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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
    ऋषिः - सविता देवता - पशुसमूहः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पशुसंवर्धन सूक्त
    68

    आ ह॑रामि॒ गवां॑ क्षी॒रमाहा॑र्षं धा॒न्यं रस॑म्। आहृ॑ता अ॒स्माकं॑ वी॒रा आ पत्नी॑रि॒दमस्त॑कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ह॒रा॒मि॒ । गवा॑म् । क्षी॒रम् । आ । अ॒हा॒र्ष॒म् । धा॒न्य᳡म् । रस॑म् । आऽहृ॑ता: । अ॒स्माक॑म् । वी॒रा: । आ । पत्नी॑: । इ॒दम्। अस्त॑कम् ॥२६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ हरामि गवां क्षीरमाहार्षं धान्यं रसम्। आहृता अस्माकं वीरा आ पत्नीरिदमस्तकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । हरामि । गवाम् । क्षीरम् । आ । अहार्षम् । धान्यम् । रसम् । आऽहृता: । अस्माकम् । वीरा: । आ । पत्नी: । इदम्। अस्तकम् ॥२६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 26; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मेल करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (गवाम्) गौओं के (क्षीरम्) दूध को (आ हरामि) मैं प्राप्त करूँ, [क्योंकि दूध से] (धान्यम्) पोषणवस्तु अन्न और (रसम्) शरीरिक धातु को (आ अहार्षम्) मैंने पाया है। (अस्माकम्) हमारे (वीराः) वीर पुरुष (आहृताः) लाये गये हैं और (पत्नीः=पत्न्यः) पत्नियाँ भी (इदम्) इस (अस्तकम्=अस्तम्) घर में (आ=आहृताः) लायी गयी हैं ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को सदा गौओं की रक्षा करनी चाहिये, जिससे सब स्त्री-पुरुष दूध-घी का सेवन करके हृष्ट-पुष्ट होकर शूरवीर रहें और घरों में सब प्रकार की सम्पत्ति बढ़ती जावे ॥५॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ५–आहरामि। आनयामि। गवां क्षीरम्। म० ४। धेनूनां दुग्धम्। आहार्षम्। हृञ् हरणे–लुङ्। आनीतवानस्मि। धान्यम्। म० ३। अन्नम् रसम्। म० ४। शारीरिकधातुम्। आहृताः। आनीताः। वीराः। अ० १।२९।६। पराक्रमिणः पुरुषाः। पत्नीः। अ० २।१२।१। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। पत्न्यः। अस्तकम्। हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। इति अस भुवि, गतिदीप्त्यादानेषु–तन्, स्वार्थे कः। अस्तम्=गृहम्–निघ० ३।४ ॥

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    विषय

    गौ, धान्य, पुत्रादि से समृद्ध घर

    पदार्थ

    १. मैं (गवां क्षीरम्) = गौओं के दूध का (आहरामि) = आहार करता हूँ तथा सदा (धान्य रसम्) = अन्न-रस का (आहर्षम्) = आहार करनेवाला रहता है। २. इस सात्विक भोजन का ही यह परिणाम है कि (अस्माकं वीराः आइता:) = घर में हमें वीर सन्तानें प्राप्त हुई हैं तथा (पत्नी:) = गृहपत्नियाँ भी (इदं अस्तकम्) = इस घर में (वीरा:) = वीर ही (आ) = [हताः] आयी हैं। पत्नियों भी सात्त्विकता को लिये हुए होने से वीर हैं, उनकी सन्तान भी वीर हैं।

    भावार्थ

    गोदुग्ध व धान्य-रस के भोजन का यह परिणाम है कि घर खूब समृद्ध बना रहता है।

    विशेष

    यह सूक्त गोदुग्ध के महत्त्व को व्यक्त करता है। अगला सूक्त विजय-प्राप्ति का सन्देश दे रहा है। हमें प्रकृष्ट पथ्यरूप भोजन करनेवाला 'प्राश' बनना है।'पाटा, नामक ओषधि इस प्राश के लिए सहायक होती है। यह ओषधि इसपर आक्रमण करनेवाले रोगकृमियों को नष्ट कर देती है उन्हें अरस व शुष्क कर देती है। इसप्रकार पथ्य भोजन व पाटा नामक ओषधि प्रयोग से यह नीरोग जीवनवाला व्यक्ति कम्-सुखम्, पिञ्जम् शक्ति [power] च लाति आदते' सुख और शक्ति का आदान करनेवाला 'कपिजल' होता है। यही अगले सुक्त का ऋषि है।

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    भाषार्थ

    (इदम् अस्तकम्) इस घर में (गवाम् क्षीरम् ) गौएँ और गौओं का दूध (आ हरामि) मैं लाता है, (धान्यम् रसम्) धान्य तथा रस [फलादि का] (आहार्षम्) मैं लाया हूँ। (अस्माकम् वीराः) हमारे पुत्र तथा अन्य सन्तानें (आहृताः) लाए गये हैं, (पत्नी:) पुत्रों आदि की पत्नियां (आ) लाई गई हैं।

    टिप्पणी

    [अस्तकम् = अस्तकम् गृहनाम (निधं० ३।४)। नवनिर्मित गृह है। इसे गौओं आदि को लाकर बसाया गया है।]

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    विषय

    इन्द्रियों का दमन और पशुओं का पालन ।

    भावार्थ

    मैं (गवां क्षीरं) गौओं का दूध और इन्द्रियों का ज्ञान (आहरामि) प्राप्त करता हूं। (धान्यं) धान्य और (रसं) अन्न के स्वादु रस और ग्राह्य विषय और उनसे प्राप्त होने वाले सुख को भी (आहार्षम्) प्राप्त करता हूं। (अस्माकं वीराः) हमारे पुत्र, वीर और प्राण भी (आहृताः) हमारे पास, हमारे वश हों, (पत्नीः) यह स्त्री और यह बुद्धि भी हमारे पास हो (इदम्) यह (अस्तकम्) घर के समान हमारा शरीर भी हमें प्राप्त हो। इति चतुर्थोऽनुवाकः।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘क्षीरमहर्षि’ (तृ०) अहरिषमस्याकं वीरान् आपत्नीमेदमस्तकम् इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सविता ऋषिः। पशवो देवता। १, २ त्रिष्टुभौ। ३ उपरिष्टाद् विराड् बृहती। ४ भुरिगनुष्टुप्। ५ अनुष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Animal Life

    Meaning

    I am blest: I have plenty of cow’s milk. I have plenty of food and joy of life. Our youth are happy, satisfied and self-fulfilled. Our women are happy and satisfied in the home with the family.

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    Translation

    I bring the milk of cows.I have brought already the corn and the sap. Our young men have been brought and so are the wives to this house.

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    Translation

    Here I bring the milk of cows and here I bring the juice of grain, let our children be here and be here our wives and this home.

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    Translation

    From cows I obtain milk; from plants I obtain corn and their juice. May our sons be loyal to us, may wife ever accompany me, may I obtain this body as the house of my organs.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५–आहरामि। आनयामि। गवां क्षीरम्। म० ४। धेनूनां दुग्धम्। आहार्षम्। हृञ् हरणे–लुङ्। आनीतवानस्मि। धान्यम्। म० ३। अन्नम् रसम्। म० ४। शारीरिकधातुम्। आहृताः। आनीताः। वीराः। अ० १।२९।६। पराक्रमिणः पुरुषाः। पत्नीः। अ० २।१२।१। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। पत्न्यः। अस्तकम्। हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। इति अस भुवि, गतिदीप्त्यादानेषु–तन्, स्वार्थे कः। अस्तम्=गृहम्–निघ० ३।४ ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (ইদম্ অস্তকম্) এই ঘরে (গবাম্ ক্ষীরম্) গাভীসমূহ ও গাভীদেরর দুধ (আ হরামি) আমি নিয়ে আসি, (ধান্য রসম) ধান্য ও রস [ফলাদির] (আহার্ষম্) আমি নিয়ে এসেছি। (অস্মাকম্ বীরাঃ) আমাদের পুত্র ও অন্য সন্তানদের (আহৃতাঃ) নিয়ে আসা হয়েছে, (পত্নীঃ) পুত্র আদির পত্নীগণকে (আ) নিয়ে আসা হয়েছে।

    टिप्पणी

    [অস্তকম্ = অস্তকম্ গৃহনাম (নিঘং০ ৩।৪)। নবনির্মিত গৃহ। এখানে গাভী ও অন্যান্য পশুদের নিয়ে এসে রাখা হয়েছে।]

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    मन्त्र विषय

    সঙ্গতিকরণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (গবাম্) গাভীর (ক্ষীরম্) দুধ (আ হরামি) আমি প্রাপ্ত করি, [কারণ দুধ থেকে] (ধান্যম্) পোষণবস্তু অন্ন ও (রসম্) শরীরিক ধাতু (আ অহার্ষম্) আমি প্রাপ্ত করেছি। (অস্মাকম্) আমাদের (বীরাঃ) বীর পুরুষ (আহৃতাঃ) আনীত হয়েছে এবং (পত্নীঃ=পত্ন্যঃ) পত্নীও (ইদম্) এই (অস্তকম্=অস্তম্) ঘরে (আ=আহৃতাঃ) নিয়ে আসা হয়েছে॥৫॥

    भावार्थ

    মনুষ্যদের উচিত সদা গাভীর রক্ষা করা, যাতে সব স্ত্রী-পুরুষ দুধ-ঘী সেবন করে হৃষ্ট-পুষ্ট হয়ে বীর থাকে এবং ঘরে সব প্রকারের সম্পত্তি বাড়তে থাকে ॥৫॥ ইতি চতুর্থোঽনুবাকঃ ॥

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