अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
ऋषिः - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - त्रिपदापरोष्णिक्
सूक्तम् - श्रेयः प्राप्ति सूक्त
63
प्रति॒ तम॒भि च॑र॒ यो ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। आ॑प्नु॒हि श्रेयां॑स॒मति॑ स॒मं क्रा॑म ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । तम् । अ॒भि । च॒र॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । आ॒प्नु॒हि । श्रेयां॑सम् । अति॑ । स॒मम् । क्रा॒म॒ ॥११.३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति तमभि चर यो ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति । तम् । अभि । चर । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । आप्नुहि । श्रेयांसम् । अति । समम् । क्राम ॥११.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पुरुषार्थ का उपदेश।
पदार्थ
[हे राजन् !] (तम् प्रति) उस [दुराचारी पुरुष] की ओर (अभिचर) चढ़ाई कर, (यः) जो (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि) वैर करता है और (यम्) जिससे (वयम्) हम (द्विष्मः) अप्रीति करते हैं। (श्रेयांसम्) अधिक गुणी [परमेश्वर वा मनुष्य] को (आप्नुहि) तू प्राप्त कर, (समम्) तुल्यबलवाले [मनुष्य] से (अति=अतीत्य) बढ़कर (क्राम) पद आगे बढ़ा ॥३॥
भावार्थ
जो छली कपटी धर्मात्माओं से अप्रीति करें और जिन दुष्कर्मियों से धर्मात्मा लोग घृणा करते हों, राजा उन दुष्टों को वश में करके दण्ड देवे ॥ २–सब मनुष्य शारीरिक और मानसिक रोगों को हटाकर सत्य धर्म में प्रवृत्त हों और प्रयत्नपूर्वक सदैव उन्नति करें ॥३॥
टिप्पणी
३–प्रति। अभिलक्ष्य। अभि+चर। अभिभव। नाशय। यः। दुराचारी पुरुषः। अस्मान्। धर्मचारिणः। द्वेष्टि। द्विष अप्रीतौ–अदादित्वात् शपो लुक्। अप्रीत्वा गृह्णाति। जिघांसति। द्विष्मः। अप्रीत्या गृह्णीमः। अन्यद् गतम् ॥
विषय
काम-विध्वंस
पदार्थ
१. (यः) = जो (अस्मान् द्वेष्टि) = हमसे अप्रीति करता है और (यं वयं द्विष्मः) = जिसे हम नहीं चाहते (तम् प्रति) = उसकी ओर (अभिचर) = आक्रमण करनेवाला हो। प्रभु जीव से कहते हैं कि काम अर्थात् बुत्र ज्ञान का नाश करके मनुष्य को मुझसे दूर करता है। इसप्रकार यह कामदेव 'महादेव' का शत्रु है। महादेव की नेत्र-ज्योति से इसके भस्म होने का उल्लेख है। कामदेव महादेव को नहीं चाहता और महादेव को कामदेव अभिप्रेत नहीं। प्रभु का सखा बननेवाले जीव का यह कर्तव्य है कि वह काम पर आक्रमण कर उसे पराभूत करे। इसके लिए चाहिए यह कि यह (श्रेयांसं आप्नुहि) = अपने से श्रेष्ठों को प्राप्त करे और (समम् अतिक्राम) = बराबरवालों को लाँघ जाए। -
भावार्थ
प्रभु के अप्रिय 'काम' पर आक्रमण करके हम उसे पराभूत करें और आगे बढ़ें।
भाषार्थ
हे जीवात्मन् ! (तम् ) उस दुरित को (अभिचर) विनष्ट कर (यः) जो कि (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, ( यम् वयम् ) और जिसके साथ हम (द्विष्मः) द्वेष करते हैं। (श्रेयांसम् आप्नुहि ) एतदर्थ श्रेष्ठ गुरु को प्राप्त हो, उसकी सेवा कर, (समम् अतिकाम) और स्वसमान व्यक्ति का अतिक्रमण कर, उससे भी आगे बढ़।
टिप्पणी
[जो दुरित और दुर्विचार हैं, वे जीवन में शत्रुरूप हैं। यदि उन्हें हम अपनाते रहें तो उनका विनाश अर्थात् निवारण नहीं हो सकता। उनका निवारण तभी हो सकता है यदि हम भी उनसे द्वेष करें, प्रीति न करें और एतदर्थ श्रेष्ठ गुरुओं का सत्संग करते रहें, और उनकी सेवा शुश्रुषा करते रहें।]
विषय
राजा को उपदेश ।
भावार्थ
हे पुरुष राजन् ! (तं प्रति) उस पर (अभिचर) चढ़ाई कर ( यः ) जो (अस्मान्) हमें (द्वेष्टि) प्रेमरहित होकर द्वेष करता है और (यम्) जिसके प्रति (वयम्) हम भी (द्विष्मः) द्वेष करते हैं । इस प्रकार (आप्नुहि श्रेयांसम्) श्रेष्ठ राज्यपद को प्राप्त कर और (समम् अतिक्राम) समान पद के लिये स्पर्धा करने हारे प्रतिस्पर्द्धी को कुचल डाल।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुक्र ऋषिः । कृत्यादूषणं देवता । कृत्यापरिहरणसूक्तम् । स्त्रात्तयमणेः सर्वरूपस्तुतिः । १ चतुष्पदा विराड् गायत्री । २-५ त्रिपदाः परोष्णिहः । ४ पिपीलिकामध्या निचृत् । पञ्चर्चं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Soul Counters Evil
Meaning
Counter that which is hostile to us and that we hate to entertain. Achieve the highest excellence, surpass the ordinary for the extra ordinary.
Translation
Move against him, who hates us and whóm we do hate. -Attain superiority.Surpass your equals.
Translation
O man! you counter-act against him who has aversion against us and whom we hate etc. etc.
Translation
O soul, attack the man who hates us, whom we dislike. Attain to superiority; surpass thine equal ! [1]
Footnote
[1] He, who hates godly persons, or whom virtuous persons, dislike, should be subdued.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३–प्रति। अभिलक्ष्य। अभि+चर। अभिभव। नाशय। यः। दुराचारी पुरुषः। अस्मान्। धर्मचारिणः। द्वेष्टि। द्विष अप्रीतौ–अदादित्वात् शपो लुक्। अप्रीत्वा गृह्णाति। जिघांसति। द्विष्मः। अप्रीत्या गृह्णीमः। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
হে জীবাত্মন্ ! (তম্) সেই দুরিতকে (অভিচর) বিনষ্ট করো (যঃ) যে (অস্মান্ দ্বেষ্টি) আমাদের প্রতি দ্বেষ করে, (যম্ বয়ং) এবং যার সাথে/প্রতি আমরা (দ্বিষ্মঃ) দ্বেষ করি। (শ্রেয়াংসম্ আপ্নুহি) এতদর্থ শ্রেষ্ঠ গুরুকে প্রাপ্ত হও, তাঁর সেবা করো, (সমম্ অতিক্রাম) এবং স্বসমান ব্যক্তিকে অতিক্রম করো, তাঁর থেকে এগিয়ে যাও।
टिप्पणी
[যে দূরিত এবং দুর্বিচার রয়েছে, তা জীবনে শত্রুরূপ। যদি সেগুলো আপন করা হয় তাহলে সেগুলোর বিনাশ অর্থাৎ নিবারণ হতে পারে না। সেগুলোর নিবারণ তখনই হতে পারে যদি আমরাও সেগুলোর প্রতি দ্বেষ করি, প্রীতি না করি এবং এতদর্থে শ্রেষ্ঠ গুরুর সৎসঙ্গ করতে থাকি, এবং তাঁর সেবা শুশ্রূষা করতে থাকি।]
मन्त्र विषय
পুরুষার্থোপদেশঃ
भाषार्थ
[হে রাজন্ !] (তম্ প্রতি) সেই [দুরাচারী পুরুষের] দিকে (অভিচর) আরোহণ করো, (যঃ) যে (অস্মান্) আমাদের সাথে (দ্বেষ্টি) শত্রুতা/দ্বেষ করে এবং (যম্) যার প্রতি (বয়ম্) আমরা (দ্বিষ্মঃ) অপ্রীতি করি। (শ্রেয়াংসম্) অধিক গুণী [পরমেশ্বর বা মনুষ্য] কে (আপ্নুহি) তুমি প্রাপ্ত করো, (সমম্) তুল্যবলবান [মনুষ্য] থেকে (অতি=অতীত্য) বর্ধিত হয়ে (ক্রাম) পাদবিক্ষেপ করো/অগ্রগামী হও ॥৩॥
भावार्थ
যে ছলনাকারী কপট ধর্মাত্মাদের সাথে অপ্রীতি করে এবং যে দুষ্কর্মীদের প্রতি ধর্মাত্মাগণ ঘৃণা করে, রাজা সেই দুষ্টদের বশবর্তী করে দণ্ড প্রদান করুক ॥ ২–সকল মনুষ্য শারীরিক ও মানসিক রোগ দূর করে সত্য ধর্মে প্রবৃত্ত হোক এবং প্রয়ত্নপূর্বক সদৈব উন্নতি করুক ॥৩॥
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