अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 60/ मन्त्र 4
ए॒वा ह्य॑स्य सू॒नृता॑ विर॒प्शी गोम॑ती म॒ही। प॒क्वा शाखा॒ न दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । हि । अ॒स्य॒ । सू॒नृता॑ । वि॒ऽर॒प्शी । गोऽम॑ती । म॒ही ॥ प॒क्वा । शाखा॑ । न । दा॒शुषे॑ ॥६०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही। पक्वा शाखा न दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठएव । हि । अस्य । सूनृता । विऽरप्शी । गोऽमती । मही ॥ पक्वा । शाखा । न । दाशुषे ॥६०.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अस्य) उस [सभापति] की (सूनृता) अन्नवाली क्रिया (एव) निश्चय करके (हि) ही (विरप्शी) स्पष्ट वाणीवाली, (गोमती) श्रेष्ठ दृष्टिवाली, (मही) सत्कारयोग्य, (पक्वा) परिपक्व [फल-फूलवाली] (शाखा न) शाखा के समान (दाशुषे) आत्मदानी पुरुष के लिये [होवे] ॥४॥
भावार्थ
राजा आदि सभापति दूरदर्शी होकर अन्न आदि पदार्थों से हितैषी सुपात्रों का सत्कार करके सुखी करें, जैसे फल-फूलवाले वृक्ष आनन्द देते हैं ॥४॥
टिप्पणी
मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-१।८।८-१०। और आगे हैं, २०।७१।४-६ ॥ ४−(एव) निश्चयेन (हि) अवधारणे (अस्य) सभापतेः (सूनृता) सूनृतेत्यन्ननाम-निघ० २।७। अन्नवती क्रिया (विरप्शी) अ० ।२९।१३। वि+रप व्यक्तायां वाचि-क्विप् शप्प्रत्ययो मत्वर्थे, ङीप्। स्पष्टवाग्वती (गोमती) श्रेष्ठदृष्टियुक्ता (मही) महती। पूज्या (पक्वा) फलपुष्पयुक्ता (शाखा) वृक्षावयवः (न) इव (दाशुषे) आत्मदानिने। भक्ताय ॥
विषय
'सुनृता-मही' वेदवाणी
पदार्थ
१. (एवा) = इसप्रकार गतमन्त्र के अनुसार सोम का रक्षण होने पर हे वेदवाणि! तू (हि) = निश्चय से (सून्ता) = शुभ, दुःखों का परिहाण करनेवाले ऋत ज्ञान को देनेवाली है। [सु+ऊन+ऋत]। (विरप्शी) = विविध विज्ञानों का उपदेश देनेवाली (गोमती) = इन्द्रियों को प्रशस्त बनानेवाली व (मही असि) = पूजन में प्रवृत्त करनेवाली है। २. (दाशुषे) = दाश्वान् पुरुष के लिए-तेरे प्रति अपना अर्पण करनेवाले के लिए तु (पक्वा शाखा न) = परिपक्व फलों से लदी हुई वृक्ष की शाखा के समान है, अर्थात् जैसे वह शाखा अनेकविध फलों को प्राप्त कराती है, इसी प्रकार तू इस दाश्वान् के लिए 'शरीर, मन व बुद्धि' के उत्कर्षरूप फलों को देनेवाली है।
भावार्थ
हम सोम का रक्षण करके उस वेदवाणी को प्राप्त करने के पात्र बनते हैं जो विविध विज्ञानों को प्रास कराती हुई शरीर, मन व बुद्धि के उत्कर्ष को प्राप्त कराती है।
भाषार्थ
(विरप्शी) विविध अर्थात् सांसारिक और आध्यात्मिक तत्त्वों का अभिव्यक्तिरूप में वर्णन करनेवाली, (गोमती) सुखदायिनी, (मही) श्रद्धायोग्य (सूनृता) प्रिय तथा सत्यरूपा वेदवाणी (अस्य एव हि) इस ही परमेश्वर की है। वह (दाशुषे) ब्रह्मदान तथा आत्मसमर्पण करनेवाले के लिए (पक्वा शाखा) पक्के फलोंवाली शाखा (न) के समान है।
टिप्पणी
[विरप्शी=वि+रप् (व्यक्तयाँ वाचि)। गोमती—गौ=सुख (उणा০ कोष २.६७), वैदिक पुस्तकालय, अजमेर)।]
विषय
ईश्वर और राजा का वर्णन
भावार्थ
(पक्वा शाखा न) पकी हुई शाखा जिस प्रकार मनुष्य को फूल फल देती और बैठने वाले को भली प्रकार आश्रय देती है उसी प्रकार (अस्य) इस इन्द्र ज्ञानवान् आचार्य के समान साक्षात् आत्मा के द्रष्टा, एवं सर्व जगत् के द्रष्टा परमेश्वर की (सूनृता) शुभ सत्य ज्ञान पूर्ण वाणी और उसके समान ही (सूनृता) उत्तम अन्न से परिपूर्ण (गोमती) पशु आदि से समृद्ध (मही) यही पृथ्वी, (विरप्शी) विविध पदार्थों को देने वाली (एव) ही होती है। ज्ञानवाणी ही (दाशुषे) परमेश्वर को आत्म समर्पण करने वाले अभ्यासी के लिये (पक्वा शाखा न) परिपक्व, पुनः पुनः अभ्यस्त शाखा वेद शाखा के समान ज्ञानप्रद और (शाखा = खे शेते) आश्रय वृक्ष के समान स्व अन्तराकाश में रमने वाली होती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-३ सुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः। ४-६ मधुच्छन्दा ऋषिः। गायत्र्यः। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Verily the divine voice of Indra, Supreme Lord of Omniscience, is Shabda Brahma, the richest treasure of eternal truth, generous mother of the language of existence, and great. It is an abundant branch of the divine tree laden with ripe fruit for the faithful devotee and yajnic giver. (The other branch is Jag ad Brahma, Existence Itself on its own. Parama Brahma is the Tree.)
Translation
So also is his copious voice which is great and rich in cattle like the ripe branch to the man of munificene.
Translation
So also is his copious voice which is great and rich in cattle like the ripe branch to the man of munificence.
Translation
So is truly fruitful His Vedic lore, full of true knowledge and the earth, equipped with wealth of cows, etc., grains and source of all articles of use like a ripe branch, to the generous-minded worshipper.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-१।८।८-१०। और आगे हैं, २०।७१।४-६ ॥ ४−(एव) निश्चयेन (हि) अवधारणे (अस्य) सभापतेः (सूनृता) सूनृतेत्यन्ननाम-निघ० २।७। अन्नवती क्रिया (विरप्शी) अ० ।२९।१३। वि+रप व्यक्तायां वाचि-क्विप् शप्प्रत्ययो मत्वर्थे, ङीप्। स्पष्टवाग्वती (गोमती) श्रेष्ठदृष्टियुक्ता (मही) महती। पूज्या (पक्वा) फलपुष्पयुक्ता (शाखा) वृक्षावयवः (न) इव (दाशुषे) आत्मदानिने। भक्ताय ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(অস্য) তাঁর [সভাপতির] (সূনৃতা) অন্নযুক্ত ক্রিয়া (এব) নিশ্চিতরূপে (হি) ই (বিরপ্শী) স্পষ্ট বাণীযুক্ত, (গোমতী) শ্রেষ্ঠ দৃষ্টিযুক্ত, (মহী) সৎকারযোগ্য, (পক্বা) পরিপক্ব [ফল-ফুলযুক্ত] (শাখা ন) শাখার সমান (দাশুষে) আত্মদানী পুরুষের জন্য [হোক] ॥৪॥
भावार्थ
রাজা আদি সভাপতি দূরদর্শী সম্পন্ন হয়ে অন্নাদি পদার্থ দ্বারা হিতৈষী সুপাত্রদের সৎকার করে সুখী করুক, যেরূপে ফল-ফুলযুক্ত বৃক্ষ আনন্দ প্রদান করে॥৪॥ মন্ত্র ৪-৬ ঋগ্বেদে আছে-১।৮।৮-১০। এবং আছে, ২০।৭১।৪-৬ ॥
भाषार्थ
(বিরপ্শী) বিবিধ অর্থাৎ সাংসারিক এবং আধ্যাত্মিক তত্ত্ব-সমূহের অভিব্যক্তিরূপে বর্ণনাকারী, (গোমতী) সুখদায়িনী, (মহী) শ্রদ্ধায়োগ্য (সূনৃতা) প্রিয় তথা সত্যরূপা বেদবাণী (অস্য এব হি) এই পরমেশ্বরেরই। তিনি (দাশুষে) ব্রহ্মদান তথা আত্মসমর্পণকারীর জন্য (পক্বা শাখা) পরিপক্ব ফলবিশিষ্ট শাখা (ন) এর সমান।
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