अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 46/ मन्त्र 5
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - अस्तृतमणिः
छन्दः - पञ्चपदातिजगती
सूक्तम् - अस्तृतमणि सूक्त
45
अ॒स्मिन्म॒णावेक॑शतं वी॒र्याणि स॒हस्रं॑ प्रा॒णा अ॑स्मि॒न्नस्तृ॑ते। व्या॒घ्रः शत्रू॑न॒भि ति॑ष्ठ॒ सर्वा॒न्यस्त्वा॑ पृतन्या॒दध॑रः॒ सो अ॒स्त्वस्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥
स्वर सहित पद पाठअस्मि॑न्। म॒णौ। एक॑ऽशतम्। वी॒र्या᳡णि। स॒हस्र॑म्। प्रा॒णाः। अ॒स्मि॒न्। अस्तृ॑ते। व्या॒घ्रः। शत्रू॑न्। अ॒भि। ति॒ष्ठ॒। सर्वा॑न्। यः। त्वा॒। पृ॒त॒न्यात्। अध॑रः। सः। अ॒स्तु॒। अस्तृ॑तः। त्वा॒। अ॒भि। र॒क्ष॒तु॒ ॥४६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मिन्मणावेकशतं वीर्याणि सहस्रं प्राणा अस्मिन्नस्तृते। व्याघ्रः शत्रूनभि तिष्ठ सर्वान्यस्त्वा पृतन्यादधरः सो अस्त्वस्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मिन्। मणौ। एकऽशतम्। वीर्याणि। सहस्रम्। प्राणाः। अस्मिन्। अस्तृते। व्याघ्रः। शत्रून्। अभि। तिष्ठ। सर्वान्। यः। त्वा। पृतन्यात्। अधरः। सः। अस्तु। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विजय की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(अस्मिन्) इस, (अस्मिन्) इस ही (मणौ) प्रशंसनीय (अस्तृते) अटूट [नियम] में (एकशतम्) एकसौ एक [असंख्य] (वीर्याणि) वीरताएँ और (सहस्रम्) सहस्र [बहुत ही] (प्राणाः) जीवनसामर्थ्य हैं। (व्याघ्रः) बाघ तू (सर्वान्) सब (शत्रून्) शत्रुओं पर (अभितिष्ठ) धावा कर, (यः) जो (त्वा) तुझ पर (पृतन्यात्) सेना चढ़ावें, (सः) वह (अधरः) नीचा (अस्तु) होवे, (अस्तृतः) अटूट [नियम] (त्वा) तेरी (अभि) सब ओर से (रक्षतु) रक्षा करे ॥५॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर के अटूट नियम पर चल कर शत्रुओं को नीचा करें। और जैसे व्याघ्र सूँघने से आखेट को जान लेता है, वैसे ही मनुष्य वैरियों को पकड़ने में तीव्रबुद्धि होवें ॥५॥
टिप्पणी
५−(अस्मिन्) पूर्वनिर्दिष्टे (मणौ) प्रशंसनीये (एकशतम्) एकोत्तरं शतम्। असंख्यानि (वीर्याणि) वीरकर्माणि (सहस्रम्) बहवः (प्राणाः) जीवनसामर्थ्यानि (अस्मिन्) वीप्सायां द्विर्वचनम्। अस्मिन्नेव (अस्तृते) म० १। अहिंसिते नियमे (व्याघ्रः) वि+आङ्+घ्रा गन्धोपादाने-क। सिंहो व्याघ्र इति पूजायाम्, व्याघ्रो व्याघ्राणाद् व्यादाय हन्तीति वा-निरु० ३।१८। व्याघ्र इव शत्रुगन्धं विशेषेण आजिघ्रन् (शत्रून्) रिपून् (अभितिष्ठ) आक्रमेण प्राप्नुहि। अभिभव (सर्वान्) समस्तान् (यः) शत्रुः (त्वा) (पृतन्यात्) योद्धुमिच्छेत् (अधरः) निकृष्टः (सः) (अस्तु) अन्यत् पूर्ववत् ॥
भाषार्थ
(अस्मिन् मणौ) इस शिरोमणि (अस्तृते) अपराजित महाशासक सम्राट् में (एकशतम्) एकसौ या एकसौ एक (वीर्याणि) सामर्थ्य हैं, (अस्मिन्) इसके अधिकार में (सहस्रम्) हजारों प्रकार की (प्राणाः) जीवनीय सामग्रियाँ हैं। हे माण्डलिक राजन्! आप (व्याघ्रः) व्याघ्र सदृश (सर्वान्) सब (शत्रून) शत्रुओं पर (अभितिष्ठ) धावा कीजिए। (यः) जो शत्रु (पृतन्यात्) सेनाओं द्वारा आपका मुकाबिला करना चाहे, (सः) वह (अधरः अस्तु) नीच गति को प्राप्त हो। (अस्तृतः) अपराजित महाशासक सम्राट् (त्वा) आपको (अभि) सब ओर से (रक्षतु) सुरक्षित करे।
टिप्पणी
[प्राणः=“कोशः कोशवतः प्राणाः, प्राणाः प्राणा न भूपतेः”, (हितोपदेश २.९२), अर्थात् भूपति के लिए कोश आदि प्राणभूत हैं, श्वास-प्रश्वास प्राण नहीं। तथा—“अन्नं वै प्राणिनां प्राणः”, अर्थात् प्राणियों के लिए प्राण हैं—अन्न। “एकशतम् तथा सहस्रम्” बहुसंख्या के सूचक हैं।]
विषय
एकशतं वीर्याणि
पदार्थ
१. (अस्मिन् मणौ) = इस अस्तृतमणि [वीर्य] में (एकशतं वीर्याणि) = एक सौ एक वीर्य हैं। ये वीर्य-कण ही [एकशतं मृत्यवः] एक सौ एक रोगों से बचाते हैं। (अस्मिन् अस्तुते) = इस अहिंसित वीर्यमणि में (सहस्त्रं प्राणा:) = हज़ारों प्राणशक्तियाँ हैं। २. हे अस्तृत ! (व्याघ्र:) = जैसे व्यान खरगोश आदि को समाप्त कर देता है, इसीप्रकार तू (सर्वान् शत्रून् अभितिष्ठ) = सब शत्रुओं को आक्रान्त करनेवाला हो। (य:) = जो रोगरूप शनु (त्वा) = तुझपर (पृतन्यात्) = उपद्रव-सैन्य से आक्रमण करे, (स:) = वह (अधरः अस्त) = पाँव तले रौंदा जाए-कुचला जाए। हे जीव! (अस्तृतः) = यह अहिंसित वीर्यमणि (त्वा अभिरक्षतु) = तेरा सब ओर से रक्षण करे।
भावार्थ
अस्तृत-[वीर्य]-मणि एक सौ एक रोगों को अपने एक सौ एक वीयर्यों से कम्पित करके दूर भगाती है। इसमें अनन्त प्राणशक्ति है। यह रोगों को ऐसे कुचल देती है, जैसे शेर खरगोश को। रोगों को कुचलकर यह हमारा रक्षण करती है।
विषय
अस्तृन नाम वीर पुरुष की नियुक्ति।
भावार्थ
(अस्मिन् मणौ) इस मणि अर्थात् शिरोमणि एवं शत्रुओं को स्तम्भन करने में समर्थ पुरुष में (एकशतं वीर्याणि) एकसौ एक या सैकड़ों वीर्य, वीर कर्म करने के सामर्थ्य हैं। और (अस्मिन् अस्तृते) इस अखण्ड, वीर पुरुष में (सहस्रं प्राणाः) सहस्र प्राण हैं अर्थात् हज़ारों प्राणियों के जीवित रखने की सामर्थ्य है या हज़ारों प्राणियों के बराबर कार्य करने का बल है। हे राजन् या वीर पुरुष ! तू (व्याघ्रः) व्याघ्र के समान शूरवीर होकर (सर्वान् शत्रून्) समस्त शत्रूओं पर (अभितिष्ठ) आक्रमण कर और (यः) जो (त्वा) तुझपर (पृतन्यात्) सेना द्वारा आक्रमण करे (सः) वह ही (अधरः अस्तु) तेरे नीचे ना पड़े। ऐसे अवसर में (अस्तृतः स्वा अभि रक्षतु) ‘अस्तृत’ अखण्डनीय, वीर पुरुष तेरी रक्षा करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्ऋषिः। अस्तृतमणिर्देवता। १ पञ्चपदा मध्येज्योतिष्मती त्रिष्टुप्। २ षट्पदा भुरिक् शक्करी। ३, ७ पञ्चपदे पथ्यापंक्ती। १। ४ चतुष्पदा। ५ पञ्चपदा च अतिजगत्यौ। ६ पञ्चपदा उष्णिग्गर्भा विराड् जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Astrta Mani
Meaning
In this jewel gift of immense power and value, in the Astrta are vested a hundred forms of strength and valour, a thousand pranic energies. O man-tiger, wearer of Astrta, challenge and fight all the enemies. Whoever fights against you must fall down. May Astrta protect you all round.
Translation
A hundred and one powers and a thousands lives are there in this unsubdued blessing. Like a tiger, attack all your enemies. Whoso invades you, may he fall below; may the unsubdued protect you all around.
Translation
In this invincible stone these remain (for applier) hundred kinds of power and thousands vitalities rest in it. O man, you like a liger over-power all your debilities and the force which malign you must go down and let this invincible one guard you.
Translation
Hundred: and one are the powers in this brave person, who is the best of all warriors. Thousand-fold is the force of vital breaths in this invincible person. He stands like a tiger amongst the force subduing them all. May he, whoever comes with armies to attack thee, be laid low. Let the unconquerable commander fully protect thee.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(अस्मिन्) पूर्वनिर्दिष्टे (मणौ) प्रशंसनीये (एकशतम्) एकोत्तरं शतम्। असंख्यानि (वीर्याणि) वीरकर्माणि (सहस्रम्) बहवः (प्राणाः) जीवनसामर्थ्यानि (अस्मिन्) वीप्सायां द्विर्वचनम्। अस्मिन्नेव (अस्तृते) म० १। अहिंसिते नियमे (व्याघ्रः) वि+आङ्+घ्रा गन्धोपादाने-क। सिंहो व्याघ्र इति पूजायाम्, व्याघ्रो व्याघ्राणाद् व्यादाय हन्तीति वा-निरु० ३।१८। व्याघ्र इव शत्रुगन्धं विशेषेण आजिघ्रन् (शत्रून्) रिपून् (अभितिष्ठ) आक्रमेण प्राप्नुहि। अभिभव (सर्वान्) समस्तान् (यः) शत्रुः (त्वा) (पृतन्यात्) योद्धुमिच्छेत् (अधरः) निकृष्टः (सः) (अस्तु) अन्यत् पूर्ववत् ॥
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