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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - विश्वकर्मा छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - विश्वकर्मा सूक्त
    62

    य॒ज्ञस्य॒ चक्षुः॒ प्रभृ॑ति॒र्मुखं॑ च वा॒चा श्रोत्रे॑ण॒ मन॑सा जुहोमि। इ॒मं य॒ज्ञं वित॑तं वि॒श्वक॑र्म॒णा दे॒वा य॑न्तु सुमन॒स्यमा॑नाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञस्य॑ । चक्षु: । प्रऽभृ॑ति: । मुख॑म् । च॒ । वा॒चा । श्रोत्रे॑ण । मन॑सा । जु॒हो॒मि॒ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । विऽत॑तम् । वि॒श्वऽक॑र्मणा । आ । दे॒वा: । य॒न्तु॒ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑ना: ॥३५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञस्य चक्षुः प्रभृतिर्मुखं च वाचा श्रोत्रेण मनसा जुहोमि। इमं यज्ञं विततं विश्वकर्मणा देवा यन्तु सुमनस्यमानाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञस्य । चक्षु: । प्रऽभृति: । मुखम् । च । वाचा । श्रोत्रेण । मनसा । जुहोमि । इमम् । यज्ञम् । विऽततम् । विश्वऽकर्मणा । आ । देवा: । यन्तु । सुऽमनस्यमाना: ॥३५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पाप के त्याग से सुखलाभ है, इसका उपदेश।

    पदार्थ

    [जो पुरुष] (यज्ञस्य) पूजनीय कर्म का (चक्षुः) नेत्र [नेत्रसमान प्रदर्शक], (प्रभृतिः) पुष्टि, (च) और (मुखम्) मुख [समान मुख्य] है, [उसको] (वाचा) वाणी से, (श्रोत्रेण) कान से और (मनसा) मन से (जुहोमि) मैं स्वीकार करता हूँ। (सुमनस्यमानाः) शुभचिन्तकों के जैसे आचरणवाले (देवाः) व्यवहारकुशल महात्मा (विश्वकर्मणा) संसार के रचनेवाले परमेश्वर करके (विततम्) फैलाये हुए (इमम्) इस (यज्ञम्) पूजनीय धर्म को (आ यन्तु) प्राप्त करें ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित है कि सत्यसङ्कल्पी, सत्यसन्ध, ऋषि, महात्माओं के वैदिक उपदेश को वाणी से पठन-पाठन, श्रोत्र से श्रवण-श्रावण और मन से निदिध्यासन अर्थात् वारम्बार विचार करके ग्रहण करें और सब अनुग्रहशील महात्मा परमेश्वर के दिये हुए विज्ञान और धर्म का प्रचार करते रहें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५–यज्ञस्य। म० ३। पूजनीयकर्मणः। चक्षुः। म० ४। नेत्रवत् प्रदर्शको यः पुरुषोऽस्ति। प्रभृतिः। डभृञ् भरणपोषणयोः–क्तिन्। भरणम्। पोषणम् मुखम्। डित् खनेर्मुट् चोदात्तः। उ० ५।२०। इति खन विदारणे–अच्। स च डित्, धातोर्मुडागमश्च। तस्योदात्तः। खनति अन्नादिकमनेनेति। आस्यम्। मुखमिव मुख्यः। वाचा। अ० १।१।१। वाण्या। पठनपाठनकर्मणा। श्रोत्रेण। अ० २।१७।५। श्रुत्या। कर्णेन। श्रवणश्रावणकर्मणा। मनसा। मननेन। अन्तःकरणेन। निदिध्यासनेन। जुहोमि। अ० १।१५।१। आददे। स्वीकरोमि तम्। विततम्। तनु विस्तारे–क्त। विस्तृतम्। विश्वकर्मणा। परमात्मना। देवाः। व्यवहारकुशलाः। महात्मानः। यन्तु। प्राप्नुवन्तु। सुमनस्यमानाः। अ० १।३५।१। शोभनं ध्यायन्तः। शुभचिन्तकाः ॥

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    विषय

    मुख्य होता 'प्रभु'

    पदार्थ

    १. वे प्रभु (यज्ञस्य चक्षुः) = यज्ञ के दिखलानेवाले हैं, अज्ञों का ज्ञान देनेवाले हैं, (प्रभृति:) = वे ही इन यज्ञों का भरण करनेवाले हैं, प्रभुकृपा के बिना कोई भी यज्ञ पूर्ण नहीं होता। (मुखंच) = वे प्रभु ही इस यज्ञ के मुख हैं-प्रवर्तक हैं, प्रत्येक यज्ञ प्रभु की उपासना से ही आरम्भ हुआ करता है। २. इसलिए (वाचा) = प्रभु के गुणों का उच्चारण करती हुई वाणी से, (श्रोत्रेण) = प्रभु-गुण श्रवण करते हुए कानों से, (मनसा) = प्रभु की महिमा का मनन करते हुए मन से (जुहोमि) = मैं प्रभु के प्रति अपना अर्पण करता हूँ। ३. (विश्वकर्मणा) = कों को सम्पूर्णरूप से करनेवाले प्रभु से (विततम्) = विस्तृत किये गये (इमं यज्ञम्) = इस यज्ञ को (सुमनस्यमाना:) = उत्तम मनवालों की भांति आचरण करते हुए (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (यन्तु) = प्राप्त हों। यज्ञों को करें, परन्तु इन यज्ञों को प्रभु से सम्पन्न होता हुआ जानें। इसप्रकार अहंकारशून्य होते हुए उत्तम मनवाले बने रहें। अहंकार आया तो यह देवों का यज्ञ न होकर असुरों का यज्ञ हो जाता है। 'यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधि पूर्वकम्।

    भावार्थ

    हम यज्ञों में प्रवृत्त हों, परन्तु उन यज्ञों को प्रभु से होता हुआ जानें।

    विशेष

    प्रस्तुत सूक्त में यज्ञमय जीवन का प्रतिपादन है। इसी यज्ञ में सहायता के लिए पति पत्नी का व पत्नी पति का वरण करती है। 'पत्युनों यज्ञसंयोगे' इस सूत्र से यज्ञसंयोग में पत्नी शब्द बनता है। पति-पत्नी को मिलकर यज्ञ को सिद्ध करना है, अत: अगला सूक्त 'पतिवेदन ऋषि का है। पति 'अग्नि' है तो पत्नी 'सोम'। पति-पत्नी के विषय में मन्त्र कहता

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    भाषार्थ

    (यज्ञस्य) संसार-यज्ञ के (चक्षुः) चक्षुवत् ज्ञापक अर्थात् प्रकाशक, (प्रभृतिः) प्रकर्षेण भरण-पोषण करनेवाले, (मुखम् च) और प्रवक्ता को, (वाचा, श्रोत्रेण, मनसा) स्तुतिवचन द्वारा, श्रवण और मनन द्वारा (जुहोमि) मैं आत्मसमर्पण करता हूँ। (विश्वकर्मणा) विश्व-के-कर्ता द्वारा (विततम्) विस्तारित (इमम् यज्ञम्) इस संसार-यज्ञ में (देवाः) देवकोटि के मुक्तात्मा (सुमनस्यमानाः) प्रसन्नमनपूर्वक (आ यन्तु१) आएं, अर्थात् मोक्षकाल की समाप्ति के पश्चात् इस यज्ञ में आएँ।]

    टिप्पणी

    [१. मुक्ति से लौटकर पुनः संसार में जन्म लेना, यह वैदिक सिद्धान्त है। ऋषि दयानन्द ने इस वैदिक सिद्धान्त को माना। यथा "कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम। को नो महा अदितये पुनर्दात् पितरं च दुषोयं मातरं च"। (ऋ० १।२४।१) के अनुसार ऋषि ने मुक्ति से लोटकर जीवात्मा के पुन: माता पिता के दर्शन करने का कथन किया है। तथा "ये मुक्तजीव मुक्ति को प्राप्त होके ब्रह्म में आनन्द का तब तक भोग के पुनः महाकल्प के पश्चात् मुक्तिमुख को छोड़कर संसार में आते हैं" (मुण्डकोपनिषद् ३।२।६) के आधार पर। तथा "प्रथम तो जीव का सामर्थ्य शरीरादि पदार्थ और साधन परिमित है, पुनः उसका फल अनन्त कैसे हो सकता है। अनन्त आनन्द के भोगने का असीम सामर्थ्य कर्म और साधन जीव में नहीं। जिनके साधन अनित्य उनका फल नित्य कभी नहीं हो सकता। और जो मुक्ति में से कोई भी लौटकर जीव इस संसार में न आवे, तो संसार का उच्छेद अर्थात् जीव नि:शेष हो जाने चाहिये" (इत्यादिः)। सत्यार्थप्रकाश नवम समुल्लास, सन्दर्भ "मुक्ति से पुनरावृत्ति"।]

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    विषय

    मोक्षमार्ग का उपदेश ।

    भावार्थ

    (यज्ञस्य) इस पुरुषमय यज्ञस्वरूप आत्मा का (चक्षुः) आंख और (मुखं च) मुख (प्रभृतिः) उसका उत्तम भरण पोषण करने वाला साधन है। एक ज्ञानभरण करता है और दूसरा अन्नभरण करता है । इस यज्ञ में (श्रोत्रेण) श्रोत्र से (वाचा) वाणी से और (मनसा) मन से भी (जुहोमि) ज्ञान की आहुतियां प्रदान करता हूं। (विश्वकर्मणा) जगत् के स्रष्टा परमेश्वर ने इस शरीर में (विततं) विस्तृत किये हुए (इमं) इस (यज्ञं) यज्ञको (देवाः) यज्ञ में विद्वान् पुरुषों के समान ये इन्द्रियगण (आ यन्तु) प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिरा ऋषि। विश्वकर्मा देवता। १ विराड् गर्भा त्रिष्टुप्। २, ३ त्रिष्टुप्। ४, ५ भुरिग्। पञ्चर्चं सूकम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom and Surrender

    Meaning

    Vishvakarma is the light of yajna, the whole creation. He is the sustainer, his is the revelation of the Word of it. I honour, adore and worship Vishvakarma and offer homage by yajna with thought, speech and participative holy chant I listen. Indeed this yajna of the universe is kindled, sustained and expanded by Vishvakarma. May all Devas, divinities of nature and nobilities of humanity, all happy at heart, come and join this yajna of homage.

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    Translation

    To Him who is the eye of the sacrifice (yajnasyacaksuh), and the mouth of the sacrifice and its sustenance (prabhrtir mukham ca), I offer oblations with my speech (vācā), by hearing (srotreņa) and by my thinking (manasa). May the enlightened ones, with friendly inclinations, come to this sacrifice, which has been spread wide by the Supreme Architect (Visvakramnā).

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    Translation

    God is the eye of Yajna, He is the main source and mouth of the Yajna. I perform the Yajna with tongue, with ears and with mind. This Yajna has been flourished by the All-creating Divinity and all learned persons concordant in their mind hold and attached this.

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    Translation

    Wise and calm are the Vedic seers, homage to them, as their mental vision is decidedly precise. Evident homage to Thee, O Adorable God, the Lord of big worlds. O Creator of the universe, we pay homage unto Thee! Guard us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५–यज्ञस्य। म० ३। पूजनीयकर्मणः। चक्षुः। म० ४। नेत्रवत् प्रदर्शको यः पुरुषोऽस्ति। प्रभृतिः। डभृञ् भरणपोषणयोः–क्तिन्। भरणम्। पोषणम् मुखम्। डित् खनेर्मुट् चोदात्तः। उ० ५।२०। इति खन विदारणे–अच्। स च डित्, धातोर्मुडागमश्च। तस्योदात्तः। खनति अन्नादिकमनेनेति। आस्यम्। मुखमिव मुख्यः। वाचा। अ० १।१।१। वाण्या। पठनपाठनकर्मणा। श्रोत्रेण। अ० २।१७।५। श्रुत्या। कर्णेन। श्रवणश्रावणकर्मणा। मनसा। मननेन। अन्तःकरणेन। निदिध्यासनेन। जुहोमि। अ० १।१५।१। आददे। स्वीकरोमि तम्। विततम्। तनु विस्तारे–क्त। विस्तृतम्। विश्वकर्मणा। परमात्मना। देवाः। व्यवहारकुशलाः। महात्मानः। यन्तु। प्राप्नुवन्तु। सुमनस्यमानाः। अ० १।३५।१। शोभनं ध्यायन्तः। शुभचिन्तकाः ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (যজ্ঞস্য) সংসার-যজ্ঞের (চক্ষুঃ) চক্ষুবৎ জ্ঞাপক অর্থাৎ প্রকাশক, (প্রভৃতিঃ) প্রকর্ষরূপে/সম্যক ভরণ-পোষণকারী, (মুখম্ চ) এবং প্রবক্তাকে, (বাচা, শ্রোত্রেণ, মনসা) স্তুতিবচন দ্বারা, শ্রবণ ও মনন দ্বারা (জুহোমি) আমি আত্মসমর্পণ করি। (বিশ্বকর্মণা) বিশ্বের কর্তা দ্বারা (বিততম্) বিস্তারিত (ইমম্ যজ্ঞং) এই সংসার-যজ্ঞে (দেবাঃ) দেবকোটির মুক্তাত্মা (সুমনস্যমানাঃ) প্রসন্নমনপূর্বক (আ যন্তু ১) আসুক অর্থাৎ মোক্ষকালের সমাপ্তির পর এই যজ্ঞে আসুক।]

    टिप्पणी

    [১. মুক্তি থেকে ফিরে পুনঃ সংসারে জন্ম নেওয়া, এটাই বৈদিক সিদ্ধান্ত। ঋষি দয়ানন্দ এই বৈদিক সিদ্ধান্ত মেনেছেন। যথা "কস্য নূনং কতমস্যামৃতানাং মনামহে চারু দেবস্য নাম। কো নো মহ্যা অদিতয়ে পুনর্দাৎ পিতরং চ দৃশেয়ং মাতরং চ"(ঋ০ ১।২৪।১) এর অনুসারে ঋষি মুক্তি থেকে ফিরে জীবাত্মার পুনঃ মাতা-পিতার দর্শন করার কথন করেছেন। এবং "এই মুক্তজীব মুক্তি প্রাপ্ত হয়ে ব্রহ্মের মধ্যে আনন্দ ততক্ষণ পর্যন্ত ভোগের পুনঃ মহাকল্পের পর মুক্তিসুখ ত্যাগ করে সংসারে আসে" (মুণ্ডকোপনিষদ্ ৩।২।৬) এর ভিত্তিতে। এবং "প্রথম তো জীবের সামর্থ্য শরীরাদি পদার্থ এবং সাধন পরিমিত, পুনঃ তার ফল অনন্ত কিভাবে হতে পারে। অনন্ত আনন্দ ভোগের অসীম সামর্থ্য কর্ম ও সাধন জীবের মধ্যে নেই। যার সাধন অনিত্য তার ফল নিত্য কখনো হতে পারে না। এবং মুক্তি থেকে ফিরে জীব এই সংসারে যদি না আসে, তাহলে সংসারের উচ্ছেদ অর্থাৎ জীব নিঃশেষ হয়ে যাওয়া উচিত" (ইত্যাদিঃ)। সত্যার্থপ্রকাশ নবম সমুল্লাস, সন্দর্ভ "মুক্তি থেকে পুনরাবৃত্তি"। ]

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    मन्त्र विषय

    পাপত্যাগাৎ সুখলাভ ইত্যুপদিশ্যতে

    भाषार्थ

    [যে পুরুষ] (যজ্ঞস্য) পূজনীয় কর্মের (চক্ষুঃ) নেত্র [নেত্রসমান প্রদর্শক], (প্রভৃতিঃ) পুষ্টি, (চ)(মুখম্) মুখ [সমান মুখ্য], [তাঁকে] (বাচা) বাণী দ্বারা, (শ্রোত্রেণ) কর্ণ দ্বারা, (মনসা) মন দ্বারা (জুহোমি) আমি স্বীকার করি। (সুমনস্যমানাঃ) শুভচিন্তকদের সদৃশ আচরণকারী (দেবাঃ) ব্যবহারকুশল মহাত্মা (বিশ্বকর্মণা) সংসারের রচয়িতা পরমেশ্বর দ্বারা (বিততম্) বিস্তৃত (ইমম্) এই (যজ্ঞম্) পূজনীয় ধর্মকে (আ যন্তু) প্রাপ্ত করুক॥৫॥

    भावार्थ

    মনুষ্যদের উচিত, সত্যসঙ্কল্পী, সত্যসন্ধ, ঋষি, মহাত্মাদের বৈদিক উপদেশকে বাণী দ্বারা পঠন-পাঠন, শ্রোত্র দ্বারা শ্রবণ-শ্রাবণ ও মন দ্বারা নিদিধ্যাসন অর্থাৎ বারংবার বিচার করে গ্রহণ করা এবং সকল অনুগ্রহশীল/কৃপালু মহাত্মা পরমেশ্বরের দ্বারা প্রদত্ত বিজ্ঞান ও ধর্মের প্রচার করতে থাকা ॥৫॥

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