अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वाङ्गिराः
देवता - आकूतिः
छन्दः - पञ्चपदा विराडतिजगती
सूक्तम् - आकूति सूक्त
48
आकू॑तिं दे॒वीं सु॒भगां॑ पु॒रो द॑धे चि॒त्तस्य॑ मा॒ता सु॒हवा॑ नो अस्तु। यामा॒शामेमि॒ केव॑ली॒ सा मे॑ अस्तु वि॒देय॑मेनां॒ मन॑सि॒ प्रवि॑ष्टाम् ॥
स्वर सहित पद पाठआऽकू॑तिम्। दे॒वीम्। सु॒ऽभगा॑म्। पु॒रः। द॒धे॒। चि॒त्तस्य॑। मा॒ता।सु॒ऽहवा॑। नः॒। अ॒स्तु॒। याम्। आ॒ऽशाम्। ए॒मि॒। केव॑ली। सा। मे॒। अ॒स्तु॒। विदे॑यम्। ए॒ना॒म्। मन॑सि। प्रऽवि॑ष्टाम् ॥४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आकूतिं देवीं सुभगां पुरो दधे चित्तस्य माता सुहवा नो अस्तु। यामाशामेमि केवली सा मे अस्तु विदेयमेनां मनसि प्रविष्टाम् ॥
स्वर रहित पद पाठआऽकूतिम्। देवीम्। सुऽभगाम्। पुरः। दधे। चित्तस्य। माता।सुऽहवा। नः। अस्तु। याम्। आऽशाम्। एमि। केवली। सा। मे। अस्तु। विदेयम्। एनाम्। मनसि। प्रऽविष्टाम् ॥४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
बुद्धि बढ़ाने का उपदेश।
पदार्थ
(देवीम्) दिव्य गुणवाली, (सुभगाम्) बड़े ऐश्वर्यवाली, (आकूतिम्) संकल्प शक्ति को (पुरः) आगे (दधे) धरता हूँ, (चित्तस्य) चित्त [ज्ञान] की (माता) माता [जननी उत्पन्न करनेवाली] वह (नः) हमारे लिये (सुहवा) सहज में बुलाने योग्य (अस्तु) होवे। (याम्) जिस (आशाम्) आशा [कामना] को (एमि) मैं प्राप्त करूँ, (सा) वह [आशा] (मे) मेरे लिये (केवली) सेवनीय (अस्तु) होवे, (मनसि) मन में (प्रविष्टाम्) प्रवेश की हुई (एनाम्) इस [आशा] को (विदेयम्) मैं पाऊँ ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य दृढ़ संकल्पी होकर ज्ञान को बढ़ावे, जिससे वह जिस शुभ कर्म की आशा मन में करे, वह पूरी होवे ॥२॥
टिप्पणी
२−(आकूतिम्) अ० ३।२।३। आङ्+कूञ् शब्दे−क्तिन्। संकल्पशक्तिम् (देवीम्) दिव्यगुणवतीम् (सुभगाम्) बह्वैश्वर्ययुक्ताम् (पुरः) अग्रे (दधे) धारयामि (चित्तस्य) मनोविचारस्य। ज्ञानस्य (माता) निर्मात्री जननी (सुहवा) सुष्ठुं दातव्या (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) भवतु (याम्) (आशाम्) आ समन्तादश्नुते-अच्। दीर्घाकाङ्क्षाम्। कामनाम् (एमि) प्राप्नोमि (केवली) अ० ३।२५।४। केवृ सेवने-कलच्, ङीप्। सेवनीया। असाधारणी (सा) आशा (मे) मह्यम् (अस्तु) (विदेयम्) विद्लृ लाभे−लिङि छान्दसं रूपम्। विन्देयम्। प्राप्नुयाम् (एनाम्) आशाम् (मनसि) हृदये (प्रविष्टाम्) निहिताम् ॥
विषय
आकृति
पदार्थ
१. संसार में सब कार्य संकल्पशक्ति से ही सिद्ध होते हैं। वेदज्ञान भी संकल्पशक्ति से ही प्राप्त होता है 'काम्यो हि वेदाधिगम:' कामना होने पर ही वेदज्ञान होता है, अत: मैं (आकूतिम्) = इस संकल्पशक्ति को (पुर:-दधे) = अपने जीवन में प्रथम स्थान में स्थापित करता हूँ-इसे सर्वाधिक महत्त्व देता हूँ। यह (देवीम्) = [व्यवहार] सब व्यवहारों को साधिका है, (सुभगाम्) = उत्तम ऐश्वर्य को प्रास करानेवाली है। यह (चित्तस्य) = माता-चित्त का निर्माण करनेवाली है। संकल्प होने पर मनुष्य उस-उस कार्य को पूरे मन [चित्त] से करता है। यह आकृति (न:) = हमारे लिए सहवा (अस्तु) = शोभन तथा पुकारने योग्य हो। हम इसके लिए ही प्रभु से आराधना करें। प्रभु हमें शिवसंकल्पवाला बनाए । २. (याम् आशाम् एमि) = जिस भी अभिलाषा को मैं प्राप्त होऊँ, (स:) = वह (मे) = मेरी (केवली) = अकेली शुद्ध-अन्य इच्छाओं से अमिश्रित (अस्तु) = हो। संकल्प में मन एक ही वस्तु की और एकाग्र होता है। वस्तुत: यह संकल्प इस एकाग्रता के कारण ही हमें सफल बनाता है। इस संकल्प के द्वारा (मनसि प्रविष्टाम्) = मन में प्रविष्ट हुई-हुई (एनाम्) = इस आशा को (विदेयम्) = मैं प्राप्त करूँ। यह संकल्प मुझे इस आशा को कार्यान्वित करने में [मूर्तरूप देने में] समर्थ करे।
भावार्थ
संकल्पशक्ति हमें अपनी सब आशाओं को सफल करने में समर्थ करती है। यह हमारे सब व्यवहारों को सिद्ध करती है [देवी]। हमें सौभाग्यसम्पन्न बनाती है [सुभगा]।
भाषार्थ
(सुभगाम्) सौभाग्यप्रदा, (देवीम् आकूतिम्) दिव्य संकल्पशक्ति को (पुरो दधे) मैं अपने सन्मुख रखता हूँ, अपना लक्ष्य बनाता हूँ। यह दिव्य संकल्पशक्ति (चित्तस्य माता) स्वस्थ तथा सबल चित्त का निर्माण करती है। यह (नः) हमारे लिये (सुहवा अस्तु) सुगमता से आह्वान योग्य हो जाय। (याम्) जिस (आशाम्) इच्छा को (एमि) मैं प्राप्त करूँ, (सा) वह इच्छा (मे) मेरी (केवली) सेवनीया (अस्तु) हो। (मनसि प्रविष्टाम्) मन में रहनेवाली (एनाम्) इस दिव्य संकल्पशक्ति को (विदेयम्) मैं प्राप्त करूँ।
टिप्पणी
[भग= ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य। सुभगा= इन श्रेष्ठ भागों की दात्री। आशाम्=आङः शासु इच्छायाम्। केवली= केवृ सेवने तथा केवली=एक काल में एक ही इच्छा होनी चाहिये, नाना नहीं। युगपत् उत्पन्न नाना इच्छाएँ सफल नहीं हो सकतीं।]
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1113
ओ३म् आकू॑तिं दे॒वीं सु॒भगां॑ पु॒रो द॑धे चि॒त्तस्य॑ मा॒ता सु॒हवा॑ नो अस्तु।
यामा॒शामेमि॒ केव॑ली॒ सा मे॑ अस्तु वि॒देय॑मेनां॒ मन॑सि॒ प्रवि॑ष्टाम् ॥
अथर्ववेद - काण्ड 19, सूक्त 4, मन्त्र 2
जाना नहीं जीवन का
अभिप्राय मेरा क्या है
वशीभूत राग-भय से
आशय छुपा हुआ है
जाना नहीं जीवन का
जैसा असत्य-भाषण
वैसा बना है चिन्तन
कलुषित मनस्-उद्योग में
कृत्रिम बना जीवन-क्रम
अभिप्राय सत्य-सत्त्व का
छूटा ही जा रहा है
जाना नहीं जीवन का
अभिप्राय मेरा क्या है
जब छूटी ये अवस्था
इस आत्म-वञ्चना की
दुर्भगा की वृत्ति त्यागी
वृत्ति जगी सुभगा की
अब लज्जा-भय भी छूटा
सत्य-ज्ञान समा रहा है
जाना नहीं जीवन का
अभिप्राय मेरा क्या है
फिर आज से बना दूँ
सच्चा सुभग ये जीवन
सत्य-ज्ञान होवे उद्बुद्ध
मानस का हो उद्दीपन
आकूति चित्त की माता
उसे मन पुकार रहा है
जाना नहीं जीवन का
अभिप्राय मेरा क्या है
है वाणी वैखरी कर
तू पुकार आकूति की
मनोराज्य का दुराशय
कर दूर ऋजु विधि से
आशय बना सङ्कल्पित
जीवन जगा रहा है
जाना नहीं जीवन का
अभिप्राय मेरा क्या है
अब कोई भी शुभेच्छा
चलूँ सही दिशा में लेकर
शुद्ध रूप होवे जिसका
हो प्रकाश का अन्वेषण
तब गौण इच्छाओं का
आधार कहाँ रहा है ?
जाना नहीं जीवन का
अभिप्राय मेरा क्या है
वशीभूत राग-भय से
आशय छुपा हुआ है
जाना नहीं जीवन का
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :- 12.11.2021 12.40 pm
राग :- पीलू
गायन समय दिन का तीसरा प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा
शीर्षक :- शुभ एवं बलवान संकल्प 🎧686वां भजन
*तर्ज :- *
718-0119
अभिप्राय = आशय लक्ष्य उद्देश्य
आशय = अभिप्राय उद्देश्य इच्छा
कलुषित = मलिन गंदा
उद्योग = व्यवसाय
वंचना = ठगी धूर्तता
सुभगा = उत्तम ऐश्वर्य विषयक
दुर्भगा = आसुरी वृत्ति
सुभग = सौभाग्यशाली
उद्बुद्ध = पूर्ण विकसित
उद्दीपन = प्रकाश करना
आकूति = उद्देश्य अभिप्राय इच्छा
वैखरी = अंतःकरण से निकली
दुराशय = बुरे अभिप्राय
ऋजु = सरल सुगम
अन्वेषण = खोज
गौण = कम महत्व का, अधीनस्थ
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
शुभ एवं बलवान संकल्प
बहुत बार मुझे स्वयं ज्ञात नहीं होता कि मेरा अभिप्राय क्या है। मैं अपने आन्तरिक अभिप्राय को स्पष्ट सामने लाने में समर्थ नहीं होता। असत्य भाषण, असत्य चिन्तन करते नाना भयों या रागों के वशीभूत होते हुए मेरा मानसिक व्यापार इतना कलुषित और कृत्रिम हो गया है कि मैं उसकी गड़बड़ में अपने वास्तविक अभिप्राय को ही खो देता हूं। अपने सच्चे आशय को दूसरों से छुपाते- छुपाते वह मुझसे भी छुप जाता है। परन्तु मैं अब इस आत्मवंचना की अवस्था को त्यागता हूं और आज से सदा अपनी 'आकूति' यानी अभिप्राय को स्पष्ट सामने लाकर रखूंगा। मन की इच्छाएं अभिलाषाएं जब पूरी होती हैं,
दुर्भगा तथा आसुरी होती हैं। तभी हम प्रायः इन्हें छुपाते हैं जब यह सुभगा और देवी होती हैं, तब उत्तम ऐश्वर्य की इच्छा या सबके भले की कल्याणी इच्छा होती है। तब भी यदि हम इन्हें छुपाते हैं तो केवल निर्बलता के कारण या किन्हीं झूठे भय वह लज्जा के कारण ही ऐसा करते हैं। अतः जब मेरी 'आकूति' सुभगा और देवी है तो मैं क्यों डरूं? क्यों छिपूं? मैं तो अब इसे सामने स्पष्ट रखता हूं।
मैं आज से अपने जीवन को इतना सच्चा मानता हूं अपने मानसिक क्षेत्र को सत्य-ज्ञान के प्रकाश से ऐसा प्रकाशित रखता हूं कि अब मैं मन में घुसी हुई अपने इस अभिप्राय देवता को हे प्रभु! जब चाहूं तब तुरन्त जान सकूं, पा सकू़ं, निकाल सकूं , मन (अंतःकरण) का जो निचला चित्त नामक भाग है, जहां की विचार अभिप्राय सुप्त रूप में पड़े रहते हैं या यूं कहना चाहिए कि जो चित्त इनका बना हुआ है (जिस चित्त की माता, अभिप्राय है) उस स्थान से जब मैं चाहूं तभी अपने अभिप्राय को पुकार कर ला सकूं। आकूति मेरे लिए सदा सुहवा हो, यानी कि सुगमता से पुकारने योग्य हो। जब आवश्यकता हो तब मैं उसे पुकार कर वैखरी वाणी के रूप में लाकर खड़ा कर सकूं।
हे प्रभु !अब मेरे मनोराज्य की सब अव्यवस्था गड़बड़ दूर कर दो। मैं जब जिस आशा वह इच्छा को लेकर चलूं जिस दिशा में चलूं, तब वही अकेली आशा मेरे सामने रहे शुद्ध -रूप में वही प्रकाशमान रहे और सब गौण विचार गड़बड़ ना मचाते हुए यथा स्थान पीछे रहें।
यदि ऐसी अवस्था स्थापित हो जाएगी तो मेरी सब आकूतियां (अभिप्राय) संकल्प शक्ति बन जाएंगी और वे पूर्ण व सफल हुआ करेंगीं।
विषय
वाणी और आकूति का वर्णन।
भावार्थ
(सुभगाम्) उत्तम ऐश्वर्य या समृद्धि से युक्त, (देवीं) सर्व गूढतत्वों को दर्शाने और प्रकाशित करने वाली, (आकूतिम्) आकूति मन की अभिप्रायज्ञापिका, वाक्यतात्पर्यरूप शक्ति को मैं (पुरः दधे) साक्षात् धारण करता हू, उसको ज्ञान करता हूं। वह (चित्तस्य) चित्त, ज्ञान करने के साधन रूप अन्तःकरण की (माता) बनानेवाली स्वयं (सुहवा) उत्तमरीति से ज्ञान करने वाली (नः) हमें (अस्तु) प्राप्त हो। मैं (याम्) जिस (आशाम्) आशा या कामना को (एमि) प्राप्त करूं, चाहूं (सा) वह (मे) मेरी (केवली) अवश्य शुद्धरूप से (अन्तु) पूर्ण हो। और (एनाम्) इस ‘आकूति’ नामक अन्तःकरण की विशेष, प्रबल धारणावती, साक्षात्कारशक्ति को (मनसि) ज्ञान या मनन करने हारे आत्मा या मन में (प्रविष्टाम्) भीतर गुप्त रूप से विद्यमान को भी मैं (विदेयम्) जान लूं, उसका साक्षात् करूं।
टिप्पणी
(प्र०) ‘देवीं मनसः’ (द्वि०) ‘यज्ञस्य माता सुहवो मे अस्तु’ (तृ० च०) ‘यदिच्छामि मनसा सकामो विदेयं मेनत् हृदये निविष्टम्’। इति तै० ब्रा०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवता। १ पञ्चपदा विराड् अतिजगती, २ जगती ३,४ त्रिष्टुभौ। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Akuti
Meaning
I place and honour Akuti, Sankalpa Shakti, or thought and intention, first and foremost of all creative process. Glorious companion of the dawn of creation, it is the mother of mind and memory, and, I pray, it may readily inspire me at will. In whatever direction I move with full concentration, let it be mine exclusively, without distraction, and I may too value and honour it as it arises in the mind.
Translation
I place foremost the determination, divine and fortunate; the mother of intention, may she be easy to invoke for us. With whichever expectation I move, may that be exclusively mine. May I gain it, which has entered my heart.
Translation
I the performer of Yajna (in performing Vedic rites and rituals) set first the intention which is maker or mother of thought and let it be easily expressible for us. Whatever desire I cherish may be mine own. May we be aware of it which possesses my mind.
Translation
I keep, in the fore-front, the secret-revealing will-power, blessed with for¬ tune, the mother of all knowledge. May it be at our beck and call. Whatever intent I set before me, may it be my soie target, so that I may gain it that has taken possession of my mind.
Footnote
It is the strong wili-power that enables a person to achieve his set purpose.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(आकूतिम्) अ० ३।२।३। आङ्+कूञ् शब्दे−क्तिन्। संकल्पशक्तिम् (देवीम्) दिव्यगुणवतीम् (सुभगाम्) बह्वैश्वर्ययुक्ताम् (पुरः) अग्रे (दधे) धारयामि (चित्तस्य) मनोविचारस्य। ज्ञानस्य (माता) निर्मात्री जननी (सुहवा) सुष्ठुं दातव्या (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) भवतु (याम्) (आशाम्) आ समन्तादश्नुते-अच्। दीर्घाकाङ्क्षाम्। कामनाम् (एमि) प्राप्नोमि (केवली) अ० ३।२५।४। केवृ सेवने-कलच्, ङीप्। सेवनीया। असाधारणी (सा) आशा (मे) मह्यम् (अस्तु) (विदेयम्) विद्लृ लाभे−लिङि छान्दसं रूपम्। विन्देयम्। प्राप्नुयाम् (एनाम्) आशाम् (मनसि) हृदये (प्रविष्टाम्) निहिताम् ॥
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