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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 46/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रजापतिः देवता - अस्तृतमणिः छन्दः - षट्पदा भुरिक्शक्वरी सूक्तम् - अस्तृतमणि सूक्त
    40

    ऊ॒र्ध्वस्ति॑ष्ठतु॒ रक्ष॒न्नप्र॑माद॒मस्तृ॑ते॒मं मा त्वा॑ दभन्प॒णयो॑ यातु॒धानाः॑। इन्द्र॑ इव॒ दस्यू॒नव॑ धूनुष्व पृतन्य॒तः सर्वा॒ञ्छत्रू॒न्वि ष॑ह॒स्वास्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वः। ति॒ष्ठ॒तु॒। रक्ष॑न्। अप्र॑ऽमादम्। अस्तृ॑तः। इ॒मम्। मा। त्वा॒। द॒भ॒न्। प॒णयः॑। या॒तु॒ऽधानाः॑। इन्द्रः॑ऽइव। दस्यू॑न्‌। अव॑। धू॒नू॒ष्व॒। पृ॒त॒न्य॒तः। सर्वा॑न्। शत्रू॑न्। वि। स॒ह॒स्व॒। अस्तृ॑तः। त्वा॒। अ॒भि। र॒क्ष॒तु॒ ॥४६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वस्तिष्ठतु रक्षन्नप्रमादमस्तृतेमं मा त्वा दभन्पणयो यातुधानाः। इन्द्र इव दस्यूनव धूनुष्व पृतन्यतः सर्वाञ्छत्रून्वि षहस्वास्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वः। तिष्ठतु। रक्षन्। अप्रऽमादम्। अस्तृतः। इमम्। मा। त्वा। दभन्। पणयः। यातुऽधानाः। इन्द्रःऽइव। दस्यून्‌। अव। धूनूष्व। पृतन्यतः। सर्वान्। शत्रून्। वि। सहस्व। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 46; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    विजय की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (अस्तृतः) अटूट [नियम] (अप्रमादम्) बिना भूल (रक्षन्) रक्षा करता हुआ (ऊर्ध्वः) ऊँचा (तिष्ठतु) ठहरे, (इमम् त्वा) इस तुझको (पणयः) कुव्यवहारी, (यातुधानाः) पीड़ा देनेवाले लोग (मा दभन्) न दबावें। (इन्द्रः इव) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् पुरुष] के समान (दस्यून्) लुटेरों को (अव धूनुष्व) हिला दे, और (पृतन्यतः) सेना चढ़ानेवाले (सर्वान्) सब (शत्रून्) शत्रुओं को (वि सहस्व) हरा दे, (अस्तृतः) अटूट [नियम] (त्वा) तेरी (अभि) सब ओर से (रक्षतु) रक्षा करे ॥२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य नियम के साथ प्रमाद छोड़कर निरन्तर उन्नति करते हैं, वे ही शत्रुओं पर विजय पाते हैं ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(ऊर्ध्वः) उन्नतः (तिष्ठतु) वर्तताम् (रक्षन्) पालयन् (अप्रमादम्) अनवधानेन विना। सावधानम् (अस्तृतः) म० १। अबाधितो नियमः (इमम्) उपस्थितम् (अस्तृतेमम्) अस्तृतः+इमम्। इति पदपाठे सति छान्दसः सन्धिः। अस्तृत इमम् (त्वा) त्वाम् (मा दभन्) मा हिंसन्तु (पणयः) कुव्यवहारिणः (यातुधानाः) पीडाप्रदाः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (इव) यथा (दस्यून्) उपक्षपयितॄन् तस्करान् (अव धूनुष्व) धूञ् कम्पने-लोट्। अवाङ्मुखान् कम्पय (पृतन्यतः) अ० १९।३२।१०। सेनामिच्छतः युयुत्सून् (सर्वान्) शत्रून्। रिपून् (वि) विविधम् (सहस्व) अभिभव। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    भाषार्थ

    (अस्तृत) हे अपराजित महाशासक! [मन्त्र १ की व्याख्या] आपके साथ सन्धि-प्राप्त यह माण्डलिक राजा, (अप्रमादम्) विना प्रमाद किये, (रक्षन्) निज प्रजा की रक्षा करता हुआ (ऊर्ध्वः तिष्ठतु) अपनी उच्च स्थिति में स्थित रहे। परस्पर सन्धि हो जाने पर (इमम्) इस माण्डलिक राजा को, (च) और (त्वाम्) आप महाशासक को (पणयः) कुव्यवहारी तथा (यातुधानाः) यातना देनेवाले शत्रु (मा दभन्) दबा न सकें। हे माण्डलिक राजन्! आप (इन्द्र इव) महाशासक सम्राट् के सदृश (दस्यून्) उपक्षयकारी लुटेरों को, (पृतन्यतः) सेना द्वारा आक्रमण करनेवालों को, तथा (सर्वान् शत्रून्) सब शत्रुओं को (अवधूनुष्व) कम्पा दें, (वि सहस्व) और पराजित कर दें। (अस्तृतः) महाशासक सम्राट् (त्वा) आपको (अभि) सब ओर से (रक्षतु) सुरक्षित करे।

    टिप्पणी

    [इन्द्रः="इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजुः० ८.३७), अर्थात् इन्द्र है सम्राट्, और वरुण है राजा ।]

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    विषय

    अस्तृतमणि की ऊर्ध्वगति

    पदार्थ

    १. हे (अस्तृत) = अहिंसित वीर्यमणे! आप (इमम्) = इस-आपको अपने में बाँधनेवाले पुरुष को (प्रमादं रक्षन्) = प्रमादरहित होकर रक्षित करते हुए (ऊर्ध्वः तिष्ठतु) = ऊपर स्थित हों। शरीर में इस वीर्य की ऊर्ध्वगति होने पर ही सब प्रकार का रक्षण प्राप्त होता है। हे वीर्य! (यातुधाना:) = पीड़ा का आधान करनेवाले (पणय:) = [An impious man] अपवित्र वृत्तिवाले पुरुष (त्वा मा दभन्) = तुझे हिंसित करनेवाले न हों। वस्तुतः सदा औरों को पीड़ित करनेवाले, अपवित्र आचरणवाले लोग वीर्यरक्षण नहीं कर पाते। २. (इन्द्रः इव दस्यून) = एक जितेन्द्रिय पुरुष जैसे दास्यव वृत्तियों को दूर करता है, इसी प्रकार तू (पृतन्यत:) = उपद्रव-सैन्य से हमपर आक्रमण करनेवाले इन रोगों को (अवधूनुष्य) = सुदूर कम्पित कर। (सर्वान् शत्रून्) = सब शत्रुओं को (विषहस्व) = पराभूत कर। हे पुरुष! तू जितेन्द्रिय बन । (त्वा) = तुझ इन्द्र को यह (अस्तृत:) = अहिंसित वीर्यमणि (रक्षतु) = रक्षित करे।

    भावार्थ

    शरीर में बीर्यरक्षा करने पर हम सब रक्षित वीर्य के द्वारा रक्षित होते हैं।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Astrta Mani

    Meaning

    May Astrta stand high in power, relentlessly protecting the beneficiary. O Astrta, O wearer of Astrta, let no thieves, no selfish bargainers, no demonic forces deceive, subdue and destroy you. Like Indra, shake down all the negative forces, enemies and the challengers, fight out and destroy them all. O beneficiary, may Astrta protect and defend you all round.

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    Translation

    O unsubdued (blessing), may you stand up to defend this person with ceaseless care. May not the crafty merchants harm you. Just as the resplendent army chief destroys the robbers, so may you shake off the invaders. May you overwhelm all your enemies; may the unsubdued protect you all around.

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    Translation

    Let this stand over all-protecting you, O man, without failure. Let not the diseases roaming hither and thither over-come it, Let this conquer all the maligning weak- nesses as Indra, the sun shakes the clouds. Let this invincible one guard you.

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    Translation

    O Invincible person, letest thou, being constantly vigilant protect this king and thus stand above all (i.e., in his eyes). Let not the deceitful mischiefmongers suppress thee. Letest thou crush the usurpers of other’s rights like Indra, the evil-destroyer. Letest thou thoroughly smash all the fighting forces of the enemy come against thee. May the unconquerable commander guard thee on all sides.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(ऊर्ध्वः) उन्नतः (तिष्ठतु) वर्तताम् (रक्षन्) पालयन् (अप्रमादम्) अनवधानेन विना। सावधानम् (अस्तृतः) म० १। अबाधितो नियमः (इमम्) उपस्थितम् (अस्तृतेमम्) अस्तृतः+इमम्। इति पदपाठे सति छान्दसः सन्धिः। अस्तृत इमम् (त्वा) त्वाम् (मा दभन्) मा हिंसन्तु (पणयः) कुव्यवहारिणः (यातुधानाः) पीडाप्रदाः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (इव) यथा (दस्यून्) उपक्षपयितॄन् तस्करान् (अव धूनुष्व) धूञ् कम्पने-लोट्। अवाङ्मुखान् कम्पय (पृतन्यतः) अ० १९।३२।१०। सेनामिच्छतः युयुत्सून् (सर्वान्) शत्रून्। रिपून् (वि) विविधम् (सहस्व) अभिभव। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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