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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सविता देवता - पशुसमूहः छन्दः - भुरिगअनुष्टुप् सूक्तम् - पशुसंवर्धन सूक्त
    66

    सं सि॑ञ्चामि॒ गवां॑ क्षी॒रं समाज्ये॑न॒ बलं॒ रस॑म्। संसि॑क्ता अ॒स्माकं॑ वी॒रा ध्रु॒वा गावो॒ मयि॒ गोप॑तौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । सि॒ञ्चा॒मि॒ । गवा॑म् । क्षी॒रम् । सम् । आज्ये॑न । बल॑म् । रस॑म् । सम्ऽसि॑क्ता: । अ॒स्माक॑म् । वी॒रा: । ध्रु॒वा: । गाव॑: । मयि॑ । गोऽप॑तौ ॥२६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं सिञ्चामि गवां क्षीरं समाज्येन बलं रसम्। संसिक्ता अस्माकं वीरा ध्रुवा गावो मयि गोपतौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । सिञ्चामि । गवाम् । क्षीरम् । सम् । आज्येन । बलम् । रसम् । सम्ऽसिक्ता: । अस्माकम् । वीरा: । ध्रुवा: । गाव: । मयि । गोऽपतौ ॥२६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 26; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मेल करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (गवाम्) गौओं का (क्षीरम्) दूध [अपने मनुष्यों पर] (सम्) यथानियम (सिञ्चामि) मैं सींचता हूँ और [उन मनुष्यों के] (बलम्) बल और (रसम्) शरीरपोषक धातु को (आज्येन) घृत से (सम्) यथानियम [सींचता हूँ]। (अस्माकम्) हमारे (वीराः) वीर पुरुष [दूध, घी आदि से] (संसिक्ताः) अच्छे प्रकार सिंचे रहें, [इसलिये] (मयि) मुझ (गोपतौ) गोपति में (गावः) गौएँ (ध्रुवाः) स्थायी [रहें] ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रयत्न से गौओं की रक्षा करके उनके दूध घी आदि के सेवन से अपने और अपने पुरुषों के शारीरिक धातुओं को पुष्ट करके और बल और बुद्धि बढ़ाकर शूरवीर बनावें। इसी प्रकार जो प्रधान पुरुष अपने उपकारी सभासदों को भरण-पोषण आदि उचित व्यवहार से पुष्ट करते रहते हैं, वही नीतिनिपुण संसार की वृद्धि करते हैं ॥४॥

    टिप्पणी

    टिप्पणी–इस मन्त्र के अर्थ से [दूधों नहाओं पूतों फलो] इस आशीर्वाद का मिलान कीजिये ॥ ४–सम्। यथाविधि। सिञ्चामि। षिच सेचने। आर्द्रीकरोमि। वर्धयामि। गवाम्। गमेर्डोः। उ० २।६७। धेनूनाम्। क्षीरम्। अ० १।१५।४। घस्लृ=अद भक्षणे–ईरन्। दुग्धम्। आज्येन। अ० १।७।२। घृतेन। बलम्। अ० १।१।१। सामर्थ्यम्। रसम्। अ० १।५।२। सारम्। वीर्य्यम्। देहस्थं भुक्तान्नादेः परिणामम्। संसिक्ताः। षिच–क्त। व्रतदुग्धादिना संसिक्तशरीराः, दृढगात्राः सन्तु। वीराः। अ० १।१९।६। शूरपुरुषाः। ध्रुवाः। स्रुवः कः। उ० २।६१। इति ध्रु स्थैर्ये–क। दृढाः। स्थिराः। गावः। धेनवः। मयि। उपासके। धार्मिके पुरुषे। गोपतौ। गोस्वामिनि ॥

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    विषय

    घर पर गौ का ध्रुव निवास

    पदार्थ

    १. मैं (गवां क्षीरम्) = गौओं के दूध को (संसिचामि) = सम्यक् सिक्त करता हूँ-रजकर गोदुग्ध का सेवन करता हैं। (आज्येन) = घृत के द्वारा (बलम) = शरीर में बल को तथा (रसम) = वाणी में रस को (सम्) = सम्यक् सिक्त करता हूँ। गोदुग्ध के यथेष्ट पान से शरीर व मन स्वस्थ रहते हैं। गोघृत शरीर को बलवान् और वाणी को रसीला बनानेवाला है। २. (अस्माकं वीरा:) = हमारे सन्तान भी (संसिक्ताः) = गोदुग्ध व घृत से सम्यक् सिक्त होते हैं, इसलिए (मयि गोपतौ) = मुझ गोरक्षक में (गावः) = गौएँ (ध्रुवा:) = ध्रुवता से रहती हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि में गौ न रक्खें। मेरा घर सदा गौवाला घर बना रहता है। घर में गौ होने पर सब गोदुग्ध का यथेष्ट प्रयोग कर पाते हैं।

    भावार्थ

    घर पर गौ को नियम से रखना ही चाहिए, ताकि सब यथेष्ट दूध पी सकें।

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    भाषार्थ

    (गवाम् क्षीरम् ) गौएँ के दूध को ( सम् सिञ्चामि) समागत व्यक्तियों में मैं सींचता हूँ, उन्हें पिलाता हूँ, (आज्येन) गौओं के घृत द्वारा ( बलम्) शारीरिक बल तथा (रसम्) शारीरिक रससमूह को सींचता हूँ। (अस्माकम् वीराः) हमारे वीर पुरुष तथा पुत्र (सं सिक्ता:) सम्यक् सींचे गये हैं [दूध तथा आज्य द्वारा), (मयि गोपतौ) मुझ गोस्वामी में (ध्रुवा:) स्थिर रूप में (गावः) गौएँ हों।

    टिप्पणी

    [रसम् = शरीर के रस, अर्थात् रक्त तथा अन्य रस।]

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    विषय

    इन्द्रियों का दमन और पशुओं का पालन ।

    भावार्थ

    (गवां क्षीरं) गायों के दूध के समान मधुर ज्ञानरस को मैं (सं सिञ्चामि) उत्तम रूप से प्रवाहित करता हूं। (आज्येन) वृत के समान पुष्टिकारक तेज के सहित (रसम्) आनन्दजनक हर्ष और (बलं) बलको भी (सं सिंचामि) धारण करता हूं। (अस्माकं वीराः) इस प्रकार हमारे वीर, प्राण एवं पुत्रगण भी बल, हर्ष और आनन्द से (सं सिक्ताः) आप्लावित, परिपूर्ण, पुष्ट हों और (मयि) मुझ (गोपतौ) इन्द्रिय रूप गौओं के स्वामी के पास (गावः) इन्द्रिय रूप गौवें (स्थिराः) स्थिर रूप से रहें। इस मन्त्र में दूध, घी, रस और बल के साथ २ ज्ञान, बल और आनन्द की प्रार्थना है और गौओं और प्राणों के साथ पुत्र और पशुओं की भी प्रार्थना है।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘बलं रसम्’ (तृ०) ‘संसिक्तास्माकं वीरा मयि गावश्च गौपतौ’ इति पैप्प० सं०। ‘अरिष्टा अस्माकं वीरा मयि गावः सन्तु गो पतौ’ इति श्रौ० सू० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सविता ऋषिः। पशवो देवता। १, २ त्रिष्टुभौ। ३ उपरिष्टाद् विराड् बृहती। ४ भुरिगनुष्टुप्। ५ अनुष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Animal Life

    Meaning

    By yajna with cow’s ghrta, I bring a flood of cow’s milk. I bring strength and taste for living. Our youth are strong, fully satisfied and totally happy. May the cows and all animals be strong and steadfast with me as their master protector.

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    Translation

    I pour the abundant cow-milk, and together the strength giving soup with melted butter. Our attendants, i.e., men who look after them, have equally been well-fed; and as such, are dependable, may the cows remain here with full trust in me accepting me (alone) as the Lord of cows (go-patau) .

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    Translation

    I pour together the milk of cow with the ghee which blends the strength and palatability. Thus our children be full of strength and vigor and let there be herd of cow in possession of mine, he master of cows constanty and permanently.

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    Translation

    I offer to my men the milk of kine; with butter I enhance their strength and beauty. May our valiant sons be filled with milk and butter. May cows ever remain with me, their cow-herd.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    टिप्पणी–इस मन्त्र के अर्थ से [दूधों नहाओं पूतों फलो] इस आशीर्वाद का मिलान कीजिये ॥ ४–सम्। यथाविधि। सिञ्चामि। षिच सेचने। आर्द्रीकरोमि। वर्धयामि। गवाम्। गमेर्डोः। उ० २।६७। धेनूनाम्। क्षीरम्। अ० १।१५।४। घस्लृ=अद भक्षणे–ईरन्। दुग्धम्। आज्येन। अ० १।७।२। घृतेन। बलम्। अ० १।१।१। सामर्थ्यम्। रसम्। अ० १।५।२। सारम्। वीर्य्यम्। देहस्थं भुक्तान्नादेः परिणामम्। संसिक्ताः। षिच–क्त। व्रतदुग्धादिना संसिक्तशरीराः, दृढगात्राः सन्तु। वीराः। अ० १।१९।६। शूरपुरुषाः। ध्रुवाः। स्रुवः कः। उ० २।६१। इति ध्रु स्थैर्ये–क। दृढाः। स्थिराः। गावः। धेनवः। मयि। उपासके। धार्मिके पुरुषे। गोपतौ। गोस्वामिनि ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (গবাম্ ক্ষীরম্) গাভীদের দুগ্ধকে (সম্ সিঞ্চামি) সমাগত ব্যক্তিদের মধ্যে আমি সীঞ্চন করি, তাঁদের পান করাই, (আজ্যেন) গাভীর ঘৃত দ্বারা (বলম্) শারীরিক বল এবং (রসম্) শারীরিক রসসমূহকে সিঞ্চন করি। (অস্মাকম্ বীরাঃ) আমাদের বীর পুরুষ ও পুত্র (সং সিক্তাঃ) সম্যক্ সিঞ্চিত হয়েছে [দুধ ও আজ্য দ্বারা), (ময়ি গোপতৌ) আমার মতো গোস্বামীর (ধ্রুবা) স্থির রূপে (গাবঃ) গাভী হোক।

    टिप्पणी

    [রসম্=শরীরের রস, অর্থাৎ রক্ত ও অন্য রস।]

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    मन्त्र विषय

    সঙ্গতিকরণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (গবাম্) গাভীর (ক্ষীরম্) দুধ [নিজের মনুষ্যদের ওপর/প্রতি] (সম্) যথানিয়মে (সিঞ্চামি) আমি সীঞ্চন করি এবং [সেই মনুষ্যদের] (বলম্) বল এবং (রসম্) শরীরপোষক ধাতুকে (আজ্যেন) ঘৃত দ্বারা (সম্) যথানিয়মে [সীঞ্চন করি]। (অস্মাকম্) আমাদের (বীরাঃ) বীর পুরুষ [দুধ, ঘী আদি দ্বারা] (সংসিক্তাঃ) উত্তমরূপে সিক্ত থাকুক, [এইজন্য] (ময়ি) আমার (গোপতৌ) গোপতির কাছে (গাবঃ) গাভী (ধ্রুবাঃ) স্থায়ী [থাকুক] ॥৪॥

    भावार्थ

    মনুষ্য চেষ্টাপূর্বক গাভীর রক্ষা করে তার দুধ ঘী ইত্যাদির সেবন দ্বারা নিজের এবং নিজের পুরুষদের শারীরিক ধাতুকে পুষ্ট করে, বল ও বুদ্ধি বৃদ্ধি করে বীর তৈরি করুক। এইভাবে যে প্রধান পুরুষ নিজের উপকারী সভাসদকে ভরণ-পোষণ আদি উচিত ব্যবহার দ্বারা পুষ্ট করতে থাকে, সেই নীতিনিপুণ সংসারের বৃদ্ধি করে ॥৪॥

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