अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
ऋषिः - उषा,दुःस्वप्ननासन
देवता - प्राजापत्या अनुष्टुप्
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
41
उ॒षोयस्मा॑द्दुः॒ष्वप्न्या॒दभै॒ष्माप॒ तदु॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठउष॑: । यस्मा॑त् । दु॒:ऽस्वप्न्या॑त् । अभै॑ष्म । अप॑ । तत् । उ॒च्छ॒तु॒ ॥६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
उषोयस्माद्दुःष्वप्न्यादभैष्माप तदुच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठउष: । यस्मात् । दु:ऽस्वप्न्यात् । अभैष्म । अप । तत् । उच्छतु ॥६.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोगनाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(उषः) हे उषा ! [प्रभात वेला] (यस्मात्) जिस (दुःष्वप्न्यात्) दुष्ट स्वप्न में उठे कुविचार से (अभैष्म) हम डरे हैं, (तत्) वह (अप) दूर (उच्छतु) चला जावे ॥२॥
भावार्थ
यदि किसी कुपथ्य वारोग के कारण निद्राभङ्ग होकर मस्तक में कुविचार घूमने लगें, मनुष्य उसका प्रतीकारप्रभात ही अर्थात् बहुत शीघ्र करे ॥२॥
टिप्पणी
२−(उषः) हे प्रभातवेले (यस्मात्) (दुःष्वप्न्यात्) दुष्टस्वप्ने भवात् कुविचारात् (अभैष्म) वयं भयं प्राप्तवन्तः (अप) दूरे (तत्) भयम् (उच्छतु) गच्छतु ॥
विषय
दुःष्वप्नों का दूरीकरण
पदार्थ
१. हे (उष:) = सब अन्धकारों का दहन करनेवाली उषे! (यस्मात्) = जिस (दु:ष्वप्न्यात्) = दुष्ट स्वप्नों के कारणभूत 'ग्राही, दुर्गति, अशक्ति, अनैश्वर्य, पराजय व इन्द्रियों की विषय-परायणता' आदि से (अभैष्म) = हम भयभीत होते हैं, (तत्) = वह सब (अप उच्छतु) = हमसे दूर हो।
भावार्थ
'उषाकाल में जाग जाना' स्वयं दुष्ट स्वप्नों से हमें बचाता है। दुष्ट स्वप्नों की कारणभूत दुर्गति आदि भी हमसे दूर हों।
भाषार्थ
(उषः) हे उषा ! (यस्मात्, दुष्वप्न्यात्) जिस दुःष्वप्न के दुष्परिणाम से (अभैष्म) हम भयभीत हुए थे (तद्) वह (अप उच्छतु) हम से दूर हो जाय।
टिप्पणी
[सूक्त ६, मन्त्र ९ में "जाग्रद्-दुष्वप्न्यं स्वप्ने दुष्वप्न्यम्" द्वारा जागरितावस्था तथा स्वप्नावस्था के दुष्वप्न्यों का वर्णन हुआ है। जागरितावस्था के दुष्वप्न्य हैं,- कुविचार, द्वेषभावना, अशिवसंकल्प आदि। उषः-काल के होते निद्राकाल की स्वप्नावस्था के दुष्वप्न्यों का दूरीकरण तो हो जाता है, परन्तु जाग्रद्-दुष्वप्न्यों का विनाश नहीं होता, अपितु जाग्रद्-दुष्वप्न्यों का प्रारम्भ हो जाता है। अतः जाग्रत्-दुष्वप्न्यों से छुटकारा पाने के लिये आध्यात्मिक उषः-काल की उपस्थिति भी चाहिए। इस लिये मन्त्र २ में "उषः" द्वारा प्राकृतिक और आध्यात्मिक दोनों१ प्रकार के उषःकाल अपेक्षित हैं। योगाभ्यास द्वारा चित्तगत रजोगुण और तमोगुण के क्षीण होने पर, जब चित्त सत्त्वगुण प्रधान होता है, तब जो आध्यात्मिक प्रकाश प्रकट होता है वह आध्यात्मिक उषा है। इस के प्रकट होते जाग्रद्-दुःष्वप्न्य भी दूर हो जाते है, और निद्राजन्य भी] [१. वस्तुतः आध्यात्मिक उषः-काल की उपस्थिति में निद्राजन्य दुष्वप्न्यम् भी नहीं होने पाते।]
विषय
अन्तिम विजय, शान्ति, शत्रुशमन।
भावार्थ
हे (उषः) उषाकाल ! हम (यस्मात्) जिस (दुः-स्वप्न्यात्) दुःस्वप्न, बुरे स्वप्न होने से (अभैष्म) भय करते हैं (तत् अप उच्छतु) वह दूर हो जाय।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। दुःस्वप्ननाशन उषा च देवता, १-४ प्राजापत्यानुष्टुभः, साम्नीपंक्ति, ६ निचृद् आर्ची बृहती, ७ द्विपदा साम्नी बृहती, ८ आसुरी जगती, ९ आसुरी, १० आर्ची उष्णिक, ११ त्रिपदा यवमध्या गायत्री वार्ष्यनुष्टुप्। एकादशर्चं षष्ठं पर्याय सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Atma-Aditya Devata
Meaning
Let the dawn dispel the evil dream, of which we were afraid.
Translation
From which evil dream we have been afraid, may the dawn dispel that away.
Translation
Let the dawn of knowledge dispel that evil dream from which we are frightened.
Translation
O Morning, dispel with thy light that evil dream that frightened us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(उषः) हे प्रभातवेले (यस्मात्) (दुःष्वप्न्यात्) दुष्टस्वप्ने भवात् कुविचारात् (अभैष्म) वयं भयं प्राप्तवन्तः (अप) दूरे (तत्) भयम् (उच्छतु) गच्छतु ॥
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