (अतिसृष्टः) आज्ञा दिया हुआ (जुहोति) यज्ञ करता है ॥७॥
भावार्थ
गृहस्थ को योग्य है किआदरपूर्वक विद्वान् मर्यादापुरुष सत्यव्रतधारी अतिथि की आज्ञा से उत्तम-उत्तमकर्म करता रहे, जिससे उसकी मर्यादा और कीर्ति संसार में स्थिर होवे ॥४-७॥
टिप्पणी
७−(परि)सर्वतः (अस्य) गृहस्थस्य (अस्मिन्) दृश्यमाने (लोके) संसारे (आयतनम्)यती-ल्युट्। मर्यादाम्। आश्रयः (शिष्यते) अवशिष्टं वर्तते। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४॥
विषय
अतिथि सत्कार व गृहरक्षण
पदार्थ
१. (सः) = वह गृहस्थ (य:) = जो (एवम्) = इस गति के स्रोत प्रभु को (विदुषा) = जाननेवाले व्रात्येन व्रतीपुरुष से (अतिसृष्टः) = अनुज्ञा दिया हुआ (जुहोति) = अग्निहोत्र करता है, (प्र पितृयाणं पन्थों जानाति) = पितृयाण मार्ग को जानता है और (देवयानं प्र)[जानाति] = देवयानमार्ग को भी जानता है। बड़ों के आदेश में चलना ही पितृयाणमार्ग है और दिव्यगुणों को प्राप्त करानेवाला मार्ग ही देवयान है। घर पर आये हुए मान्य अतिथि से अनुज्ञा लेकर अग्निहोत्र आदि में प्रवृत्त होने से घर में पितयाण व देवयान मार्गों की नींव पड़ती है। २. (य:) = जो (एवं विदुषा) = गति के स्रोत प्रभु के ज्ञाता व्रात्य से (अतिसृष्टः जुहोति) = अनुज्ञा दिया हुआ अग्निहोत्र करता है, वह (देवेषु) = देवों के विषय में (न आवश्चते) = अपने कर्तव्य को क्षीण नहीं करता, अर्थात् उनके विषय में अपने कर्तव्य का पालन करता है (अस्य हुतं भवति) = इसका अग्निहोत्र ठीक सम्पन्न होता है तथा (अस्मिन् लोके) = इस जगत् में (अस्य आयतनम्) = इसका घर (परिशिष्यते) = विनाश से बचा रहता है, अर्थात् इस घर में विलास आदि की वृत्तियों उत्पन्न होकर इसके विनाश का कारण नहीं बनती।
भावार्थ
विद्वान व्रती अतिथि से अनुजा लेकर ही अग्निहोत्र आदि में प्रवत्त होने से उस अतिथि का मान बना रहता है और गृहस्थ के घर में उत्तम प्रथाएँ बनी रहती हैं जो घर को विनष्ट नहीं होने देती।
भाषार्थ
(यः) जो गृहस्थी (एवम्) इस प्रकार (विदुषा) जानने वाले अतिथि से (अतिसृष्टः) आज्ञा पाया हुआ (जुहोति) अग्निहोत्र करता है, (अस्य) इस गृहस्थी का (आयतनम्) स्थान, (अस्मिन्, लोके) इस गृहस्थाश्रम में (परि शिष्यते) आदर पूर्वक बना रहता है, (७)।
विषय
अतिथि यज्ञ।
भावार्थ
(यः) जो (एवं) इस प्रकार (विदुषा व्रात्येन अतिसृष्टः जुहोति) विद्वान् प्रजापति से आज्ञा प्राप्त करके अग्निहोत्र करता है वह (न देवेषु आ वृश्चते) देवताओं, विद्वानों के प्रति कोई अपराध नहीं करता। (अस्मिन् लोके) इस लोक में (अस्य) इसका (आयतनम्) आयतन आश्रय या प्रतिष्ठा (परिशिष्यते) उसके बाद भी बनी रहती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ त्रिपदा गायत्री, २ प्राजापत्या बृहती, ३, ४ भुरिक् प्राजापत्याऽनुष्टुप् [ ४ साम्नी ], ५, ६, ९, १० आसुरी गायत्री, ८ विराड् गायत्री, ७, ११ त्रिपदे प्राजापत्ये त्रिष्टुभौ। एकादशर्चं द्वादशं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
He that performs yajna thus permitted by the learned Vratya guest, his house and grhasthashrama, home life, in this world abides well-established and fulfilled.
Translation
For him, whoever -performs a sacrifice being permitted by such a knowledgeable vow-observing sage, there remains a secure place in this world.
Translation
Abode remains preserved in this word for him who permitted by the Vratya possessing this knowledge performs the Yajna.
Translation
The fame of the man who sacrifices when permitted by the Acharya who possesses this knowledge of God, is long left remaining in this world.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(परि)सर्वतः (अस्य) गृहस्थस्य (अस्मिन्) दृश्यमाने (लोके) संसारे (आयतनम्)यती-ल्युट्। मर्यादाम्। आश्रयः (शिष्यते) अवशिष्टं वर्तते। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४॥
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