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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मेधातिथिः, प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१८
    44

    न घे॑म॒न्यदा प॑पन॒ वज्रि॑न्न॒पसो॒ नवि॑ष्टौ। तवेदु॒ स्तोमं॑ चिकेत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । घ॒ । ई॒म् । अ॒न्यत् । आ । प॒प॒न॒ । वज्रि॑न् । अ॒पस॑: । नवि॑ष्टौ ॥ तव॑ । इत् । ऊं॒ इति॑ । स्तोम॑म् । चि॒के॒त॒ ॥१८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न घेमन्यदा पपन वज्रिन्नपसो नविष्टौ। तवेदु स्तोमं चिकेत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । घ । ईम् । अन्यत् । आ । पपन । वज्रिन् । अपस: । नविष्टौ ॥ तव । इत् । ऊं इति । स्तोमम् । चिकेत ॥१८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (वज्रिन्) हे वज्रधारी राजन् ! (नविष्टौ) स्तुति की इच्छा में (अपसः) [तेरे] कर्म से (अन्वत्) दूसरे [कर्म] को (न घ ईम्) कभी भी नहीं (आ पपन) मैंने सराहा है। (तव इत् उ) तेरे ही (स्तोमम्) स्तुतियोग्य व्यवहार को (चिकेत) मैंने जाना है ॥२॥

    भावार्थ

    प्रजागण स्तुतियोग्य उपकारी कामों में प्रतापी धर्मात्मा राजा से सहायता लेते रहें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(न) निषेधे (घ) अवश्यम् (ईम्) एव (अन्यत्) भिन्नम् (आ) समन्तात् (पपन) पन स्तुतौ-णलि लिटि रूपम्। स्तुतवानस्मि (वज्रिन्) हे वज्रधारिन् (अपसः) कर्मणः सकाशात् (नविष्टौ) णु स्तुतौ-अप्+इष इच्छायाम्-क्तिन्। शकन्ध्वादित्वात् पररूपम्। नवस्य स्तुतेः इष्टौ इच्छायाम् (तव) (इत्) एव (उ) अवधारणे (स्तोमम्) स्तुत्यं व्यवहारम् (चिकेत) कित ज्ञाने-लिट्। अहं ज्ञातवानस्मि ॥

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    विषय

    एकमात्र प्रभु का ही स्तवन

    पदार्थ

    १. हे (वजिन्) = वज्रहस्त प्रभो! हम (अपस:) = यज्ञरूप कर्मों के (नविष्टौ) = [नवायां इष्टौं] नव प्रारम्भ में, अर्थात् प्रत्येक कर्म को करने के अवसर पर (घा ईम्) = निश्चय (अन्यत् न आपपन) = किसी अन्य के स्तोत्र को नहीं करते। २. मैं (इत्)= निश्चय से (तव उ) = आपके ही (स्तोत्रम्) = स्तोत्र को (चिकेत) = जानता हूँ।

    भावार्थ

    प्रभु को छोड़कर हम किसी अन्य का स्तवन न करें। प्रत्येक कर्म के आरम्भ में हम प्रभु का स्मरण करें।

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    भाषार्थ

    (वज्रिन्) हे न्यायवज्रधारी! (अपसः) कर्मयोग या क्रियायोग सम्बन्धी (नविष्टौ) स्तुति-यज्ञ में (अन्यत्) मैं आपसे भिन्न किसी की (न घ ईम्) कभी भी नहीं (आ पपन) स्तुति करता हूँ। और (स्तोमम्) स्तुति-मन्त्रों द्वारा मैं (तव इत् उ) आपकी ही (चिकेत) स्तुति करना जानता हूँ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    हे (वज्रिन्) वज्रधारिन् ! पापों से निवृत्त करने वाले ज्ञान वज्र के धारक प्रभो ! (अपसः) कर्म के (नविष्टौ) प्रारम्भ में (अन्यत्) और कुछ भी मैं (न घ इम् आ पपन) स्तुति नहीं करता प्रत्युत (तव इत्) तेरी ही (स्तोमम्) स्तुति करना (चिकेत) जानता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-३ काण्वो मेधातिथिः रांगिरसः प्रियमेधश्च ऋषी। ४-६ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता गायत्री। षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surrender and Security

    Meaning

    Indra, lord of thunder and justice, in the beginning of a new plan, action or programme of holiness, I adore none else but you. I know only one song of adoration and that is for you alone.

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    Translation

    O Almighty God, you are the master of thunder-bolt. I, in beginning of acts never perform any other prayer but I know and take in to consideration the eulogy of yours alone.

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    Translation

    O Almighty God, you are the master of thunder-bolt. I, in beginning of acts never perform any other prayer but I know and take in to consideration the eulogy of yours alone.

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    Translation

    O Evil-Destroyer, I praise none else in the beginning of all actions of mine. I know only Thy praise-songs.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(न) निषेधे (घ) अवश्यम् (ईम्) एव (अन्यत्) भिन्नम् (आ) समन्तात् (पपन) पन स्तुतौ-णलि लिटि रूपम्। स्तुतवानस्मि (वज्रिन्) हे वज्रधारिन् (अपसः) कर्मणः सकाशात् (नविष्टौ) णु स्तुतौ-अप्+इष इच्छायाम्-क्तिन्। शकन्ध्वादित्वात् पररूपम्। नवस्य स्तुतेः इष्टौ इच्छायाम् (तव) (इत्) एव (उ) अवधारणे (स्तोमम्) स्तुत्यं व्यवहारम् (चिकेत) कित ज्ञाने-लिट्। अहं ज्ञातवानस्मि ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বজ্রিন্) হে বজ্রধারী রাজন্! (নবিষ্টৌ) স্তুতির কামনায় (অপসঃ) [তোমার] কর্ম থেকে (অন্বৎ) অন্য [কর্ম]কে (ন ঘ ঈম্) কখনোই না (আ পপন) আমি প্রশংসা করেছি। (তব ইৎ উ) তোমারই (স্তোমম্) স্তুতিযোগ্য আচরণ (চিকতে) আমি জ্ঞাত হয়েছি।।২।।

    भावार्थ

    প্রজাগণ স্তুতিযোগ্য উপকারী কর্ম দ্বারা প্রতাপী ধর্মাত্মা রাজার থেকে সহায়তা গ্রহণ করুক/করতে থাকুক।।২।।

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    भाषार्थ

    (বজ্রিন্) হে ন্যায়বজ্রধারী! (অপসঃ) কর্মযোগ বা ক্রিয়াযোগ সম্বন্ধী (নবিষ্টৌ) স্তুতি-যজ্ঞে (অন্যৎ) আমি আপনার থেকে ভিন্ন কারোর (ন ঘ ঈম্) কখনও না (আ পপন) স্তুতি করি। এবং (স্তোমম্) স্তুতি-মন্ত্র দ্বারা আমি (তব ইৎ উ) আপনারই (চিকেত) স্তুতি করতে জানি।

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