अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - यज्ञः, चन्द्रमाः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
55
रू॒पंरू॑पं॒ वयो॑वयः सं॒रभ्यै॑नं॒ परि॑ ष्वजे। य॒ज्ञमि॒मं चत॑स्रः प्र॒दिशो॑ वर्धयन्तु संस्रा॒व्येण ह॒विषा॑ जुहोमि ॥
स्वर सहित पद पाठरू॒पम्ऽरू॑पम्। वयः॑ऽवयः। स॒म्ऽरभ्य॑। ए॒न॒म्। परि॑। स्व॒जे॒। य॒ज्ञम्। इ॒मम्। चत॑स्रः। प्र॒ऽदिशः॑। व॒र्ध॒य॒न्तु॒। स॒म्ऽस्रा॒व्ये᳡ण। ह॒विषा॑। जु॒हो॒मि॒ ॥१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
रूपंरूपं वयोवयः संरभ्यैनं परि ष्वजे। यज्ञमिमं चतस्रः प्रदिशो वर्धयन्तु संस्राव्येण हविषा जुहोमि ॥
स्वर रहित पद पाठरूपम्ऽरूपम्। वयःऽवयः। सम्ऽरभ्य। एनम्। परि। स्वजे। यज्ञम्। इमम्। चतस्रः। प्रऽदिशः। वर्धयन्तु। सम्ऽस्राव्येण। हविषा। जुहोमि ॥१.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(रूपंरूपम्) सब प्रकार की सुन्दरता और (वयोवयः) सब प्रकार के बल को (संरभ्य) ग्रहण करके (एनम्) इस (विद्वान्) को (परि ष्वजे) मैं गले लगाता हूँ। (इमम्) इस (यज्ञम्) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण और दान] को (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) बड़ी दिशाएँ (वर्धयन्तु) बढ़ावें, (संस्राव्येण) बहुत कोमलता से भरी हुई (हविषा) भक्ति के साथ [इस विद्वान् को] (जुहोमि) मैं स्वीकार करता हूँ ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वानों से उत्तम शिक्षा और बल प्राप्त कर के उनका सत्कार करें, जिससे सब दिशाओं में सत्कर्मों की वृद्धि होवे ॥३॥
टिप्पणी
इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध कुछ भेद से आ चुका है-अ० १।२२।३ ॥ ३−(रूपंरूपम्) अ० १।२३।३। सर्वसौन्दर्य्यम् (वयोवयः) अ० १।२२।३। सर्वसामर्थ्यम् (संरभ्य) गृहीत्वा (एनम्) विद्वांसम् (परि) सर्वतः (स्वजे) ष्वञ्ज परिष्वङ्गे। आलिङ्गयामि (यज्ञम्) (इमम्) (चतस्रः) (प्रदिशः) प्राच्यादयो महादिशः (वर्धयन्तु) समर्धयन्तु। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥
विषय
रूपंरूपं, वय:वयः
पदार्थ
१. मानव-जीवन में कभी हमारा स्वरूप एक ब्रह्मचारी का, पुनः गृहस्थ का, तदनन्तर एक वानप्रस्थ का होता है। आयु के दृष्टिकोण से भी हमारा 'बाल्यकाल, यौवन व वार्धक्य' होता है। मैं (रूपंरूपम्) = उस-उस रूप को और (वयः वयः) = उस-उस आयुष्य को (संरभ्य) = ग्रहण करके (एनं परिष्वजे) = इस यज्ञ का आलिङ्गन करता हूँ। यज्ञ तो हमें सदा करना ही है, चाहे हम किसी रूप में हों या किसी भी आयुष्य की अवस्था में हों। २. (चतस्त्रः प्रदिश:) = चारों विस्तृत दिशाएँ इन दिशाओं में रहनेवाले लोग (इमं यज्ञम्) = इस यज्ञ को (वर्धयन्तु) = बढ़ाएँ-स्वयं भी यज्ञशील हों। (संस्त्राव्येण हविषा) = सब वस्तुओं की ठीक गति की साधनभूत (हविषा) = हवि के द्वारा (जुहोमि) = मैं आहुति देता हूँ-मैं यज्ञशील बनता हूँ।
भावार्थ
हम जीवन की किसी भी स्थिति में हों, आयु की किसी भी श्रेणी में हो, यज्ञ हमारे लिए आवश्यक है। सब लोग इस यज्ञ का वर्धन करनेवाले हों। 'यज्ञाद् भवति पर्जन्य:' के अनुसार यज्ञों से ठीक वृष्टि होकर हमें उत्तम जलों की प्राप्ति होती है। ये जल नदियों में प्रवाहित होकर 'सिन्धु' कहलाते हैं [स्यन्दन्ते]। स्नान व पान के रूप में दो प्रकार से जलों का यह प्रयोक्ता 'सिन्धुढीप' है [द्विर्गता: आपो यस्मिन्] । इस 'सिन्धु द्वीप' का ही अगला सूक्त है -
भाषार्थ
(रूपंरूपम्) राज्य के प्रत्येक रूप पर (वयोवयः) तथा प्रत्येक प्राणि-विभाग पर (संरभ्य=संलभ्य, रलयोरभेदः) सम्यक् अधिकारलाभ करके मैं राज्यपति (एनम्) इस राज्य का (परिष्वजे) आलिङ्गन करता हूँ, इसे अपनाता हूँ। (चतस्रः प्रदिशः) राज्य के चतुर्दिक्वासी (इमम् यज्ञम्) इस राज्य की (वर्धयन्तु) वृद्धि करें। मैं राज्यपति (संस्राव्येण) संस्रावों द्वारा प्राप्य (हविषा) धन को हविरूप जान कर, इस हवि द्वारा (जुहोमि) राज्य-यज्ञ में आहुतियाँ देता हूँ।
टिप्पणी
[रूपंरूपम्=राज्य की भूमि, राज्य की नदियाँ, तथा पर्वत, राज्य के खनिज पदार्थ तथा वन, राज्य के भवन तथा उपज आदि राज्य के विविध रूप हैं। वयोवयः=वयः का अर्थ है आयुः। मन्त्र में “वयः” द्वारा आयुवाले प्राणिवर्ग अभिप्रेत हैं, अर्थात् पशु, पक्षी, पुरुष-स्त्रियां, बच्चे आदि। मन्त्रों में राज्य को यज्ञ कहा है। राज्य के सभी प्रजाजन, राज्ययज्ञ के यजमान हैं। राज्यपति इनका प्रतिनिधि बनकर प्रजा द्वारा स्वेच्छापूर्वक दिये धन को आहुतियाँ राज्य-यज्ञ की वृद्धि के निमित्त देता है। राज्य में यज्ञभावना होने पर प्रजाजन और अधिकारी, धनलालसा तथा पदलालसा से राज्य में शासन नहीं करते, अपितु राज्य को यज्ञ जानकर, धर्म-भावना से प्रेरित होकर राज्यवर्धन करते हैं।] [विशेष वक्तव्य—(१) नदियों के प्रवाहों से नहरें निकाल कर उपजवृद्धि कर, तथा नगरवासियों को जल देकर, इन प्रवाहों में नौकाओं द्वारा व्यापार कर, धन और वृद्धि की जा सकती है।(२) (वाताः) वायुओं की अनुकूलता में पतवारों द्वारा चलाई जानेवाली समुद्रिय नौकाओं तथा हवाई जहाजों द्वारा धन कमाया जा सकता है। हवाई जहाजों द्वारा धनोपार्जन के सम्बन्ध में निम्नलिखित मन्त्र द्रष्टव्य है। यथा—“ये पन्थानो बहवो देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवी संचरन्ति। ते मा जुषन्तां पयसा घृतेन यथा क्रीत्वा धनमाहराणि” (अथर्व० ३.१५.२)। मन्त्र में “देवयानाः पन्थानः” का अर्थ है व्यापारियों के जाने-आने के “पन्थानः” अर्थात् मार्ग। देव में “दिव्” धातु का अर्थ व्यवहार अर्थात् व्यापार। वायु-यानों के राज्याधिकारी को ‘वणिक्-इन्द्र’ कहा है। यथा “इन्द्रमहं वणिजं चोदयामि” (अथर्व० ३.१५.१)। (३) अथर्ववेदीय बृहत्सर्वानुक्रमणिका में १९.१ सूक्त के दो देवता लिखे हैं—एक यज्ञ और दूसरा चन्द्रमा। यज्ञ शब्द तो १९.१ सूक्त के मन्त्रों में पठित है, परन्तु चन्द्रमा का निर्देश इन मन्त्रों में कहीं नहीं। सम्भवतः मन्त्र में “वाताः और पतत्रिणः” शब्दों द्वारा चन्द्रमा को भी देवता कहा गया हो। चन्द्रमा के कारण समुद्रों में ज्वार-भाटा होते रहते हैं, और सम्भवतः चन्द्रमा के कारण ही समुद्रिय वायुओं में भी परिवर्तन होते रहते हों, जो कि नौकाओं द्वारा किये जानेवाले व्यापार में सहायक हों। इन वायुओं को अंग्रेजी भाषा में "Trade winds" कहते हैं। साथ ही सम्भवतः १९.१ में “पतत्रिणः” पद द्वारा समुद्री-नौकाएँ अभिप्रेत हों। ऋग्वेद मं॰ १, सू॰ ११६, मन्त्र ३-४ में “नौभिः” का विशेषण “पतङ्गैः” दिया है। पतङ्गाः और पतत्रिणः शब्द प्रायः पर्यायवाची हैं। पक्षियों की उड़ानों में “संस्राव्य-हविः” के उत्पादन की योग्यता नहीं।]
विषय
यज्ञ के रूप से राष्ट्रकी वृद्धि का उपदेश।
भावार्थ
(रूपंरूपं) प्रत्येक प्रकार का रूप अर्थात् पशु और (वयोवयः) प्रत्येक प्रकार के अन्न और बल को (संग्भ्य) भली प्रकार प्राप्त करके मैं (एनम्) इस राष्ट्रपति और यज्ञपति को (परिष्वजे) सब ओर से अलिंगन करता हू, सब ओर से उसकी रक्षा करता हूं। (चतस्रः प्रदिशः) चारों मुख्य दिशाएं, अर्थात् चारों दिशाओं के वासीजन (इमम्) उसको (वर्धयन्तु) बढ़ावें। (संस्राव्येण हविषा जुहोमि) मैं, धन ऐश्वर्य को बढ़ाने वाले हवि=उपाय से राष्ट्र की रक्षा करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्माऋषिः। यज्ञः चन्द्रमाश्च देवते। १, २, पथ्याबृहत्यौ, ३ पंक्तिः। तृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Yajna
Meaning
Form by form, class by class, having begun by individuals with love, I embrace this unity of the immense variety. May all four directions of space extend and elevate this yajna of togetherness and unity. I offer oblations of my contribution with the fragrant havi of the unity of diversity-in-unison of all life.
Translation
With due consideration to each and every beauty of each and every age, I surround him (the sacrifice). May the four midquarters augment this sacrifice. I hereby perform a sacrifice of confluence.
Translation
I, the Yajman, attaining each form, each force embrace this man (the priest). Let the four quarters strengthen this my Yajna. I offer oblations with moistened oblatory substance.
Translation
Having collected all kinds of cattle, food and means of power, I protect this king. May the men of ail the four quarters enhance this sacrifice of mine. I offer my oblations for the progress and betterment of my nation.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध कुछ भेद से आ चुका है-अ० १।२२।३ ॥ ३−(रूपंरूपम्) अ० १।२३।३। सर्वसौन्दर्य्यम् (वयोवयः) अ० १।२२।३। सर्वसामर्थ्यम् (संरभ्य) गृहीत्वा (एनम्) विद्वांसम् (परि) सर्वतः (स्वजे) ष्वञ्ज परिष्वङ्गे। आलिङ्गयामि (यज्ञम्) (इमम्) (चतस्रः) (प्रदिशः) प्राच्यादयो महादिशः (वर्धयन्तु) समर्धयन्तु। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥
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