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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अप्रतिरथः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - एकवीर सूक्त
    36

    बृह॑स्पते॒ परि॑ दीया॒ रथे॑न रक्षो॒हामित्राँ॑ अप॒बाध॑मानः। प्र॑भ॒ञ्जञ्छत्रू॑न्प्रमृ॒णन्न॒मित्रा॑न॒स्माक॑मेध्यवि॒ता त॒नूना॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॑स्पते। परि॑। दी॒य॒। रथे॑न। र॒क्षः॒ऽहा। अ॒मित्रा॑न्। अ॒प॒ऽबाध॑मानः। प्र॒ऽभ॒ञ्जन्। शत्रू॑न्। प्र॒ऽमृ॒णन्। अ॒मित्रा॑न्। अ॒स्माक॑म्। ए॒धि॒। अ॒वि॒ता। त॒नूना॑म् ॥१३.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पते परि दीया रथेन रक्षोहामित्राँ अपबाधमानः। प्रभञ्जञ्छत्रून्प्रमृणन्नमित्रानस्माकमेध्यविता तनूनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पते। परि। दीय। रथेन। रक्षःऽहा। अमित्रान्। अपऽबाधमानः। प्रऽभञ्जन्। शत्रून्। प्रऽमृणन्। अमित्रान्। अस्माकम्। एधि। अविता। तनूनाम् ॥१३.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 13; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (बृहस्पते) हे बृहस्पति ! [बड़े-बड़े पुरुषों के रक्षक] (रक्षोहा) राक्षसों [दुष्टों] का मारनेवाला, (अमित्रान्) अमित्रों [वैरियों] को (अपबाधमानः) हटा देनेवाला होकर (रथेन) रथसमूह से (परि) सब ओर से (दीय) नाश कर। (शत्रून्) शत्रुओं को (प्रभञ्जन्) कुचलता हुआ और (अमित्रान्) अमित्रों को (प्रमृणन्) मार डालता हुआ तू (अस्माकम्) हमारे (तनूनाम्) शरीरों का (अविता) रक्षक (एधि) हो ॥८॥

    भावार्थ

    अनुभवी योद्धाओं को उत्साह देने, वैरियों को मारने और प्रजा के बचाने में योग्य पुरुष ही सेनापति होवे ॥८॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१०३।४। यजु०१७।३६ और साम०-उ०९।३।२॥८−(बृहस्पते) हे बृहतां महतां पुरुषाणां रक्षक (परि) सर्वतः (दीय) दीङ् क्षये, छान्दसो दीर्घः। नाशय (रथेन) युद्धरथसमूहेन (रक्षोहाः) रक्षसां दुष्टानां हन्ता (अमित्रान्) अमेर्द्विषति चित्। उ०४।१७४। अम पीडने-इत्र, चित्। पीडकान्। शत्रून् (अपबाधमानः) निवारयन् सन् (प्रभञ्जन्) प्रकर्षेण मर्दयन् (शत्रून्) (प्रमृणन्) अतिशयेन मारयन् (अमित्रान्) (अस्माकम्) (एधि) भव (अविता) रक्षकः (तनूनाम्) शरीराणाम् ॥

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    विषय

    ऊपर और ऊपर

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव को प्रेरणा देते हैं कि (बृहस्पते) = हे ज्ञान के स्वामिन् ! तू (रथेन) = इस शरीररूप रथ के द्वारा (परिदीया) = [दी-to shine] चमकनेवाला बन और आकाश में उड़नेवाला [दी-to sour] बन-उन्नतिपथ पर आगे बढ़। तूने उन्नत होते-होते ऊर्ध्वादिक् का अधिपति बनना है। (रक्षोहा) = राक्षसी वृत्तियों का संहार करनेवाला बन । (अमित्रान् अपबाधमान:) = न स्नेह-विद्वेष की भावनाओं को दूर करता हुआ तू चल। ३. (शत्रून्) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं को (प्रभजन्) = दूर भगाता हुआ (अमित्रान् प्रमृणन) = विद्वेष की भावनाओं को कुचलता हुआ (अस्माकम्) = हमसे दिये गये इन (तनूनाम्) = शरीर-रथों का अविता एधि-रक्षक बन । द्वेष आदि की भावनाएँ इस शरीर रथ को असमय में ही जीर्ण-शीर्ण न कर दें।

    भावार्थ

    हम द्वेष आदि से दूर रहते हुए शरीर-रथ का रक्षण करें। इसके द्वारा उन्नति पथ पर आगे बढ़ते हुए उन्नति के शिखर पर पहुँचें। ऊयादिक्के अधिपति बृहस्पति बनें।

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    भाषार्थ

    (बृहस्पते) हे बृहती सेना के पति! (रथेन) रथारूढ़ होकर आप (अमित्रान्) स्नेह न करनेवाले शत्रुओं को (परि दीया) सब ओर से काटिए। (रक्षोहा) आप इन राक्षसों का हनन करनेवाले, तथा (अपबाधमानः) दूर करनेवाले हैं। आप (शत्रून्) शत्रुदलों को (प्रभञ्जन्) तोड़ते हुए, और (अमित्रान्) शत्रुओं को (प्रमृणन्) खूब मारते हुए (अस्माकम्) हम प्रजाजनों के (तनूनाम्) शरीरों अर्थात् जीवनों के (अविता) रक्षक (एधि) हूजिए।

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    विषय

    इन्द्र, राजा और सेनापति का वर्णन।

    भावार्थ

    (बृहस्पते) बृहती—सेना के स्वामिन् ! शत्रुगण को (अपबाधमानः) दूर करता और रोकता हुआ, उनका विनाश करता हुआ (रक्षोता) विघ्नकारी राक्षसों का नाश करता हुआ (रथेन) रथ से (परिदीयाः) चारों ओर आक्रमण कर। (शत्रून्) शत्रुओं को (प्रभञ्जन्) खूब कुचलता हुआ (अमित्रान्) शत्रुओं को (प्रमृणन्) खूब मसलता हुआ (अस्माकं तनूनाम्) हमारे शरीरों का (अविता) रक्षक (ऐधि) होकर रह।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘प्रभञ्जन सेना प्रणो युधाजयन्त’, ‘अविता स्थानाम्’ इति ऋ० यजु० साम०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अप्रतिरथ ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Sole Hero

    Meaning

    O Brhaspati, commander of boundless forces, destroyer of destroyers, repelling the unfriendly forces, breaking down enemies, crushing the opponents, come by the chariot, destroy the negative forces and be the protector of our life, homes and cities.

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    Translation

    O Lord of the large army, slayer of evil forces, harassing the enemies, may you go around far and wide with your chariot. Routing the opponent armies and conquering the violent foes in battles, may you become protector of our chariots. (Yv. XVII.36)

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    Translation

    O Brihaspati, the master of grand army, you as slayer of wicked, throwing away our foemen, crushing enemies, and destroying them who create hostility with us, fly hither with your chariot and become the protector of our bodies.

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    Translation

    O the chief commander of the army, invade the enemy from all sides, killing the wicked and effacing the enemies, crushing the foes, and annihilating the adversaries, be the protector of our bodies on all sides.

    Footnote

    cf. Rig, 10.103.4.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१०३।४। यजु०१७।३६ और साम०-उ०९।३।२॥८−(बृहस्पते) हे बृहतां महतां पुरुषाणां रक्षक (परि) सर्वतः (दीय) दीङ् क्षये, छान्दसो दीर्घः। नाशय (रथेन) युद्धरथसमूहेन (रक्षोहाः) रक्षसां दुष्टानां हन्ता (अमित्रान्) अमेर्द्विषति चित्। उ०४।१७४। अम पीडने-इत्र, चित्। पीडकान्। शत्रून् (अपबाधमानः) निवारयन् सन् (प्रभञ्जन्) प्रकर्षेण मर्दयन् (शत्रून्) (प्रमृणन्) अतिशयेन मारयन् (अमित्रान्) (अस्माकम्) (एधि) भव (अविता) रक्षकः (तनूनाम्) शरीराणाम् ॥

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