अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
आ वो॑ वहन्तु॒ सप्त॑यो रघु॒ष्यदो॑ रघु॒पत्वा॑नः॒ प्र जि॑गात बा॒हुभिः॑। सी॑दता ब॒र्हिरु॒रु वः॒ सद॑स्कृ॒तं मा॒दय॑ध्वं मरुतो॒ मध्वो॒ अन्ध॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । व॒: । व॒ह॒न्तु॒ । सप्त॒य: । र॒घु॒ऽस्यद॑: । र॒घु॒ऽपत्वा॑न: । प्र । जि॒गा॒त॒ । बा॒हुऽभि॑: ॥ सीद॑त । आ । ब॒हि॑: । उ॒रु । व॒: । सद॑: ।कृ॒तम् । मा॒दय॑ध्वम् । म॒रु॒त॒: । मध्व॑: । अन्ध॑स: ॥१३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वो वहन्तु सप्तयो रघुष्यदो रघुपत्वानः प्र जिगात बाहुभिः। सीदता बर्हिरुरु वः सदस्कृतं मादयध्वं मरुतो मध्वो अन्धसः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । व: । वहन्तु । सप्तय: । रघुऽस्यद: । रघुऽपत्वान: । प्र । जिगात । बाहुऽभि: ॥ सीदत । आ । बहि: । उरु । व: । सद: ।कृतम् । मादयध्वम् । मरुत: । मध्व: । अन्धस: ॥१३.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और विद्वानों के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(मरुतः) हे विद्वान् शूरो ! (वः) तुमको (रघुष्यदः) शीघ्रगामी (सप्तयः) घोड़े (आ) सब ओर (वहन्तु) ले चलें, (रघुपत्वानः) शीघ्रगामी तुम (बाहुभिः) भुजाओं [हस्तक्रियाओं] से (प्र जिगात) आगे बढ़ो। और (उरु) चौड़े (बर्हिः) आकाश में (आ सीदत) आओ जाओ, (वः) तुम्हारे लिये (सदः) स्थान (कृतम्) बनाया गया है, (मध्वः) मधुर (अन्धसः) अन्न से (मादयध्वम्) [सबको] तृप्त करो ॥२॥
भावार्थ
विद्वान् लोग क्रियाकुशल होकर शिल्पविद्या से यान विमान आदि द्वारा जल, थल और आकाश में जाना-आना करके अन्न आदि उत्तम पदार्थों की प्राप्ति से सबको प्रसन्न करें। मरुत् लोगों के विषय में-अथ० १।२०।१ देखो ॥२॥
टिप्पणी
यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।८।६ ॥ २−(आ) समन्तात् (वः) युष्मान् (वहन्तु) नयन्तु (सप्तयः) वसेस्तिः। उ० ४।१८०। षप समवाये-तिप्रत्ययः, यद्वा सृप्लृ गतौ-तिप्रत्यये गुणे च रेफलोपः। सप्तेः सरणस्य-निरु० ९।३। अश्वाः-निघ० १।१४ (रघुष्यदः) रघि गतौ-उप्रत्ययो नकारलोपश्च+स्यन्दू प्रस्रवणे-क्विप्। रघु शीघ्रं स्यन्दमाना वेगेन गच्छन्तः (रघुपत्वानः) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७। रघु+पत्लृ गतौ-वनिप्। रघु शीघ्रं पतन्तो गच्छन्तो यूयम् (प्र) प्रकर्षेण (जिगात) गा स्तुतौ जुहोत्यादिकः। जिगातीति गतिकर्मा-निघ० २।१४। गच्छत (बाहुभिः) भुजैः। हस्तक्रियाभिः (आसीदत) गमनागमनं कुरुत (बर्हिः) अन्तरिक्षम्-निघ० १।३ (उरु) विस्तीर्णम् (वः) युष्मभ्यम् (सदः) स्थानम् (कृतम) रचितम् (मादयध्वम्) तर्पयत सर्वान् (मरुतः) अ० १।२०।१। हे विद्वांसः शूराः (मध्वः) मधुरात् (अन्धसः) अन्नात् ॥
विषय
गोतम
पदार्थ
१. हे (मरुतः) = प्राणो! (व:) = तुम्हें (रघुष्यदः) = शीघ्र गतिवाले अपने-अपने कार्यों को स्फूर्ति से करनेवाले (सप्तयः) = इन्द्रियाश्व (आवहन्तु) = हमें प्राप्त कराएँ। वस्तुत: इन्द्रियों का अपने कार्यों में लगे रहना-आलस्य में न पड़ना प्राणशक्ति का वर्धन करता है। हे (रघुपत्वान:) = शीघ्र गतिवाले जीवन को गतिमय बनानेवाले प्राणो! आप (बाहुभिः) = [बाह प्रयत्ने] विविध प्रयत्नों के साथ हमें (प्रजिगात) = प्राप्त होओ। प्राणशक्ति के होने पर मनुष्य सतत गतिवाला-आलस्यशून्य होता है। २. हे प्राणो! (बर्हिः सीदत) = हृदयान्तरिक्ष में आसीन होओ, हृदय को वस्तुत: तुम्हीं ने वासनाओं के उद्बर्हण से 'बर्हि' बनाना है। (वः) = तुम्हारे द्वारा (सदः) = वह हृदयासन उरु (कृतम्) = विशाल बनाया गया है। प्राणसाधना से हृदय विशाल बनता है। हे (मरुतः) = प्राणो! (मध्वः) = जीवन को मधुर बनानेवाले (अन्धसः) = सोम के द्वारा-शरीर में सोम-रक्षण के द्वारा हमारे जीवन को (मादयध्वम्) = आनन्दयुक्त करो।
भावार्थ
इन्द्रियों के अपने-अपने कर्मों में लगे रहने से प्राणशक्ति बढ़ती है। प्राणशक्ति की वृद्धि हमें आलस्यशून्य बनाती है। प्राणसाधना से हृदय पवित्र व विशाल बनता है। यह प्राण साधना सोम-रक्षण द्वारा जीवन को आनन्दमय बनाती है। इसप्रकार यह साधक 'गोतम' बनता है।
भाषार्थ
(मरुतः) हे सैनिक योद्धाओ, या अधिकारियो! (वः) आपको (रघुष्यदः) शीघ्रगामी रथ तथा (रघुपत्वानः सप्तयः) शीघ्रगामी अश्व (आ वहन्तु) उपासना-यज्ञों में लाया करें। आप (बाहुभिः) अपने बाहुबलों द्वारा (प्र जिगात) शत्रुओं पर विजय पाइए। (बर्हिः) कुशासनों पर (सीदत) आकर बैठिये। (वः) तुम्हारे लिए (उरु) यह महती (सदः कृतम्) यज्ञशाला रची गई है। और (मध्वः) मधुर (अन्धसः) भक्तिरसरूपी आध्यात्मिक-अन्न से (मादयध्वम्) अपनी आत्माओं को प्रसन्न कीजिए।
टिप्पणी
[मरुतः=“इन्द्रः सेनां मोहयतु मरुतो घ्नन्त्वोजसा” (अथर्व০ ३.१.६), तथा=“असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना। ताँ विध्यत.....” (अथर्व০ ३.२.६) में “मरुतः” पद द्वारा सैनिक यौद्धा अभिप्रेत हैं। रघुष्यदः=रघु (=शीघ्र)+स्यदः (=स्यन्दन अर्थात् रथ); स्यन्दनः= war chariot (आप्टे)।]
विषय
राजा के राज्य की व्यवस्था।
भावार्थ
हे (मरुतः) वायु के समान तीव्र गति वाले या शत्रुओं को मारने में समर्थ या विद्वान् वीर पुरुषो ! (वः) तुम लोगों को (रघुष्यदः) अति वेग वाले (सप्तयः) सर्पणशील अश्व (वहन्तु) सर्वत्र सवारी दें। और आप लोग (रघुपत्वानः) वेग से दौड़ते हुए (बाहुभिः) अपनी बाहुओं से और शत्रुओं को पीड़ा देने वाले अस्त्रों से (प्र जिगात) अच्छी प्रकार विजय करो या आगे बढ़ो। आप लोग (बर्हिः) आसनों पर, सिंहासन पर (सीदत) विराजें। (वः) आप लोगों के लिये (उरु सदः कृतम्) विशाल भवन बनाया जाय। आप लोग (मध्वः अन्धसः) मधुर अन्न आदि उपभोग्य पदार्थों से (मादयध्वम्) सदा तृप्ति लाभ करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
क्रमशः वामदेवगोतमकुत्सविश्वामित्रा ऋषयः। इन्द्राबृहस्पती, मरुतः अग्निश्च देवताः। १, ३ जगत्यः। ४ त्रिष्टुप। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Maruts, may superfast vehicles transport you here and everywhere. May the flying planes at top speed take you anywhere by the force of their arms. Come, the chamber is made ready for you. Come and be comfortable in the seats. Enjoy yourselves with honey sweets of food and drink.
Translation
O Marutah (priests of Yajna) let you carry the horses who are quick in speed and swift in glide. You possessing swiftness and actions conquer the enemies with your arms. You sit on the wide seat of grass made for you and delight ourselves in this sweet food.
Translation
O Marutah (priests of Yajna) jet you carry the horses who are quick in speed and swift in glide. You possessing swiftness and actions conquer the enemies with your arms. You sit on the wide seat of grass made for you and delight yourselves in this sweet food.
Translation
O brave and the learned persons, moving fast like the wind, let the fastmoving horses, the automobiles or the gliders carry you in all directions. Rushing speedily on your feet or wheels, thoroughly conquer the foes with strong aims or missiles; Be seated on the throne. Here is a grand palace built for you. Enjoy yourselves with sweet dishes of rich food.
Footnote
Cf. Rig, 1.85.6.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।८।६ ॥ २−(आ) समन्तात् (वः) युष्मान् (वहन्तु) नयन्तु (सप्तयः) वसेस्तिः। उ० ४।१८०। षप समवाये-तिप्रत्ययः, यद्वा सृप्लृ गतौ-तिप्रत्यये गुणे च रेफलोपः। सप्तेः सरणस्य-निरु० ९।३। अश्वाः-निघ० १।१४ (रघुष्यदः) रघि गतौ-उप्रत्ययो नकारलोपश्च+स्यन्दू प्रस्रवणे-क्विप्। रघु शीघ्रं स्यन्दमाना वेगेन गच्छन्तः (रघुपत्वानः) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७। रघु+पत्लृ गतौ-वनिप्। रघु शीघ्रं पतन्तो गच्छन्तो यूयम् (प्र) प्रकर्षेण (जिगात) गा स्तुतौ जुहोत्यादिकः। जिगातीति गतिकर्मा-निघ० २।१४। गच्छत (बाहुभिः) भुजैः। हस्तक्रियाभिः (आसीदत) गमनागमनं कुरुत (बर्हिः) अन्तरिक्षम्-निघ० १।३ (उरु) विस्तीर्णम् (वः) युष्मभ्यम् (सदः) स्थानम् (कृतम) रचितम् (मादयध्वम्) तर्पयत सर्वान् (मरुतः) अ० १।२०।१। हे विद्वांसः शूराः (मध्वः) मधुरात् (अन्धसः) अन्नात् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজবিদ্বদ্গুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(মরুতঃ) হে বিদ্বান বীরগন ! (বঃ) তোমাদের (রঘুষ্যদঃ) শীঘ্রগামী (সপ্তয়ঃ) ঘোড়া (আ) সকল দিকে (বহন্তু) বহন করুক, (রঘুপত্বানঃ) শীঘ্রগামী তোমরা (বাহুভিঃ) বাহু [হস্তক্রিয়া] দ্বারা (প্র জিগাত) অগ্রসর হও। এবং (উরু) বিস্তীর্ণ (বর্হিঃ) আকাশে (আ সীদত) আগমন-গমন করো, (বঃ) তোমাদের জন্য (সদঃ) স্থান (কৃতম্) রচিত হয়েছে, (মধ্বঃ) মধুর (অন্ধসঃ) অন্ন দ্বারা (মাদয়ধ্বম্) [সকলকে] তৃপ্ত করো॥২॥
भावार्थ
বিদ্বান ব্যক্তি ক্রিয়াকুশল হয়ে শিল্পবিদ্যার মাধ্যমে যান বিমান প্রভৃতি দ্বারা জল, স্থল ও আকাশে আসা যাওয়া করে অন্ন আদি উত্তম পদার্থের প্রাপ্তি দ্বারা সকলকে প্রসন্ন করে/করুক। মরুৎ লোকেদের বিষয়ে -অথ০ ১।২০।১ দেখো ॥২॥ এই মন্ত্র ঋগ্বেদে আছে -১।৮।৬।
भाषार्थ
(মরুতঃ) হে সৈনিক যোদ্ধাগণ, বা অধিকারীগণ! (বঃ) আপনাদের (রঘুষ্যদঃ) শীঘ্রগামী রথ তথা (রঘুপত্বানঃ সপ্তয়ঃ) শীঘ্রগামী অশ্ব (আ বহন্তু) উপাসনা-যজ্ঞে নিয়ে এসেছে। আপনারা (বাহুভিঃ) নিজেদের বাহুবল দ্বারা (প্র জিগাত) শত্রুদের ওপর বিজয় প্রাপ্ত করুন। (বর্হিঃ) কুশ-আসনের ওপর (সীদত) এসে বসুন। (বঃ) তোমাদের জন্য (উরু) এই মহতী (সদঃ কৃতম্) যজ্ঞশালা রচনা করা/রচিত হয়েছে। এবং (মধ্বঃ) মধুর (অন্ধসঃ) ভক্তিরসরূপী আধ্যাত্মিক-অন্ন দ্বারা (মাদয়ধ্বম্) নিজ-নিজ আত্মাকে প্রসন্ন করুন।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal