अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 8
अश्नापि॑नद्धं॒ मधु॒ पर्य॑पश्य॒न्मत्स्यं॒ न दी॒न उ॒दनि॑ क्षि॒यन्त॑म्। निष्टज्ज॑भार चम॒सं न वृ॒क्षाद्बृह॒स्पति॑र्विर॒वेणा॑ वि॒कृत्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअश्ना॑ । अपि॑ऽनद्धम् । मधु॑ । परि॑ । अ॒प॒श्य॒त । मत्स्य॑म् । न । दी॒ने । उ॒द॑नि । क्षि॒यन्त॑म् ॥ नि: । तत् । ज॒भा॒र॒ । च॒म॒सम् । न । वृ॒क्षात् । बृह॒स्पति॑: । वि॒ऽर॒वेण॑ । वि॒ऽकृत्य॑ ॥१६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्नापिनद्धं मधु पर्यपश्यन्मत्स्यं न दीन उदनि क्षियन्तम्। निष्टज्जभार चमसं न वृक्षाद्बृहस्पतिर्विरवेणा विकृत्य ॥
स्वर रहित पद पाठअश्ना । अपिऽनद्धम् । मधु । परि । अपश्यत । मत्स्यम् । न । दीने । उदनि । क्षियन्तम् ॥ नि: । तत् । जभार । चमसम् । न । वृक्षात् । बृहस्पति: । विऽरवेण । विऽकृत्य ॥१६.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी वेदवाणी के रक्षक महाविद्वान्] ने (अश्ना) फैले हुए [अज्ञान] से (अपिनद्धम्) ढके हुए (मधु) ज्ञान को, (दीने) थोड़े (उदनि) जल में (क्षियन्तम्) रहती हुई (मत्स्यम् न) मछली के समान, (परि) सब ओर से (अपश्यत्) देखा, और (वृक्षात्) वृक्ष से (चमसम् न) अन्न के समान, (तत्) उस [ज्ञान] को (विरवेण) विशेष ध्वनि के साथ (विकृत्य) हल-चल करके (निः जभार) बाहिर लाया ॥८॥
भावार्थ
विद्वान् पुरुष जब संसार में अज्ञान के कारण से ज्ञान के फैलाव में ऐसी रोक देखे, जैसे मछली थोड़े जल में नहीं चल-फिर सकती है, वह पुरुष विशेष प्रयत्न करके ज्ञान का विस्तार करे, जैसे वृक्ष से अन्न अर्थात् फल लेकर उपकार करते हैं ॥८॥
टिप्पणी
मन्त्र ७ की टिप्पणी देखो ॥ ८−(अश्ना) अश्मना। व्यापकेन अज्ञानेन (अपिनद्धम्) पिहितम् (मधु) म० ४। ज्ञानम् (परि) सर्वतः (अपश्यत्) अद्राक्षीत् (मत्स्यम्) जलजन्तुविशेषम् (न) यथा (दीने) क्षीणे। अल्पे (उदनि) उदके (क्षियन्तम्) निवसन्तम् (निर्जभार) निर्जहार। बहिश्चकार (चमसम्) अन्नम्। फलम् (न) यथा (वृक्षात्) तरुसकाशात् (बृहस्पतिः) महाविद्वान् पुरुषः (विरवेण) विशेषध्वनिना (विकृत्य) विकारं गत्वा ॥
विषय
चमसं न वृक्षाद्
पदार्थ
१. (बृहस्पतिः) = ब्रह्मणस्पति प्रभु ने जीव के (मधु) = जीवन को मधुर बनानेवाले ज्ञान को (अश्ना) = [अश्मना] अविद्यापर्वत से (अपिनद्धम्) = ढका हुआ (पर्यपश्यत्) = देखा। इसप्रकार देखा, (न) = जैसेकि (दीने) = परिक्षीण (उदनि) = जल में (क्षियन्तम्) = निवास करते हुए (मत्स्यम्) = मछली को कोई देखता है। २. परमात्मा ने (तत्) = उस मधु को (विरवेण) = विशिष्ट शब्दों द्वारा (विकृत्य) = अविद्यापर्वत का विदारण करके (निर्जभार) = बाहर किया-प्रकट किया। इसप्रकार प्रकट किया (न) = जैसेकि (वृक्षात्) = वृक्ष से (विकृत्य) = काट कर-छील-छालकर (चमसम्) = पात्र को अलग किया जाता है। प्रभु का यही महान् अनुग्रह हैं।
भावार्थ
हृदयास्थ प्रभु विशिष्ट प्रेरणात्मक शब्दों द्वारा, अज्ञान को नष्ट करके, ज्ञान प्राप्त कराते हैं।
भाषार्थ
(बृहस्पतिः) बृहती-पृथिवी के अधिपति वायु ने (अश्ना पिनद्धम्) मेघ से बन्धे पड़े (मधु) मधुर-जल को (पर्यपश्यत्) जान लिया। (न) जैसे कि (दीने उदनि) अल्प जल में (क्षियन्तम्) पड़ी (मत्स्यम्) मछली को जान लिया जाता है। वायु ने (विरवेण) विशेष गरजनावाले विद्युद्-वज्र के द्वारा (विकृत्य) मेघ को काट कर (तत्) उस मधुर-जल को (निर् जभार) निकाल लिया। (न) जैसे कि बढ़ई (वृक्षात्) वृक्ष को काट कर उससे (चमसम्) खान-पान के बर्तन निकला लेता है, बना लेता है।
टिप्पणी
[वायु यद्यपि जड़ है, तो भी वायु का वर्णन हुआ है मानो वह चेतन है। कवि सम्प्रदाय में जड़ वस्तु का भी वर्णन चेतनवत् किया जाता है। वेदो में परमेश्वर को कवि कहा है। यथा—“कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः” (यजुः০ ४०.८)। तथा वेद को काव्य कहा है, यथा—“देवस्य पश्य काव्यम्” (अथर्व০ १०.८.३२)। निरुक्तकार ने भी कहा है। यथा—“अचेतनान्यप्येवं स्तूयन्ते यथाक्षप्रभृतीन्योषधिपर्यन्तानि” (७.२.७) इत्यादि। आधिभौतिक दृष्टि में सेनापति ने फैली हुई पर्वतश्रेणी में बन्धे पड़े मधुर-जल के स्रोत को देखा, और विद्युद्-वज्र के द्वारा पर्वतों को काट कर नदीरूप में या नहर के रूप में उस बन्धे जल को अपने राष्ट्र में प्राप्त कर लिया।
विषय
परमेश्वर की उपासना और वेदवाणियों का प्रकाशित होना
भावार्थ
(दीने उदनि) थोड़े से जल में (क्षियन्तम् मत्स्यं न) निवास करने वाली मछली को जिस प्रकार लोग देख लेते हैं उसी प्रकार (बृहस्पतिः) महान् वेदज्ञ, वेदवाणी का पालक विद्वान् पुरुष भी (अश्ना) व्यापक परमात्मा से (अपिनद्धम्) ढके हुए (मधु) ज्ञानरूप मधु को (परि अपश्यत्) सब प्रकार से साक्षात् करता है। और जिस प्रकार (वृक्षात्) वृक्ष के लक्कड़ से (विकृत्य) औज़ारों से काट काट कर (चमसं न) कारीगर पात्र को (निः जभार) निकाल लेता है उसी प्रकार (बृहस्पतिः) वेदज्ञ विद्वान् (विरवेण) विशेष शब्द-विज्ञान द्वारा (वि कृत्य) वेदमन्त्रों की विविध व्याख्या करके (तत् मधु) उस परम ज्ञान को (निजभार) निकाल लेता है। विद्वान् पुरुष वेदों से किस प्रकार ज्ञान प्राप्त करता है उसका प्रकार इस मन्त्र में दर्शाया है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अयास्य ऋषिः। बृहस्पतिर्देवता। त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Brhaspati sees the sweetness and beauty of human life caught up in the bonds of pleasure and sufferance in the body like a fish caught up in shallow waters, and he raises and refines it like a cup of soma for the divinities, crafted from rough wood, having refined and blest it by the resounding voice of revelation.8. Brhaspati sees the sweetness and beauty of human life caught up in the bonds of pleasure and sufferance in the body like a fish caught up in shallow waters, and he raises and refines it like a cup of soma for the divinities, crafted from rough wood, having refined and blest it by the resounding voice of revelation.
Translation
Brihaspati grasps the water (Madhu) which rests bound or coverd in the cloud like one who sees the fish living in the scanty water and brings them out cleaving through with varried clamon like bowl coming out of the timber.
Translation
Brihaspati grasps the water (Madhu) which rests bound or covered in the cloud like one who sees the fish living in the scanty water and brings them out cleaving through with varied clamon like bowl coming out of the timber.
Translation
Just as the people can easily see the fish, living in a shallow water, similarly does the great Vedic scholar perceive the sweet knowledge of the Vedas, lying hidden in the All-pervading God. He extracts it by explaining the Vedic words with special exposition, just as a carpenter carves out a ladle Irom the tree (i.e., wood).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
मन्त्र ७ की टिप्पणी देखो ॥ ८−(अश्ना) अश्मना। व्यापकेन अज्ञानेन (अपिनद्धम्) पिहितम् (मधु) म० ४। ज्ञानम् (परि) सर्वतः (अपश्यत्) अद्राक्षीत् (मत्स्यम्) जलजन्तुविशेषम् (न) यथा (दीने) क्षीणे। अल्पे (उदनि) उदके (क्षियन्तम्) निवसन्तम् (निर्जभार) निर्जहार। बहिश्चकार (चमसम्) अन्नम्। फलम् (न) यथा (वृक्षात्) तरुसकाशात् (बृहस्पतिः) महाविद्वान् पुरुषः (विरवेण) विशेषध्वनिना (विकृत्य) विकारं गत्वा ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
বিদ্বদ্গুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [বেদবাণীর রক্ষক মহান বিদ্বান্] (অশ্না) ব্যপিত [অজ্ঞান] দ্বারা (অপিনদ্ধম্) আচ্ছাদিত (মধু) জ্ঞানকে, (দীনে) সামান্য/অল্প (উদনি) জলে (ক্ষিয়ন্তম্) অবস্থানরত (মৎস্যম্ ন) মৎসের ন্যায়, (পরি) সর্বদিক থেকে (অপশ্যৎ) প্রত্যক্ষ করেছে, এবং (বৃক্ষাৎ) বৃক্ষ থেকে (চমসম্ন) অন্নের সমান, (তৎ) সেই [জ্ঞান] কে (বিরবেণ) বিশেষধ্বনির সহিত (বিকৃত্য) আন্দোলিত করে (নিঃ জভার) বাহিরে নিয়ে এসেছে॥৮॥
भावार्थ
বিদ্বান্ ব্যক্তি যখন সংসারে অজ্ঞানের কারণে সজ্ঞানের আচ্ছাদন প্রত্যক্ষ করে, যেমন মৎস অল্প জলে থাকতে পারে না, সেই মনুষ্য বিশেষ প্রচেষ্টা করে জ্ঞানের বিস্তার করে, যেমন বৃক্ষ থেকে অন্ন অর্থাৎ ফল গ্রহণ করে উপকার করে॥৮॥ মন্ত্র ৭ এর টিপ্পনী দেখো।
भाषार्थ
(বৃহস্পতিঃ) বৃহতী-পৃথিবীর অধিপতি বায়ু (অশ্না পিনদ্ধম্) মেঘ দ্বারা বদ্ধ (মধু) মধুর-জল (পর্যপশ্যৎ) অবগত হয়েছে। (ন) যেমন (দীনে উদনি) অল্প জলে (ক্ষিয়ন্তম্) থাকা (মৎস্যম্) মাছকে জানা যায়। বায়ু (বিরবেণ) বিশেষ গর্জনশীল বিদ্যুৎ-বজ্রের দ্বারা (বিকৃত্য) মেঘ কর্তন করে (তৎ) সেই মধুর-জল (নির্ জভার) বের করেছে। (ন) যেমন কর্মকার/ছুতোর (বৃক্ষাৎ) বৃক্ষ কেটে উহার থেকে (চমসম্) খাদ্য-পানীয়ের বাসনপত্র বের করে, তৈরি করে।
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