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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१३
    53

    ऐभि॑रग्ने स॒रथं॑ याह्य॒र्वाङ्ना॑नार॒थं वा॑ वि॒भवो॒ ह्यश्वाः॑। पत्नी॑वतस्त्रिं॒शतं॒ त्रींश्च॑ दे॒वान॑नुष्व॒धमा व॑ह मा॒दय॑स्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ए॒भि॒: । अ॒ग्ने॒ । स॒ऽरथ॑म् । या॒हि॒ । अ॒र्वा॒ङ् । ना॒ना॒ऽर॒थम् । वा॒ । वि॒ऽभव॑: । हि । अश्वा॑: ॥ पत्नी॑ऽवत: । त्रिं॒शत॑म् । त्रीन् । च॒ । दे॒वान् । अ॒नु॒ऽस्व॒धम् । आ । व॒ह॒ । मा॒दय॑स्व ॥१३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऐभिरग्ने सरथं याह्यर्वाङ्नानारथं वा विभवो ह्यश्वाः। पत्नीवतस्त्रिंशतं त्रींश्च देवाननुष्वधमा वह मादयस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । एभि: । अग्ने । सऽरथम् । याहि । अर्वाङ् । नानाऽरथम् । वा । विऽभव: । हि । अश्वा: ॥ पत्नीऽवत: । त्रिंशतम् । त्रीन् । च । देवान् । अनुऽस्वधम् । आ । वह । मादयस्व ॥१३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 13; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और विद्वानों के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि ! [तेजस्वी विद्वान्] (एभिः) इन [घोड़ों] से (सरथम्) एक से रथोंवाले (वा) और (नानारथम्) नाना प्रकार के रथोंवाले [मार्ग] को (अर्वाङ्) सामने होकर (आ याहि) आ, (हि) क्योंकि [तेरे] (अश्वाः) घोड़े (विभवः) प्रबल हैं। और (पत्नीवतः) पालनशक्तियों [सूक्ष्म अवस्थाओं] से युक्त (त्रिंशतम्) तीस (च) और (त्रीन्) तीन [तेंतीस अर्थात् आठ वसु आदि] (देवान्) दिव्य पदार्थों को (अनुष्वधम्) अन्न के लिये (आ) यथावत् (वह) प्राप्त हो, और [सबको] (मादयस्व) हर्षित कर ॥४॥

    भावार्थ

    तेंतीस देवता वा दिव्य पदार्थ यह हैं−अग्नि पृथिवी आदि आठ वसु, प्राण, अपान आदि ग्यारह रुद्र, चैत्र आदि बारह आदित्य वा महीने, एक इन्द्र वा बिजुली, एक प्रजापति वा यज्ञ-देखो अथर्ववेद-६।१३९।१। भाव यह है कि विज्ञानी शिल्पी पुरुष इन तेंतीस दिव्य पदार्थों के बाहिरी आकार और भीतरी सूक्ष्म शक्तियों को भली-भाँति समझकर अद्भुत यान-विमान आदि बनाकर संसार को सुख पहुँचावें ॥४॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र ऋग्वेद में है-३।६।९ ॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥ ४−(आ याहि) आगच्छ (एभिः) अश्वैः (अग्ने) हे तेजस्विन् विद्वन् (सरथम्) समानस्यच्छन्दस्यमूर्द्धप्रभृत्युदर्केषु। पा० ६।३।८४। समानस्य सभावः। समानाः सदृशा रथा यस्मिंस्तं मार्गम् (अर्वाङ्) अभिमुखः (नानारथम्) बहुविधा रथा यस्मिंस्तं मार्गम् (वा) समुच्चये (विभवः) प्रभवः। प्रबलाः (हि) यतः (अश्वाः) तुरङ्गाः (पत्नीवतः) पालनशक्तिभिः सूक्ष्मावस्थाभिर्युक्तान् (त्रिंशतम्) (त्रीन्) (च) (देवान्) अ० ६।१३९।१। अष्टवस्वादीन् दिव्यपदार्थान् (अनुष्वधम्) स्वधेत्यन्ननाम-निघ० २।७। स्वधाम् अन्नम् अनुलक्ष्य (आ) यथावत् (वह) प्राप्नुहि (मादयस्व) आनन्दय सर्वान् ॥

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    विषय

    विश्वामित्र

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन्! (ऐभिः) = इन सब देवों के साथ आप (सरथम्) = समान शरीर-रथ में (अर्वाङ्) = आभिमुख्येन (आयाहि) = प्राप्त होइए। (नानारथम्) = विविध शक्तियों [देवों] से युक्त होने के कारण उस-उस देव के रथ के रूप में इस नानारथरूप शरीर को आप (वा) = निश्चय से प्रास होइए। (अश्वा:) = इस शरीर-रथ के ये इन्द्रियाश्व (हि) = निश्चय से (विभव:) = विशिष्ट शक्ति से युक्त हैं। प्रभु की उपासना इन्हें शक्तिशाली बनती ही है। २.हे प्रभो। आप (पत्नीवतः) = सपत्नीक शक्तिरूप पत्नियों से युक्त-इन (त्रिंशतं त्रीन् च) = तीस और तीन-तेतीस (देवान्) = देवों को (अनुष्वधम्) = स्वधा का-आत्मधारण-शक्ति का लक्ष्य करके (आवह) = प्राप्त कराइए और (मादयस्व) = हमारे जीवनों को आनन्दित कीजिए। शरीर पृथिवीलोक है, हदय अन्तरिक्षलोक है, मस्तिष्क धुलोक है। इन लोकों में ११-११ देवों का निवास है। प्रभु की उपासना से ये सब देव हमारे शरीर में उपस्थित होते हैं 'सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवासते'। आँख में सूर्य, नासिका में वायु, मुख में अग्नि, बदय में चन्द्रमा और इसी प्रकार अन्य सब देवों की शरीर में स्थिति है। इनके साथ चौंतीसवाँ महादेव होता है। इस शरीर को धारण करनेवाला यह उपासक "विश्वामित्र' होता है-सबके प्रति स्नेहवाला-कटुता से शून्य।

    भावार्थ

    सब देवों के साथ प्रभु हमें इस शरीर में प्राप्त हों। हमारा यह शरीर देव-मन्दिर बने। इस मन्दिर के पुजारी हम 'विश्वामित्र' बनें। गत सूक्त के अनुसार यदि मैं प्रथमाश्रम में वामदेव'-सुन्दर दिव्यगुणोंवाला बनने का प्रयत्न करता हूँ। द्वितीया श्राम में इन्द्रियों को विषयों में न फंसने देकर 'गोतम' बनता हूँ, तथा तृतीय आश्रम में बासनाओं का पूर्ण संहार करके 'कुत्स' होता हूँ और चौथे आश्रम में 'विश्वामित्र' बनता हूँ तो मैं सचमुच 'सोभरि' हूँ-जिसने अपना उत्तम भरण किया है। यह "सोभरि' ही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे राष्ट्रग्रणी प्रधानमन्त्री! (एभिः) इन अधिकारियों के साथ आप (सरथम्) रथारूढ़ होकर (अर्वाङ्) इन प्रजाजनों की ओर (आयाहि) आइए। (नानारथम्) आपके अधिकार में नाना रथ हैं। (वा) तथा आपके पास (विभवः) प्रभूत सम्पत्तियाँ हैं, (अश्वाः) और नाना अश्व हैं। हे अग्रणी प्रधानमन्त्री! (पत्नीवतः) सपत्नीक (त्रिशतं त्रीन् च देवान्) ३३ देवों को (आ वह) हम प्रजाजनों की ओर आने में प्रेरित किया कीजिए। और वे (अनु स्वधम्) अपनी-अपनी रुचि के अनुसार, प्रजा द्वारा सत्कार में समर्पित अन्न का ग्रहण करके (मादयस्व) अपने आपको प्रसन्न करें, तथा प्रजाजनों को भी प्रसन्न किया करें।

    टिप्पणी

    [राष्ट्र की दृष्टि से आधिभौतिक ३३ देवता निम्नलिखित हैं—८ जो वसु-उपाधिवाले स्नातक हैं, ११ जो कि रुद्र-उपाधिवाले स्नातक, तथा १२ आदित्य-उपाधिवाले स्नातक, तथा १ इन्द्र अर्थात् सम्राट्, और १ बृहस्पति अर्थात् सेना का अध्यक्ष। राष्ट्र के शासन के लिए ये ३३ मुख्य अधिकारी नियत करने चाहिएँ। प्रधानमन्त्री ३४वां अधिकारी है। २४ वर्षों की आयु तक जिन्होंने ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन किया है, उन्हें ‘वसु कहते हैं। ४४ वर्षों की आयु तक तथा ४८ वर्षों की आयु तक ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करनेवाले को ‘रुद्र’ तथा ‘आदित्य’ कहते हैं। ये सभी सदाचारी, संयमी, तपस्वी तथा नाना विद्याओं में निष्णात होते हैं। अतः शासन-व्यवस्था को ठीक प्रकार चला सकते हैं। ये सब विवाहित होने चाहिएँ, ताकि सर्वसाधारण गृहस्थ-प्रजाजनों की आवश्यकताओं को जानकर ठीक-ठीक शासन-व्यवस्था करें। ये सब देव अर्थात् दिव्यगुणोंवाले होने चाहिएँ।]

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    विषय

    राजा के राज्य की व्यवस्था।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने ! अग्रणी, ज्ञानवन् ! विद्वन् ! राजन् ! (एभिः) इन वीर पुरुषों सहित आप (सरथम्) अपने रथ से (वा) और (नाना रथं) नाना अन्य वीरों के नाना रथों से युक्त होकर (अर्वाङ् याहि) आगे प्रयाण कर। तेरे (अश्वाः) अश्व, अश्वारोही गण ही (विभवः) विशेष शक्तिशाली हों। तू (त्रिंशतं त्रीन् च) ३३ (देवान्) देव, विजिगीषु राजाओं को उनकी (पत्नीवतः) पालन करने हारी सेना या शक्तियों सहित या उनकी स्त्रियों सहित (अनुस्वधम्) उनके अपने भरण पोषणोचित धन अन्न आदि के अनुकूल उनको (वह) अपने साथ रख और उनको (मादयस्व) संतृप्त कर, सुखी प्रसन्न रख।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    क्रमशः वामदेवगोतमकुत्सविश्वामित्रा ऋषयः। इन्द्राबृहस्पती, मरुतः अग्निश्च देवताः। १, ३ जगत्यः। ४ त्रिष्टुप। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    With these devas, come hither to us, Agni, Spirit of light and fire, knowledge and power and the ecstasy of life, come by one chariot or many. Exalted and omnipresent and expansive are your beams of light which transport your chariot over the quarters of space. Bring along the thirty-three devas, divinities of nature and spirit, all bountiful, with all their virtues and attributes and rejoice in the beauty of life with us.

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    Translation

    O man refulgent with knowledge, these horses are very swift. You by them come to us in one chariot or in many chariots. You make thirty three Devas, the wondrous powers of nature with their preserving forces to -come in the Yajna according to their oblations and thus make them have their shares of offerings of Yajna..

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    Translation

    O man refulgent with knowledge, these horses are very swift. You by them come to us in one chariot or in many chariots. You make thirty three Devas, the wondrous powers of nature with their preserving forces to come in the Yajna according to their oblations and thus make them have their shares of offerings of Yajna.

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    Translation

    O King, commander or the learned scholar, come, along with these brave persons, in your chariot, car or plane, accompanied by numerous cars or planes of others in the vanguard. May your fast cavalcade or squadron have a special striking power. Let all the thirty-three divine powers, along with subsidiary energies, enhanced by suitable processes be carried along with you and be a source of pleasure and joy for you.

    Footnote

    Cf. Rig, 3.6.9. Thirty-tree: 12 Adityas, 11 Rudras, 8 Basus, Indra and Prajapati, i.e., all those natural forces must be utilised for making useful means of conveyance and defence by a king, commander or a learned person.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र ऋग्वेद में है-३।६।९ ॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥ ४−(आ याहि) आगच्छ (एभिः) अश्वैः (अग्ने) हे तेजस्विन् विद्वन् (सरथम्) समानस्यच्छन्दस्यमूर्द्धप्रभृत्युदर्केषु। पा० ६।३।८४। समानस्य सभावः। समानाः सदृशा रथा यस्मिंस्तं मार्गम् (अर्वाङ्) अभिमुखः (नानारथम्) बहुविधा रथा यस्मिंस्तं मार्गम् (वा) समुच्चये (विभवः) प्रभवः। प्रबलाः (हि) यतः (अश्वाः) तुरङ्गाः (पत्नीवतः) पालनशक्तिभिः सूक्ष्मावस्थाभिर्युक्तान् (त्रिंशतम्) (त्रीन्) (च) (देवान्) अ० ६।१३९।१। अष्टवस्वादीन् दिव्यपदार्थान् (अनुष्वधम्) स्वधेत्यन्ननाम-निघ० २।७। स्वधाम् अन्नम् अनुलक्ष्य (आ) यथावत् (वह) प्राप्नुहि (मादयस्व) आनन्दय सर्वान् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজবিদ্বদ্গুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে অগ্নি ! [তেজস্বী বিদ্বান্] (এভিঃ) এই [ঘোড়া দ্বারা] (সরথম্) এক সমান রথযুক্ত (বা) এবং (নানারথম্) নানা প্রকারের রথযুক্ত [মার্গের] (অর্বাঙ্) অভিমুখে (আ যাহি) এসো, (হি) কারণ [তোমার] (অশ্বাঃ) ঘোড়া (বিভবঃ) প্রবল । এবং (পত্নীবতঃ) পালন শক্তি [সূক্ষ্ম অবস্থা] যুক্ত (ত্রিংশতম্) ত্রিশ (চ) এবং (ত্রীন্) তিন [তেত্রিশ অর্থাৎ আট বসু আদি] (দেবান্) দিব্য পদার্থ-সমূহকে (অনুষ্বধম্) অন্নের জন্য (আ) যথাবৎ (বহ) প্রাপ্ত হও, এবং [সকলকে] (মাদয়স্ব) হর্ষিত করো ॥৪॥

    भावार्थ

    তেত্রিশ দেবতা বা দিব্য পদার্থ হলো −অগ্নি পৃথিবী আদি আট বসু, প্রাণ, অপান আদি একাদশ রুদ্র, চৈত্র আদি বারো আদিত্য বা মাস, এক ইন্দ্র বা বিদ্যুৎ, এক প্রজাপতি বা যজ্ঞ ৷ দেখুন অথর্ববেদ- ৬।১৩৯।১। এখানে ভাব হলো, বিজ্ঞানী শিল্পী পুরুষ, এই তেত্রিশ দিব্য পদার্থের বাইরের আকার ও ভিতরের সূক্ষ্ম শক্তিকে উত্তমরূপে জ্ঞাত হয়ে যান-বিমান আদি প্রস্তুত করে সংসারে সুখ প্রেরণ/প্রদান করুক ॥৪॥

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    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে রাষ্ট্রগ্রণী প্রধানমন্ত্রী! (এভিঃ) এই অধিকারীদের সাথে আপনি (সরথম্) রথারূঢ় হয়ে (অর্বাঙ্) এই প্রজাদের দিকে (আয়াহি) আসুন। (নানারথম্) আপনার অধিকারে নানা রথ আছে। (বা) তথা আপনার কাছে (বিভবঃ) প্রভূত সম্পত্তি আছে, (অশ্বাঃ) এবং নানা অশ্ব আছে। হে অগ্রণী প্রধানমন্ত্রী! (পত্নীবতঃ) সপত্নীক (ত্রিশতং ত্রীন্ চ দেবান্) ৩৩ দেবতাদের (আ বহ) আমাদের প্রজাদের দিকে আসার/আগমনের জন্য প্রেরিত করুন। এবং (অনু স্বধম্) নিজ-নিজ রুচি অনুসারে, প্রজা দ্বারা সৎকারে সমর্পিত অন্ন গ্রহণ করে (মাদয়স্ব) নিজেকে প্রসন্ন করুন, তথা প্রজাদেরও প্রসন্ন করুন।

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