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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - आर्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
    36

    वरु॑णं॒ त आ॑दि॒त्यव॑न्तमृच्छन्तु। ये मा॑ऽघा॒यव॑ ए॒तस्या॑ दि॒शोऽभि॒दासा॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वरु॑णम्। ते। आ॒दि॒त्यऽव॑न्तम्। ऋ॒च्छ॒न्तु॒। ये। मा॒। अ॒घ॒ऽयवः॑। ए॒तस्याः॑। दि॒शः। अ॒भि॒ऽदासा॑त् ॥१८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वरुणं त आदित्यवन्तमृच्छन्तु। ये माऽघायव एतस्या दिशोऽभिदासात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वरुणम्। ते। आदित्यऽवन्तम्। ऋच्छन्तु। ये। मा। अघऽयवः। एतस्याः। दिशः। अभिऽदासात् ॥१८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रक्षा के प्रयत्न का उपदेश।

    पदार्थ

    (ते) वे [दुष्ट] (आदित्यवन्तम्) प्रकाशमान गुणों के स्वामी (वरुणम्) सबमें उत्तम परमेश्वर की (ऋच्छन्तु) सेवा करें। (ये) जो (अघायवः) बुरा चीतनेवाले (मा) मुझे (एतस्याः) इस [बीचवाली] (दिशः) दिशा से (अभिदासात्) सताया करें ॥४॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान है॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(वरुणम्) सर्वोत्तमं परमेश्वरम् (आदित्यवन्तम्) प्रकाशमानगुणानां स्वामिनम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    निषता व निष्पापता

    पदार्थ

    १.(ये) = जो (अघायवः) = अशुभ को चाहनेवाले पापभाव (मा) = मुझे (एतस्याः दिश:) = इस दक्षिण पश्चिम के मध्यादि भाग से (अभिदासात्) = नष्ट करते हैं तो वे (आदित्यवन्तम्) = सब अच्छाइयों का आदान करनेवाली शुभ प्रवृत्तियों के साथ (वरुणम्) = पाप-निवारक प्रभु को (ऋच्छन्तु) = प्राप्त होकर नष्ट हो जाएँ। २. इस दक्षिण-पश्चिम के मध्यदिग्भाग से 'वरुण' प्रभु मेरा रक्षण कर रहे हैं। इधर से ये पापभाव मुझपर कैसे आक्रमण कर सकते हैं?

    भावार्थ

    दक्षिण-पश्चिम के मध्यदिग्भाग से कोई अशुभवृत्ति मुझपर आक्रमण नहीं कर सकती। इधर से 'वरुण' प्रभु मेरा रक्षण कर रहे हैं। वरुण-द्वेष-निवारण से सब बुराइयाँ दूर हो जाती हैं।

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    भाषार्थ

    (ये) जो (अघायवः) पापेच्छुक-हत्यारे (एतस्याः दिशः) इस दिशा से (मा) मेरा (अभिदासात्) क्षय करें (ते) वे (आदित्यवन्तम्) आदित्य रश्मियों सम्बन्धी (वरुणम्) मेघ के सदृश आनन्दरस बरसानेवाले परमेश्वर [के न्यायदण्ड] को (ऋच्छन्तु) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    [एतस्याः दिशः= सम्भवतः दक्षिण-पश्चिम की अवान्तर दिशा या दक्षिण दिशा।]

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    विषय

    रक्षा की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (ये मा अघायवः दक्षिणायाः दिश अभिदासात्) जो मेरे द्रोही दक्षिण दिशा से, या दायें से आक्रमण करें (ते) वे (रुद्रवन्तंसोमम्) रोदनकारी योद्धाओं के स्वामी सोम, उनके प्रेरक राजा को प्राप्त होकर (ऋच्छन्तु) विनाश को प्राप्त हों। इसी प्रकार (ये मा अघयव इत्यादि) वे उसी दिशा के आक्रमक लोग (आदित्यवन्तम् वरुणम्) आदित्य के समान तेजस्वी, चमचमाते अग्निमय अस्त्रों के स्वामी, (वरुणं) शत्रुवारक, वरुण नाम सेनापति को प्राप्त होकर (ऋच्छन्तु) नष्ट हो जांय।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवताः। १, ८ साम्न्यौ त्रिष्टुभौ, २-६ आर्ष्यनुटुभौ। ५ सम्राड्=स्वराड्। ७, ९, १०, प्राजापत्यास्त्रिष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Protection and Security

    Meaning

    To the dispensation of Varuna, lord of justice and wisdom, commanding the lazer beams of sun-rays, may they proceed in the course of justice who are of negative and destructive nature and treat and hurt me as an enemy, from this same southern direction.

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    Translation

    To the venerable Lord with the suns (of twelve months), may they go (for their destruction), who of sinful intent, invade me from this direction (middle of the south and the west).

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    Translation

    Let those......... from this region (South)............God whom all worships are due, incorporated with Aditya.

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    Translation

    The mischief-monger adversaries, coming from this mid-quarter, i.e., south-west, to vanquish us, may find their end, if they come face to face with our commander, capable of warding off all attacks of the enemy, with the huge energy, stored from the rays of the Sun.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(वरुणम्) सर्वोत्तमं परमेश्वरम् (आदित्यवन्तम्) प्रकाशमानगुणानां स्वामिनम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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