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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - त्रिपदापरोष्णिक् सूक्तम् - श्रेयः प्राप्ति सूक्त
    94

    शु॒क्रोऽसि॑ भ्रा॒जोऽसि॒ स्व॑रसि॒ ज्योति॑रसि। आ॑प्नु॒हि श्रेयां॑स॒मति॑ स॒मं क्रा॑म ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒क्र: । अ॒सि॒ । भ्रा॒ज: । अ॒सि॒ । स्व᳡: । अ॒सि॒ । ज्योति॑: । अ॒सि॒ । आ॒प्नु॒हि । श्रेयां॑सम् । अति॑ । स॒मम् । क्रा॒म॒ ॥११.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुक्रोऽसि भ्राजोऽसि स्वरसि ज्योतिरसि। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुक्र: । असि । भ्राज: । असि । स्व: । असि । ज्योति: । असि । आप्नुहि । श्रेयांसम् । अति । समम् । क्राम ॥११.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    (शुक्रः) तू वीर्यवान् (असि) है, (भ्राजः) प्रकाशमान् (असि) है, (स्वः) तू स्वर्ग [सुखधाम] (असि) है, (ज्योतिः) [सूर्यादि के समान] तेजःस्वरूप (असि) है। (श्रेयांसम्) अधिक गुणी [परमेश्वर वा मनुष्य] को (प्राप्नुहि) तू प्राप्त कर, (समम्) तुल्यबलवाले [मनुष्य] से (अति=अतीत्य) बढ़कर (क्राम) पद आगे बढ़ा ॥५॥

    भावार्थ

    राजा महाशक्तिमान्, प्रतापी और ऐश्वर्यवान् ईश्वर पर श्रद्धालु होकर अपनी और प्रजा की सदा वृद्धि करे ॥५॥

    टिप्पणी

    ५–शुक्रः। ऋज्रेन्द्राग्रवज्र०। उ० २।२८। इति शुच दीप्तौ–रन्। शुक्रम्=पुंस्त्वम्। वीर्यम्। तेजः। उदकम्–निघ० १।१२। ततः। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति अच्। यद्वा। शुच–क्विप्। रो मत्वर्थीयः। वीर्यवान्। कान्तिमान्। भ्राजः। टुभ्राजृ दीप्तौ–अच्। दीप्यमानः। तेजस्वी। स्वर्। अ० २।५।२। सु+ऋ गतौ, यद्वा, स्वृ शब्दोपतापयोः–विच्। सुगमनः। शत्रूपतापकः। स्वर्गः। सुखप्रदः। ज्योतिः। अ० १।९।१। द्युत दीप्तौ–इसिन्। दस्य जः। तेजः। प्रकाशः ॥

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    विषय

    शक्ति ब दीप्ति, ज्ञान की वाणियों व ज्ञान-ज्योति

    पदार्थ

    १. (शुक्रः असि) = तू पवित्र व शक्तिशाली बना है। 'काम' ही अपवित्रता व अशक्ति का हेतु था। काम गया, अपवित्रता व अशक्ति भी गई। आज तू भाजः असि-मानस व शरीर स्वास्थ्य के कारण चमक उठा है। २. स्व: असि-[स्वृ शब्दे] तू ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करनेवाला है। काम ने ही तो तुझे इनसे विमुख किया हुआ था। इसका विध्वंस तुझे ज्ञान प्रवण बनानेवाला है। ज्ञान-वाणियों का उच्चारण करते हुए तू ज्योतिः असि-ज्ञान का प्रकाश ही हो गया है। ज्ञान की वाणियों के उच्चारण से ज्ञान-ज्योति को बढ़ना ही था। २. ऐसा तू आपहि श्रेयांसम-अपने से श्रेष्ठों को प्रास कर और समम् अतिक्राम-बराबरवालों को लाँघ जा।

    भावार्थ

    काम-विध्वंस से मनुष्य शक्तिशाली बनकर चमक उठता है और ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करते हुए ज्ञान-ज्योतिवाला हो जाता है।

    विशेष

    सम्पूर्ण सूक्त जीवात्मा को अत्यन्त सुन्दर प्रेरणा दे रहा है। इसके चतुर्थ मन्त्र में इसे 'वर्णोधा: असि' इन शब्दों में यह कहा गया है कि तू शक्ति का धारण करनेवाला है। पाँचवें मन्त्र में तो 'शुक्रः असि' इन शब्दों में यह कह दिया है कि तू शक्ति ही है। अब अगले सूक में यह 'भरद्वाज' अपने में वाज-शक्ति को भरनेवाला बन जाता है और वेद के शब्दों में कह उठता है -

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    भाषार्थ

    हे जीवात्मन् ! (शुक्रः असि) कामक्रोध आदि का तू शोषक है, (भ्राजः असि) दीप्तिस्वरूप तू है, (स्वः असि) आदित्यसदृश स्वप्रकाशमान तू है, (ज्योतिः असि) ज्योतिस्वरूप तू है। (श्रेयांसम् आप्नुहि) श्रेष्ठ गुरु को तू प्राप्त कर, (समम् अतिक्राम) और स्वसमान व्यक्ति का अतिक्रमण कर, उनसे आगे बढ़।

    टिप्पणी

    [मन्त्र के वर्णन में तिलकवृक्ष की मणि अर्थात् काष्ठखण्ड में अनुपपन्न है, जैसे कि सायण ने कहा है।]

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    विषय

    राजा को उपदेश ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! ( शुक्रः, असि ) तू राजा होने योग्य, तेज और कान्ति को धारण करने वाला है। (भ्राजः असि) तू शत्रुओं को भून डालने वाला, ग्रीष्म के सूर्य के समान है। (स्वः असि) तू सबका प्रकाशक, उपदेशक, शत्रु का उपतापक या पीड़क है। (ज्योतिः असिः) और स्वयं तेजस्वी और यशस्वी है। ( श्रेयांसम् आप्नुहि ) इसलिये सबसे श्रेष्ठ पद को प्राप्त कर और ( समम् अति काम ) समान बलके प्रतिस्पर्धी को पार कर जा । इस सूक्त में राजा के चुनने और स्वयं श्रेष्ठ पद को प्राप्त करने के लिये उचित योग्य गुणों का उपदेश किया गया है ।

    टिप्पणी

    स्वः तापक इति सायणः। अत्रापि ‘स्वृ शब्दोपतापयोः’ ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः । कृत्यादूषणं देवता । कृत्यापरिहरणसूक्तम् । स्त्रात्तयमणेः सर्वरूपस्तुतिः । १ चतुष्पदा विराड् गायत्री । २-५ त्रिपदाः परोष्णिहः । ४ पिपीलिकामध्या निचृत् । पञ्चर्चं सूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Soul Counters Evil

    Meaning

    You are the pure, immaculate, unsullied. You are the blaze of fire, you are the bliss of heaven, you are the light of life. Rise to and win the highest Good. Transcend the ordinary, the mundane, the transitory. (You are the man, you are the soul, closest to the Supreme.)

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    Translation

    You are bright. You are blazing. You are the light. You are illuminator. Attain superiority.Surpass your equals.

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    Translation

    O' man; you are intrepid, you are the luster of the society, you are the abode of happiness and you are the light. You rise to the rank of superior and surpass your contemporaries.

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    Translation

    O soul, thou art pure, thou art splendid r thou art spiritually, strong, thou art lustrous. Attain to superiority; surpass thine equal!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५–शुक्रः। ऋज्रेन्द्राग्रवज्र०। उ० २।२८। इति शुच दीप्तौ–रन्। शुक्रम्=पुंस्त्वम्। वीर्यम्। तेजः। उदकम्–निघ० १।१२। ततः। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति अच्। यद्वा। शुच–क्विप्। रो मत्वर्थीयः। वीर्यवान्। कान्तिमान्। भ्राजः। टुभ्राजृ दीप्तौ–अच्। दीप्यमानः। तेजस्वी। स्वर्। अ० २।५।२। सु+ऋ गतौ, यद्वा, स्वृ शब्दोपतापयोः–विच्। सुगमनः। शत्रूपतापकः। स्वर्गः। सुखप्रदः। ज्योतिः। अ० १।९।१। द्युत दीप्तौ–इसिन्। दस्य जः। तेजः। प्रकाशः ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    হে জীবাত্মন্ ! (শুক্রঃ অসি) কামক্রোধ ইত্যাদির তুমি শোষক হও, (ভ্রাজঃ অসি) দীপ্তিস্বরূপ তুমি হও, (স্বঃ অসি) আদিত্যসদৃশ স্বপ্রকাশমান তুমি হও, (জ্যোতিঃ অসি) জ্যোতি স্বরূপ তুমি হও। (শ্রেয়াংসম্ আপ্নুহি) শ্রেষ্ঠ গুরুকে তুমি প্রাপ্ত করো, (সমম্ অতিক্রাম) এবং স্বসমান ব্যক্তিকে অতিক্রম করো, তাঁর থেকে এগিয়ে যাও।

    टिप्पणी

    [মন্ত্রের বর্ণনায় তিলকবৃক্ষের মণি অর্থাৎ কাষ্ঠখণ্ডে অপ্রতিপাদিত, যেমনটা সায়ণ বলেছে।]

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    मन्त्र विषय

    পুরুষার্থোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (শুক্রঃ) তুমি বীর্যবান্ (অসি) হও, (ভ্রাজঃ) প্রকাশমান্ (অসি) হও, (স্বঃ) তুমি স্বর্গ [সুখধাম] (অসি) হও, (জ্যোতিঃ) [সূর্যাদির সমান] তেজঃস্বরূপ (অসি) হও। (শ্রেয়াংসম্) অধিক গুণী [পরমেশ্বর বা মনুষ্য] কে (প্রাপ্নুহি) তুমি প্রাপ্ত করো, (সমম্) তুল্যবলবান [মনুষ্য] থেকে (অতি=অতীত্য) বর্ধিত হয়ে (ক্রাম) পাদবিক্ষেপ করো/অগ্রগামী হও ॥৫॥

    भावार्थ

    রাজা মহাশক্তিমান্, প্রতাপশালী এবং ঐশ্বর্যবান্ ঈশ্বরের প্রতি শ্রদ্ধালু হয়ে নিজের এবং প্রজাদের সদা বৃদ্ধি করুক ॥৫॥

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