अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 68/ मन्त्र 7
एमाशुमा॒शवे॑ भर यज्ञ॒श्रियं॑ नृ॒माद॑नम्। प॑त॒यन्म॑न्द॒यत्स॑खम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ई॒म् । आ॒शुम् । आ॒शवे॑ । भ॒र॒ । य॒ज्ञ॒ऽश्रि॑य॑म् । नृ॒ऽमाद॑नम् ॥ प॒त॒यत् । म॒न्द॒यत्ऽस॑ख्यम् ॥६८.७॥
स्वर रहित मन्त्र
एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम्। पतयन्मन्दयत्सखम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ईम् । आशुम् । आशवे । भर । यज्ञऽश्रियम् । नृऽमादनम् ॥ पतयत् । मन्दयत्ऽसख्यम् ॥६८.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे इन्द्र परमेश्वर !] (आशवे) वेगवाले [रथ आदि] के लिये (यज्ञश्रियम्) यज्ञ [संगतिकरण] से लक्ष्मी बढ़ानेवाले, (नृमादनम्) मनुष्यों को आनन्द देनेवाले (आशुम्) वेग आदि गुणवाले [अग्नि, वायु आदि] पदार्थ और (ईम्) प्राप्तियोग्य जल को और (पतयत्) स्वामिपन देनेवाले, (मन्दयत्सखम्) मित्रों को आनन्द देनेवाले धन को (आ) सब प्रकार (भर) भर दे ॥७॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित है कि अग्नि वायु जल आदि पदार्थों से विज्ञान द्वारा उपकार लेकर सुखी होवें ॥७॥
टिप्पणी
७−(आ) समन्तात् (ईम्) प्राप्तव्यं जलम्-निघ० १।१२। (आशुम्) कृवापा०। उ० १।१। अशूङ् व्याप्तौ-उण्। वेगादिगुणवन्तमग्निवाय्वादिपदार्थसमूहम् (आशवे) वेगादिगुणयुक्तरथादिहिताय (भर) देहि (यज्ञश्रियम्) संगतिकरणेन लक्ष्मीदातारम् (नृमादनम्) नॄणां मनुष्याणां हर्षहेतुम् (पतयत्) तत् करोति तदाचष्टे। वा० पा० ३।१।२६। पति-णिच् ततः शतृ। पतित्वसम्पादकम् (मन्दयत् सखम्) मन्दयन्तः सखायो यस्मिंस्तद्धनम् ॥
विषय
सोम-रक्षण व शोभामय जीवन
पदार्थ
१. (आशवे) = [अशू व्याप्ती] सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में होनेवाले उस प्रभु की प्राप्ति के लिए (ईम्) = निश्चय से (आशुम्) = सम्पूर्ण रुधिर में व्याप्त होनेवाले इस सोम को (आभर) = सब प्रकार से अपने में धारण करने का प्रयत्न कर। २. उस सोम का तू भरण कर जोकि (यज्ञश्रियम्) = यज्ञमय जीवनवाले पुरुष की श्री का कारण है। (नृमादनम्) = यह उन्नतिशील नरों को आनन्दित करनेवाला है। (पतयत्) = [पतयन्तम्-कर्मणि व्याप्नुवन्तम्-सा०] यह सोम कर्मों में व्याप्त होनेवाला है-यह अपने रक्षक को कर्मशूर बनाता है। (मन्दयत्सखम्) = उस आनन्दित करनेवाले प्रभु में यह सोम सखिभुत है-परमात्म-प्राप्ति का यह प्रमुख साधन बनता है और प्रभु-प्राति द्वारा अद्भुत आनन्द को प्राप्त करानेवाला होता है।
भावार्थ
प्रभु-प्राति के लिए सोम-रक्षण आवश्यक है। यह हमें यज्ञों में प्रवृत्त कर शोभावाला बनाता है, हमारी उन्नति को सिद्ध करके आनन्दित करता है। यह हमें कर्मशूर बनाता है, आनन्दित करनेवाले प्रभु का सखिभूत है।
भाषार्थ
हे उपासक! (आशुम्) सर्वत्र व्याप्त, (यज्ञश्रियम्) उपासनायज्ञ की एकमात्र श्री, (नृमादनम्) नर-नारियों को हर्ष-उल्लास के दाता, (पतयत् मन्दयत् सखम्) जो इसके साथ सखिभाव रखते है उन्हें आध्यात्मिक सम्पत्तियों द्वारा सम्पत्तिशाली करनेवाले, तथा उन्हें तृप्त और आनन्दित करनेवाले (ईम्) इस परमेश्वर को, (आशवे) शीघ्र सफल होने के लिए, (आ भर) अपनी ओर झुका ले। [आभर=आहर।]
विषय
परमात्मा, विद्वान्, राजा।
भावार्थ
हे परमेश्वर ! हे आचार्य ! (आशवे) ज्ञानोपदेश ग्रहण करने में तीव्र गति वाले शिष्य को (आशुम्) व्यापक, (यज्ञश्रियम्) आत्मा को शोभा देने वाले या यज्ञ, परमात्मा विषयक (नृमादनम्) मनुष्यों के सुखकारी (पतयत् मन्दयत्सखम्) स्वामित्व या ऐश्वर्यदायक समान मित्रों को भी प्रसन्न करने वाले ऐश्वर्य को (आ भर) प्राप्त करा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मधुच्छन्दा ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
In dr a Devata
Meaning
Indra, lord of knowledge and power, give us the secret of the speed of motion for the giant leap forward in progress. Bless us with the wealth of the nation’s yajna exciting for the people and joyous for our friends.
Translation
O learned one, you bestow upon the man of sharp genius the vast riches which strengthens the beauty of yajna, prospers the people, creates the proprietorship and gives joy to friends.
Translation
O learned one, you bestow upon the man of sharp genius the vast riches which strengthens the beauty of yajna, prospers the people, creates the proprietorship and gives joy to friends.
Translation
O God or priest, shower on this quick-witted disciple the energising glory of sacrifice, exhilarating the people, acting like a friend lifting the spirits and cheering his companion.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(आ) समन्तात् (ईम्) प्राप्तव्यं जलम्-निघ० १।१२। (आशुम्) कृवापा०। उ० १।१। अशूङ् व्याप्तौ-उण्। वेगादिगुणवन्तमग्निवाय्वादिपदार्थसमूहम् (आशवे) वेगादिगुणयुक्तरथादिहिताय (भर) देहि (यज्ञश्रियम्) संगतिकरणेन लक्ष्मीदातारम् (नृमादनम्) नॄणां मनुष्याणां हर्षहेतुम् (पतयत्) तत् करोति तदाचष्टे। वा० पा० ३।१।२६। पति-णिच् ततः शतृ। पतित्वसम्पादकम् (मन्दयत् सखम्) मन्दयन्तः सखायो यस्मिंस्तद्धनम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
[হে ইন্দ্র পরমেশ্বর !] (আশবে) বেগযুক্ত [রথ আদি] এর জন্য (যজ্ঞশ্রিয়ম্) যজ্ঞের [সঙ্গতিকরণ] দ্বারা লক্ষ্মী বর্ধনকারী, (নৃমাদনম্) মনুষ্যদের আনন্দ প্রদায়ী (আশুম্) বেগ আদি গুণযুক্ত [অগ্নি, বায়ু আদি] পদার্থ তথা (ঈম্) প্রাপ্তিযোগ্য জল এবং (পতয়ৎ) স্বামিত্ব প্রদানকারী, (মন্দয়ৎসখম্) মিত্রদের আনন্দ প্রদায়ী ধন (আ) সর্বপ্রকারে (ভর) পূর্ণ করুন॥৭॥
भावार्थ
মনুষ্যদের উচিত অগ্নি, বায়ু, জল আদি পদার্থ থেকে বিজ্ঞান দ্বারা উপকার নিয়ে সুখী হওয়া ।।৭॥
भाषार्थ
হে উপাসক! (আশুম্) সর্বত্র ব্যাপ্ত, (যজ্ঞশ্রিয়ম্) উপাসনাযজ্ঞের একমাত্র শ্রী, (নৃমাদনম্) নর-নারীদের হর্ষ-উল্লাসের দাতা, (পতয়ৎ মন্দয়ৎ সখম্) যিনি এঁদের সাথে সখিভাব রাখেন, তাঁদের আধ্যাত্মিক সম্পত্তি দ্বারা সম্পত্তিশালী যিনি করেন, তথা তাঁদের তৃপ্ত এবং আনন্দিতকারী/আনন্দদায়ক (ঈম্) এই পরমেশ্বরকে, (আশবে) শীঘ্র সফল হওয়ার জন্য, (আ ভর) নিজের দিকে নত করো। [আভর=আহর।]
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