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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - यज्ञः, चन्द्रमाः छन्दः - पथ्या बृहती सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
    75

    इ॒मं हो॑मा य॒ज्ञम॑वते॒मं सं॑स्रावणा उ॒त। य॒ज्ञमि॒मं व॑र्धयता गिरः संस्रा॒व्येण ह॒विषा॑ जुहोमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम्। होमाः॑। य॒ज्ञम्। अ॒व॒त॒। इ॒मम्। स॒म्ऽस्रा॒व॒णाः॒। उ॒त। य॒ज्ञम्। इ॒मम्। व॒र्ध॒य॒त॒। गि॒रः॒। स॒म्ऽस्रा॒व्ये᳡ण। ह॒विषा॑। जु॒हो॒मि॒ ॥१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं होमा यज्ञमवतेमं संस्रावणा उत। यज्ञमिमं वर्धयता गिरः संस्राव्येण हविषा जुहोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। होमाः। यज्ञम्। अवत। इमम्। सम्ऽस्रावणाः। उत। यज्ञम्। इमम्। वर्धयत। गिरः। सम्ऽस्राव्येण। हविषा। जुहोमि ॥१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (होमाः) दाता लोगो तुम (इमम्) इस (यज्ञम्) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण और दान] को, (उत) और (संस्रावणाः) हे बड़े कोमल स्वभाववालो ! (इमम्) इस [यज्ञ] की (अवत) रक्षा करो। (गिरः) हे स्तुतियोग्य विद्वानो ! (इमम्) इस (यज्ञम्) यज्ञ [देवपूजा आदि] को (वर्धयत) बढ़ाओ, (संस्राव्येण) बहुत कोमलता से भरी हुई (हविषा) भक्ति के साथ [तुम को] (जुहोमि) मैं स्वीकार करता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    सब मनुष्य आप्त विद्वानों से नम्रतापूर्वक मिलकर धर्मवृद्धि और शिल्प आदि वृद्धि करते रहें ॥२॥

    टिप्पणी

    इस मन्त्र के पूर्वार्द्ध का मिलान करो−पूर्वार्द्ध अ० १।१५।२ ॥ २−(इमम्) क्रियमाणम् (होमाः) अ० ८।९।१८। हु दानादानादनेषु-मन्। दातारो यूयम् (यज्ञम्) म० १ (अवत) रक्षत (इमम्) यज्ञम् (संस्रावणाः) स्रु गतौ−णिचि, ल्युट्, अर्शआद्यच्। हे आर्द्रस्वभावयुक्ताः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥

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    विषय

    होमा:-सस्त्रावणा:

    पदार्थ

    १. हे (गिर:) = ज्ञान की वाणियों द्वारा प्रभु-स्तवन करनेवाले स्तोताओ! (इमं यज्ञं वर्धयत) = इस यज्ञ का वर्धन करो। यही निश्चय करो कि (संस्त्राव्येण) = सम्पूर्ण जगत् की सम्यक् गति की साधनाभूत (हविषा) = हवि से (जुहोमि) = हवन करता हूँ। यज्ञों से ही तो सम्पूर्ण आधिदैविक व आधिभौतिक जगत् हमारे अनुकूल होता है। तभी हम शान्तिपूर्वक अध्यात्म उन्नति कर पाते हैं, २. इसीलिए वेद का आदेश है कि हे (होमा:) = आहुति देनेवाले यज्ञशील पुरुषो! (इमं यज्ञं अवत) = इस यज्ञ का रक्षण करो। तुम्हारे जीवनों में से इस यज्ञ का कभी विलोप न हो जाए। (उत) = और हे (संस्त्रावणा:) = यज्ञों द्वारा सब वस्तुओं की ठीक गति के कारणभूत लोगो! (इमम्) = इस यज्ञ को सदा जागरित रक्खो-यह कभी सुप्त व विनष्ट न हो जाए।

    भावार्थ

    यज्ञ को न विलुप्त होने देनेवाले ये लोग संत्रावण हैं-सब वस्तुओं की ठीक गति के ये कारण बनते हैं, अत: इस सम्बन्ध में हम हवि को लुप्त न होने दें।

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    भाषार्थ

    (होमाः) राज्य-यज्ञ में निज सम्पत्तियों की आहुतियाँ देनेवाले हे प्रजाजनो! (इमं यज्ञम्) इस राज्य-यज्ञ की (अवत) तुम रक्षा करो। (उत संस्रावणाः) तथा संस्रावों द्वारा सम्पत्तियों वाले हे प्रजाजनो! (इमम्) इस राज्य-यज्ञ की रक्षा करो। (यज्ञमिमं वर्धयता...) पूर्ववत् (मन्त्र १९.१.१)। [संस्रावणाः=यथा— इ॒हैव हव॒मा या॑त म इ॒ह सं॑स्रावणा उ॒तेमं व॑र्धयता गिरः। इ॒हैतु॒ सर्वो॒ यः प॒शुर॒स्मिन्ति॑ष्ठतु॒ या र॒यिः॥ अथर्व० १.१५.२॥ राज्यपति कहता है कि संस्रावों द्वारा प्राप्त सम्पत्तियोंवाले हे प्रजाजनो! (इह) इस राज्य में तुम रहो, और (मे) मेरे (हवम्) आह्वान पर (आयात) मेरे समीप आया करो। तथा (गिरः) हे वेदवाणियों के रहस्यार्थों के विज्ञो! तुम भी (इहैव) इसी राज्य में रहते हुए (इमम्) इस राज्य की (वर्धयत) वृद्धि करते रहो। (यः) जो हमारा (पशुः) पशुसंघ है, वह (सर्वः) सब (इह एतु) इस राज्य में रहे। (या रयिः) राज्य की जो सम्पत्ति है, वह भी (अस्मिन्) इस राज्य में (तिष्ठतु) स्थित रहे।

    टिप्पणी

    [संस्रावणा=संस्रावण+अच्। पशुः=तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावयः” (अथर्व० १०.२.९)। इस प्रकार पशुओं के ५ विभाग हैं।]

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    विषय

    यज्ञ के रूप से राष्ट्रकी वृद्धि का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (होमाः) होमो ! यज्ञो ! आप (इमम् यज्ञम्) इस यज्ञ की, यज्ञकर्त्ता पुरुष की या यज्ञमय राष्ट्र की (अवत) रक्षा करो। (उत) और हे (संस्रावणाः) समस्त ऐश्वर्यों को भली प्रकार प्राप्त करानेहारे उपायो ! तुम भी (इमम् अवत) इस यज्ञपति और राष्ट्रपति की रक्षा करो। (यज्ञम् इमम् इत्यादि पूर्ववत्)

    टिप्पणी

    ‘होमा यज्ञ पचते इदं’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। यज्ञः चन्द्रमाश्च देवते। १, २, पथ्याबृहत्यौ, ३ पंक्तिः। तृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna

    Meaning

    O oblations of yajnic havi, preserve, protect and promote this yajna of unity, and, O united dynamics of nature and society, protect and promote this yajna of togetherness. O songs of divinity, extend and elevate this yajna of togetherness and unity. I offer oblations with the fragrant havi of the unity of diversity-in-unison.

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    Translation

    O burnt oblations, may you protect this sacrifice, and also you, oblations of confluence. May the sacred hymns augment this sacrifice. I hereby perform a sacrifice of confluence.

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    Translation

    Let the things aimed at yajna protect this Yajna and let the moistening substances (butter etc.) preserve this Yajna. I the yajmana—— substance.

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    Translation

    O burnt oblations, protect this sacrifice of mine, O mixed offerings doye also protect it. O renters, strengthen my sacrifice. I offer my oblations of mixed materials.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    इस मन्त्र के पूर्वार्द्ध का मिलान करो−पूर्वार्द्ध अ० १।१५।२ ॥ २−(इमम्) क्रियमाणम् (होमाः) अ० ८।९।१८। हु दानादानादनेषु-मन्। दातारो यूयम् (यज्ञम्) म० १ (अवत) रक्षत (इमम्) यज्ञम् (संस्रावणाः) स्रु गतौ−णिचि, ल्युट्, अर्शआद्यच्। हे आर्द्रस्वभावयुक्ताः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥

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