अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 39/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-३९
45
इन्द्रे॑ण रोच॒ना दि॒वो दृ॒ढानि॑ दृंहि॒तानि॑ च। स्थि॒राणि॒ न प॑रा॒णुदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रे॑ण । रो॒च॒ना । दि॒व: । दृ॒ह्लानि॑ । दृं॒हि॒तानि॑ । च॒ ॥ स्थि॒राणि॑ । न । प॒रा॒ऽनुदे॑ ॥३९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेण रोचना दिवो दृढानि दृंहितानि च। स्थिराणि न पराणुदे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रेण । रोचना । दिव: । दृह्लानि । दृंहितानि । च ॥ स्थिराणि । न । पराऽनुदे ॥३९.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रेण) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] करके (दिवः) व्यवहार के (स्थिराणि) ठहराऊ (रोचना) प्रकाश (न पराणुदे) न हटने के लिये (दृढानि) पक्के किये गये (च) और (दृंहितानि) बढ़ाए गये [फैलाये गये हैं]॥४॥
भावार्थ
परमात्मा ने अपने अटल नियमों से सब संसार को सुख दिया है ॥४॥
टिप्पणी
४−मन्त्राः २- व्याख्याताः-अ०२०।२८।१-४॥
विषय
दिवः रोचना
पदार्थ
१. (इन्द्रेण) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु से (दिव:) = मस्तिष्करूप धुलोक के (दृढानि) = बड़े प्रबल (रोचना) = विज्ञान-नक्षत्र (च) = निश्चय से (दृंहितानि) = दृढ़ किये गये है। प्रभु अपने उपासक के मस्तिष्क को ज्ञान-नक्षत्रों से दीस कर डालते हैं। २. ये विज्ञान-नक्षत्र (स्थिराणि) = बड़े स्थिर होते हैं। (न पुराणुदे) = ये परे धकेले जाने के लिए नहीं होते। कोई भी वासनारूप शत्रु इन्हें विनष्ट नहीं कर पाता।
भावार्थ
उपासक का मस्तिष्करूप धुलोक विज्ञान-नक्षत्रों से दीप्त हो उठता है।
भाषार्थ
(इन्द्रेण) परमेश्वर ने (दिवः) मस्तिष्क के सहस्रारचक्र में प्रकट हूई (दृळ्हानि रोचना) दृढ़ दीप्तियों को (दृंहितानि) और सुदृढ़ कर दिया है, (स्थिराणि) इन्हें स्थिर कर दिया है। (न पराणुदे) अब ये दीप्तियाँ हटाई नहीं जा सकतीं।
टिप्पणी
[अधिक व्याख्या के लिए देखो मन्त्र संख्या (सू০ २८, मं০ ३)।]
विषय
ईश्वर और राजा।
भावार्थ
(इन्द्रेण) परमेश्वर ने (दिवः) आकाश के (रोचना) प्रकाशमान सूर्य (दृढानि) दृढ़, अभेद्य बनाये और (दृंहितानि च) उन को दृढ़ता से स्थापित किया है। वे अपने स्थान और मार्ग से नहीं विचलित होते। वे (न पराणुदे) फिर न परे हटने के लिये ही (स्थिराणि) स्थिर किये गये हैं। इसी प्रकार अध्यात्म में—(दिवः) ज्ञानमार्ग में (रोचना) प्रकाशित सिद्धान्त ज्ञानी आत्मा स्थिर सत्यों को स्थापित करता है। और वे (न पराणुदे स्थिराणि) न त्यागने के लिये स्थिर किये जाते हैं। राज-पक्ष में—(इन्द्रेण दिवः रोचना) राजा अपने उत्तम राज्य के उच्च कोटि पर विराजमान पदाधिकारियों को दृढ़ मजबूत बनाता और स्थिर नियत करता है। (न पराणुदे) शत्रुओं से पराजित न होने के लिये ही उनको स्थिर नियत करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ मधुच्छन्दाः २-५ इरिम्बिठिश्च ऋषी। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
lndra Devata
Meaning
The bright and beautiful, blessed and blissful stars and planets of refulgent space, expansive, firm and constant by virtue of the omnipotence of Indra, no one can shake or dislodge from their position of stability.
Translation
The luminous bodies or wonderous worlds are established and held firm by Almighty God. They so supported never deviate from their places and courses.
Translation
The luminous bodies or wondrous worlds ate established and held firm by Almighty God. They so supported never deviate from their places and courses.
Translation
The shining stars of heaven have been established firm and secure by the Mighty God, so stable that they do not go astray from their respective orbits.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−मन्त्राः २- व्याख्याताः-अ०२०।२८।१-४॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরোপাসনোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্রেণ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান্ পরমাত্মা] দ্বারা (দিবঃ) ব্যবহারের (স্থিরাণি) স্থির/স্থিতিশীল (রোচনা) প্রকাশ (ন পরাণুদে) দূর না হওয়ার জন্য (দৃঢানি) দৃঢ় করা হয়েছে (চ) এবং (দৃংহিতানি) বৃদ্ধি করা [বিস্তৃত করা] হয়েছে ॥৪॥
भावार्थ
পরমাত্মা নিজের অটল নিয়ম দ্বারা সমগ্র সংসারকে সুখ প্রদান করেছেন॥৪॥
भाषार्थ
(ইন্দ্রেণ) পরমেশ্বর (দিবঃ) মস্তিষ্কের সহস্রারচক্রে প্রকট হয়ে (দৃল়্হানি রোচনা) দৃঢ় দীপ্তি-সমূহ (দৃংহিতানি) অধিক সুদৃঢ় করেছেন, (স্থিরাণি) ইহাকে স্থির করেছেন। (ন পরাণুদে) এখন এই দীপ্তি-সমূহ দূর করা সম্ভব নয়।
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