अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 78/ मन्त्र 2
न घा॒ वसु॒र्नि य॑मते दा॒नं वाज॑स्य॒ गोम॑तः। यत्सी॒मुप॒ श्रव॒द्गिरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन । च॒ । वसु॑: । नि । य॒म॒ते॒ । दा॒नम् । वाज॑स्य । गोऽम॑त: ॥ यत् । सी॒म् । उप॑ । श्रव॑त् । गिर॑: ॥७८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
न घा वसुर्नि यमते दानं वाजस्य गोमतः। यत्सीमुप श्रवद्गिरः ॥
स्वर रहित पद पाठन । च । वसु: । नि । यमते । दानम् । वाजस्य । गोऽमत: ॥ यत् । सीम् । उप । श्रवत् । गिर: ॥७८.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के वर्ताव का उपदेश ॥
पदार्थ
(वसुः) बसानेवाला राजा (गोमतः) उत्तम विद्या से युक्त (वाजस्य) बल के (दानम्) दान को (न घ) कभी नहीं (नि यमते) रोके, (यत्) जब कि वह (गिरः) हमारी वाणियों को (सीम्) सब प्रकार (उप श्रवत्) सुन लेवे ॥२॥
भावार्थ
राजा प्रजा के क्लेशों को ध्यान में रखकर उत्तम विद्या देकर उनका बल बढ़ावे ॥२॥
टिप्पणी
२−(न) निषेधे (घ) एव (वसुः) वासयिता (नि) नितराम् (यमते) यमु उपरमे। उपरतं निरुद्धं कुर्यात् (दानम्) (वाजस्य) बलस्य (गोमतः) प्रशस्तविद्यायुक्तस्य (यत्) यदा (सीम्) सर्वतः (उप) समीपे (श्रवत्) शृणुयात् (गिरः) वाणीः ॥
विषय
प्रभु-स्तवन से ज्ञान व शक्ति की प्राप्ति
पदार्थ
१. (यत्) = जब (वसुः) = सबके बसानेवाले वे प्रभु (गिर:) = हमारी स्तुतिवाणियों को (सीम्) = निश्चय से (उपश्रवत्) = सुनते हैं तब (घा) = निश्चय से (गोमतः) = प्रशस्त ज्ञान की वाणियोंवाले (वाजस्य) = शक्ति के (दानम्) = दान को (न) = नहीं (नियमते) = उपरत करते, अर्थात् हमें ज्ञान व बल को प्राप्त कराते ही हैं।
भावार्थ
प्रभु हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले हैं। इसी उद्देश्य से वे हमें ज्ञान व शक्ति प्राप्त कराते हैं, अत: हम सदा प्रभु-स्तवन में प्रवृत्त हों।
भाषार्थ
(गोमतः) पार्थिव सम्पत्तियों, इन्द्रियशक्तियों, तथा वेदवाणियों सम्बन्धी (वाजस्य) बलों और ज्ञानों के (दानम्) दान को—(वसुः) सम्पत्तिशाली, तथा सर्वत्रवासी परमेश्वर—(घ) निश्चय से, (न नियमते) नियमित नहीं करता, अर्थात् इनका दान प्रभूतमात्रा में करता है, (यत्) जबकि वह (सीम्) सर्वव्यापक, (गिरः) हमारी प्रार्थनावाणियों को (उप) हमारे हृदयों के समीप होकर (श्रवत्) सुन लेता है।
टिप्पणी
[सीम्=सर्वतः (निरु০ १.३.७)। गौः=पृथिवी, इन्द्रिय, वेदवाणी (उणा০ कोष २.६७)।]
विषय
राजा और परमेश्वर।
भावार्थ
(यत् सीम्) जब भी वह हमारी (गिरः) वाणियों, स्तुतियों को (उपश्रवत्) श्रवण कर लेता है तभी (वसुः) जिस प्रकार वसु आदित्य अपने (गोमतः वाजस्य दानं) किरणों युक्त प्रकाश को नहीं रोकता उसी प्रकार वह (वसुः) सब प्राणियों में बसा, सबको बसाने वाला वह परमेश्वर (गोमतः) वाणियों और गऊओं से युक्त (वाजस्य) ऐश्वर्य और ज्ञान के (दानं) दान को (न घ नियमते) नहीं रोक लेता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्त्रषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
And surely the lord giver of settlement and gifts of knowledge, power and speedy progress does not withhold the gifts since he closely hears the prayers of the devotee and responds.
Translation
He, all-abiding one does not with holds his bounty of power and wealth blessed with cattle when he hears of our invocations.
Translation
He, all-abiding one does not with holds his bounty of power and wealth blessed with cattle when he hears of our invocations.
Translation
Whenever He hears our prayers, surely He, the Omnipresent Creator never keeps back His gift of wealth, power and knowledge in the form of land, food, cattle and Vedic lore, just as the Sun, the source of life on the earth, never keeps off its energy and light.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(न) निषेधे (घ) एव (वसुः) वासयिता (नि) नितराम् (यमते) यमु उपरमे। उपरतं निरुद्धं कुर्यात् (दानम्) (वाजस्य) बलस्य (गोमतः) प्रशस्तविद्यायुक्तस्य (यत्) यदा (सीम्) सर्वतः (उप) समीपे (श्रवत्) शृणुयात् (गिरः) वाणीः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাবর্তনোপদেশঃ
भाषार्थ
(বসুঃ) বাসস্থান প্রদানকারী রাজা (গোমতঃ) উত্তম বিদ্যা যুক্ত (বাজস্য) বলের (দানম্) দানকে (ন ঘ) কখনও না (নি যমতে) নিরুদ্ধ করেন, (যৎ) যখন তিনি (গিরঃ) আমাদের বাণী (সীম্) সকল প্রকারে (উপ শ্রবৎ) শ্রবণ করেন ॥২॥
भावार्थ
রাজা প্রজাদের কষ্ট দূর করে উত্তম বিদ্যা প্রদান করে তাঁদের বল বৃদ্ধি করেন ॥২॥
भाषार्थ
(গোমতঃ) পার্থিব সম্পত্তি, ইন্দ্রিয়শক্তি, তথা বেদবাণী সম্বন্ধিত (বাজস্য) বল এবং জ্ঞানের (দানম্) দানকে—(বসুঃ) সম্পত্তিশালী, তথা সর্বত্রবাসী পরমেশ্বর—(ঘ) নিশ্চিতরূপে, (ন নিয়মতে) নিয়মিত করে না, অর্থাৎ এগুলোর দান প্রভূতমাত্রায় করে, (যৎ) যদ্যপি সেই (সীম্) সর্বব্যাপক, (গিরঃ) আমাদের প্রার্থনাবাণী (উপ) আমাদের হৃদয়ের সমীপে অবস্থান করে (শ্রবৎ) শ্রবণ করেন।
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