Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 29 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त
    78

    इन्द्र॑ ए॒तां स॑सृजे वि॒द्धो अग्र॑ ऊ॒र्जां स्व॒धाम॒जरां॒ सा त॑ ए॒षा। तया॒ त्वं जी॑व श॒रदः॑ सु॒वर्चा॒ मा त॒ आ सु॒स्रोद्भि॒षज॑स्ते अक्रन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । ए॒ताम् । स॒सृ॒जे॒ । वि॒ध्द: । अग्रे॑ । ऊ॒र्जाम् । स्व॒धाम् । अ॒जरा॑म् । सा । ते॒ । ए॒षा । तया॑ । त्वम् । जी॒व॒ । श॒रद॑: । सु॒ऽवर्चा॑: । मा । ते॒ । आ । सु॒स्रो॒त् । भि॒षज॑: । ते॒ । अ॒क्र॒न् ॥२९.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र एतां ससृजे विद्धो अग्र ऊर्जां स्वधामजरां सा त एषा। तया त्वं जीव शरदः सुवर्चा मा त आ सुस्रोद्भिषजस्ते अक्रन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । एताम् । ससृजे । विध्द: । अग्रे । ऊर्जाम् । स्वधाम् । अजराम् । सा । ते । एषा । तया । त्वम् । जीव । शरद: । सुऽवर्चा: । मा । ते । आ । सुस्रोत् । भिषज: । ते । अक्रन् ॥२९.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 29; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य अपनी उन्नति करता रहे, इसका उपदेश।

    पदार्थ

    (विद्धः) सेवा किये हुए (इन्द्रः) परमेश्वर ने (एताम्) इस (अजराम्) अक्षय (ऊर्जाम्) अन्नयुक्त (स्वधाम्) अमृत को (अग्रे) पहिले से (ससृजे) उत्पन्न किया है। (सा एषः) सो यह (ते) तेरेलिये [है], (तया) उस [अमृत] से (त्वम्) तू (सुवर्चाः) उत्तमकान्तिवाला होकर (शरदः) बहुत शरद् ऋतुओं तक (जीव) जीता रह, (आ) और [सा स्वधा] [वह] (ते) तेरेलिये (मा सुस्रोत्) न घट जावे। (भिषजः) वैद्यों ने (ते) तेरेलिये [उस अमृत को] (अक्रन्) बनाया है ॥७॥

    भावार्थ

    अनादि परमेश्वर ने सृष्टि के पहिले मनुष्य को अमृतरूप सार्वभौम ज्ञान दिया है, उसकी कभी हानि नहीं होती, मनुष्य जितना-जितना उसे काम में लाता है, उतना ही वह बढ़ता जाता है और सुखदायक होता है। उसके उचित प्रयोग से मनुष्य पूर्ण आयु भोगता है। बुद्धिमानों ने बुद्धि को महौषधि बनाया है ॥७॥ (ऊर्जाम्) पद के स्थान पर सायणभाष्य में (ऊर्जम्) है ॥

    टिप्पणी

    ७–इन्द्रः। परमैश्वर्यवान् परमेश्वरः। एताम्। सर्वत्र विद्यमानाम्। ससृजे। सृञ्–लिट्। सृष्टवान्। उत्पादितवान्। विद्धः। विध विधाने–क्त–तुदादिः, छन्दसि अनिट्। विधेम=परिचरेम–निघ० ३।५। वेधितः। परिचरितः। सेवितः। अग्रे। सर्वेभ्यः पूर्वम्। ऊर्जाम्। म० ३। ऊर्क्=अन्नं बलं वा। ततः, अर्शआद्यच्, टाप्। अन्नवतीम्। बलवतीम्। स्वधाम्। आः समिण्निकषिभ्याम्। उ० ४।१७५। इति ष्वद् स्वादे–आ, दस्य धः। स्वादयति रसान् उत्पादयतीति स्वधा। यद्वा। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति स्व+डुधाञ् धारणपोषणदानेषु–क, टाप्। अथवा क्विप्। स्वम् आत्मानं भोक्तृशरीरं दधाति पुष्णातीति वा स्वधा। यद्वा। स्व+धेट् पाने–क, टाप्। उदकम्। निघ० १।१२। अन्नम्–निघ० २।७। पितॄणाम् अन्नम्। अमृतम्। शरीरपोषकं पदार्थम्। अजराम्। ऋच्छेररः उ० ४।१३१। इति अज गतिक्षेपणयोः–अर प्रत्ययः, टाप्। गतिशीलाम्। उत्साहवर्धयित्रीम्। यद्वा। जॄष् वयोहानौ–अङ्, टाप्। अक्षीणाम्। ते। तुभ्यम्। तया। स्वधया। जीव। प्राणान् धारय। शरदः। अ० १।१०।२। शरदृतून्। वर्षाणि। आ। आप्लृ व्याप्तौ–क्विप्, पलोपः। समुच्चये। यथा। देवेभ्यश्च पितृभ्यश्च आ। मा सुस्रोत्। स्रु गतौ–लङि, छन्दसि शपः श्लुः। नष्टो मा भूत्। भिषजः। अ० २।९।३। चिकित्सकाः। अक्रन्। मन्त्रे घस०। पा० २।४।८०। इति करोतेः–च्लेर्लुक्। अकार्षुः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मन्थ का महत्व इन्द्र

    पदार्थ

    १. (विद्धः इन्द्रः) = [विधेम-परिचरेम-नि० ३.५] उपासित हुए-हुए इन्द्र ने (एताम्) = इस मन्थरूप पेय द्रव्य को (ससृजे) = उत्पन्न किया है। (अग्ने ऊर्जाम्) = यह सर्वाधिक बल व प्राणशक्ति को देनेवाला है, (अजराम्) = यह जीर्ण न होने देनेवाला है, (सा एषा) = वह यह पेय द्रव्य (ते) = तेरे लिए है। (तया) = उससे (त्वम्) = तू (शरदः) = वर्षों [सौ वर्षों तक] जीव-जीनेवाला हो। (सुवर्चा:) = तू उत्तम वर्चस्वाला बन। २. (ते) = तरे शरीर से (मा आसुत्रोत्) = शक्ति का प्रच्याव [विनाश] न हो। (भिषज:) = वैद्यों ने (ते) = तेरे लिए (अकन्) = इस मन्थ [तक्र] को औषध के रूप में किया है। यह तेरे लिए औषध बन गया है।

    भावार्थ

    प्रभु के उपासक प्रभु से दी गई इस छाछ को पीते हैं। यह उनके बल को स्थिर रखती है, शरीर का धरण करती है और उन्हें जीर्ण नहीं होने देती।

    विशेष

    यह सूक्त दीर्घायुष्य के साधनों का उल्लेख करता है[क] प्रथम उपाय है पार्थिव ओषधियों के रसों का ही प्रयोग हो, [ख] समाति पर मन्थ के प्रयोग का उल्लेख है, [ग] 'पार्थिव ओषिधियों का प्रयोग करें, छाछ पीएँ ' इससे दीर्घ जीवन होगा। इस दीर्घ जीवन के लिए पति-पत्नी का परस्पर प्रेम अत्यावश्यक है। इसी बात का उल्लेख अगले सूक्त में करते हैं। ऐसे पति-पत्नी ही उत्तम सन्तान को प्राप्त करते हैं। इस उत्तम सन्तानवाला 'प्रजापति' ही इस सूक्त का ऋषि है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (विद्धः) प्रजा के दुःखों से विद्ध हुए (इन्द्रः) परमेश्वर ने (अग्रे) प्रारम्भ में (स्वधाम) अन्नरूप, (अजराम्) जरानिवारक, (एताम् ऊर्जा) इस ऊर्जा को (ससृजे) पैदा किया, (सा ते एषा) हे पति ! वह यह ऊर्जा तेरे लिए है। (तया) उस ऊर्जा द्वारा (त्वम्) तू (जीव) जीवित रह (शरदः) शरद्-ऋतुओं में, (सुवर्चा:) और उत्तम तेजवाला बन। (माते आ सुस्रोत्) वह पी हुई ऊर्जा तेरे शरीर से स्रवित१ न हो, (भिषज:) वैद्य (ते) तेरे लिए (अक्रन्) इसकी चिकित्सा करें।

    टिप्पणी

    [१. यह ऊर्जा वीर्यरूप में परिणतरूपा है।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ब्रह्मचर्य और दीर्घ जीवन की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे कुमार ! (इन्द्रः) ज्ञानवान् पुरुष ने (विद्धः) भूख, दुर्बलता एवं रोगों से पीड़ित होकर स्वयं (अग्रे) प्रथम ही (अजरां) न जीर्ण होने वाली, अविनश्वर, प्रभावकारिणी (ऊर्जां) बलकारिणी, रसायन रूप (स्वधां) अमृतरूप (एतां) इस अन्न को (ससृजे) उत्पन्न किया है। हे पुरुष ! हे कुमार ! (तया) उस अन्न के बल पर (त्वं) तू (सुवर्चाः) उत्तम तेजस्वी होकर (शरदः) सौ वर्ष तक (जीव) जीवन का भोग कर (ते) तेरा प्राप्त किया हुआ बलवीर्य (मा आ सुस्रोत्) कभी स्रवित न हो, क्योंकि इस प्रकार की व्यवस्था (भिषजः) रोगों को दूर करने हारे विद्वानों ने (ते) तेरे लिये (अक्रन्) बनाई है। अन्न खाकर जीवन यापन करने और वीर्य का पालन करने से दीर्घायु होता है यही सब वैद्य, डाक्टरों की व्यवस्था है।

    टिप्पणी

    ‘अग्रमूर्जं’ इति सायणसम्मतः पाठः। ‘ससृजे विद्योअश्रम ऊर्जस्वधामजता (रा) मेतमेषा’। इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता वहवो देवताः। १ अनुष्टुप्। २, ३, ५-७ त्रिष्टुभः। ४ पराबृहती निचृतप्रस्तारा पंक्तिः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Life and Progress

    Meaning

    Indra, served, honoured and worshipped relentlessly, has, since time immemorial, created this unaging and inexhaustible food, energy, power and potential of life for you. By that gift, happy, strong and lustrous brilliant, live a full hundred years of life. May this light and lustre of life never diminish and wear away. The physicians of life have created and maintain this power and potential of health and life for you.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Yielding to your devotional prayers, the resplendent one (Indra) prepared this beverage, invigorating, nourishing and age giving. Now it is yours. Enjoying this may you live long through autumns full of lustre. Let there be no leakage of your vital fluids. The physicians have the curative and life giving recipes furnished from you.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O, child; the enlightened person wounded with hunger and disease in the beginning produces this grain which is invigorative and undecaying. Let it be for you. O’ child with this, you becoming vigorous; live hundred autumns. Let not your strength be drained as the persons of medical services have made this provision for your help.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Adorable God hath revealed in the beginning that imperishable nectar of knowledge. It is for thee, O Brahmchari. With that knowledge, full of beauty, mayest thou live long. May it never dwindle for thee. Spiritual doctors have prescribed it for thee !

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७–इन्द्रः। परमैश्वर्यवान् परमेश्वरः। एताम्। सर्वत्र विद्यमानाम्। ससृजे। सृञ्–लिट्। सृष्टवान्। उत्पादितवान्। विद्धः। विध विधाने–क्त–तुदादिः, छन्दसि अनिट्। विधेम=परिचरेम–निघ० ३।५। वेधितः। परिचरितः। सेवितः। अग्रे। सर्वेभ्यः पूर्वम्। ऊर्जाम्। म० ३। ऊर्क्=अन्नं बलं वा। ततः, अर्शआद्यच्, टाप्। अन्नवतीम्। बलवतीम्। स्वधाम्। आः समिण्निकषिभ्याम्। उ० ४।१७५। इति ष्वद् स्वादे–आ, दस्य धः। स्वादयति रसान् उत्पादयतीति स्वधा। यद्वा। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति स्व+डुधाञ् धारणपोषणदानेषु–क, टाप्। अथवा क्विप्। स्वम् आत्मानं भोक्तृशरीरं दधाति पुष्णातीति वा स्वधा। यद्वा। स्व+धेट् पाने–क, टाप्। उदकम्। निघ० १।१२। अन्नम्–निघ० २।७। पितॄणाम् अन्नम्। अमृतम्। शरीरपोषकं पदार्थम्। अजराम्। ऋच्छेररः उ० ४।१३१। इति अज गतिक्षेपणयोः–अर प्रत्ययः, टाप्। गतिशीलाम्। उत्साहवर्धयित्रीम्। यद्वा। जॄष् वयोहानौ–अङ्, टाप्। अक्षीणाम्। ते। तुभ्यम्। तया। स्वधया। जीव। प्राणान् धारय। शरदः। अ० १।१०।२। शरदृतून्। वर्षाणि। आ। आप्लृ व्याप्तौ–क्विप्, पलोपः। समुच्चये। यथा। देवेभ्यश्च पितृभ्यश्च आ। मा सुस्रोत्। स्रु गतौ–लङि, छन्दसि शपः श्लुः। नष्टो मा भूत्। भिषजः। अ० २।९।३। चिकित्सकाः। अक्रन्। मन्त्रे घस०। पा० २।४।८०। इति करोतेः–च्लेर्लुक्। अकार्षुः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (বিদ্ধঃ) প্রজার দুঃখে বিদ্ধ (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (অগ্রে) প্রারম্ভে (স্বধাম্) অন্নরূপ, (অজরাম্), জরানিবারক, (এতাম্, ঊর্জাম্) এই শক্তি (সসৃজে) উৎপন্ন করেছেন, (সা তে এষা) হে পতি ! সেই শক্তি তোমার জন্য। (তয়া) সেই শক্তি দ্বারা (ত্বম্) তুমি (জীব) জীবিত থাকো (শরদঃ) শরদ্-ঋতুতে, (সুবর্চাঃ) এবং উত্তম তেজস্বী হও। (মা তে আ সুস্রোৎ) সেই পান করা/সেবিত শক্তি তোমার শরীর থেকে স্রবিত১ না হোক, (ভিষজঃ) বৈদ্য (তে) তোমার জন্য (অক্রন্) এর চিকিৎসা করুক।

    टिप्पणी

    [১. এই শক্তি বীর্যরূপে পরিণতরূপা।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যঃ স্বোন্নতিং কুর্যাদিত্যুপদিশ্যতে

    भाषार्थ

    (বিদ্ধঃ) সেবিত (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (এতাম্) এই (অজরাম্) অক্ষয় (ঊর্জাম্) অন্নযুক্ত (স্বধাম্) অমৃত (অগ্রে) প্রথম থেকে (সসৃজে) উৎপন্ন করেছেন। (সা এষঃ) সুতরাং ইহা (তে) তোমার জন্য, (তয়া) সেই [অমৃত] দ্বারা (ত্বম্) তুমি (সুবর্চাঃ) উত্তমকান্তিমান হয়ে (শরদঃ) অনেক শরদ্ ঋতু পর্যন্ত (জীব) জীবিত থাকো, (আ) এবং (সা স্বধা) [তা] (তে) তোমার জন্য (মা সুস্রোৎ) না হ্রাস/নষ্ট হোক। (ভিষজঃ) বৈদ্যগণ (তে) তোমার জন্য [সেই অমৃত] (অক্রন্) সম্পাদন করেছে ॥৭॥

    भावार्थ

    অনাদি পরমেশ্বর সৃষ্টির প্রারম্ভে মনুষ্যকে অমৃতরূপ সার্বভৌম জ্ঞান প্রদান করেছেন, তার কখনো হানি হয় না, মনুষ্য যত-যত তা কাজে নিয়ে আসে, ততই সে বর্ধিত হয় এবং সুখদায়ক হয়। তার উচিত প্রয়োগ দ্বারা মনুষ্য পূর্ণ আয়ু ভোগ করে। বুদ্ধিমানরা বুদ্ধিকে মহৌষধি করেছে ॥৭॥ (ঊর্জাম্) পদের স্থানে সায়ণভাষ্যে (ঊর্জম্) আছে ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top