अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 78/ मन्त्र 3
कु॒वित्स॑स्य॒ प्र हि व्र॒जं गोम॑न्तं दस्यु॒हा गम॑त्। शची॑भि॒रप॑ नो वरत् ॥
स्वर सहित पद पाठकु॒वित्ऽस॑स्य । प्र । हि । व्र॒जम् । गोऽम॑न्तम् । द॒स्यु॒ऽहा । गम॑त् ॥ शची॑भि: । अप॑: । न॒ । व॒र॒त् ॥७८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
कुवित्सस्य प्र हि व्रजं गोमन्तं दस्युहा गमत्। शचीभिरप नो वरत् ॥
स्वर रहित पद पाठकुवित्ऽसस्य । प्र । हि । व्रजम् । गोऽमन्तम् । दस्युऽहा । गमत् ॥ शचीभि: । अप: । न । वरत् ॥७८.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के वर्ताव का उपदेश ॥
पदार्थ
(दस्युहा) डाकुओं का मारनेवाला और (कुवित्सस्य) बहुत दानी पुरुष के (हि) ही (गोमन्तम्) उत्तम विद्याओं से युक्त (व्रजम्) मार्ग पर (प्र) अच्छे प्रकार (गमत्) चले और (शचीभिः) बुद्धियों वा कर्मों के साथ (नः) हमको (अप) आनन्द से (वरत्) स्वीकार करे ॥३॥
भावार्थ
राजा दानी विद्वानों की नीति को मानकर श्रेष्ठों की सदा रक्षा करे ॥३॥
टिप्पणी
३−(कुवित्सस्य) कुवित् बहुनाम-निघ० २।१, षणु दाने-डप्रत्ययः। बहुदानशीलस्य (प्र) प्रकर्षेण (हि) एव (व्रजम्) मार्गम् (गोमन्तम्) प्रशस्तविद्याभिर्युक्तम् (दस्युहा) दस्यूनां दुष्टचोराणां नाशकः (गमत्) गच्छेत् (शचीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (अप) आनन्दे (नः) अस्मान् (वरत्) वृणुयात्। स्वीकुर्यात् ॥
विषय
कुवित्स को प्रभु की प्राप्ति
पदार्थ
१. (दस्युहा) = दास्यव [राक्षसी] वृत्तियों को विनष्ट करनेवाले प्रभु (कुवित्सस्य) = [षोऽन्तकर्मणि] शत्रुओं को खूब ही विनष्ट करनेवाले उपासक के (हि) = निश्चय से (गोमन्तम्) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले (व्रजम्) = इस शरीररूप गोष्ठ को (गमत्) = प्राप्त होते हैं, अर्थात् 'कुवित्स' आवश्य प्रभु को प्राप्त करता है। २. यहाँ हम कुवित्सों को प्राप्त होकर वे (प्रभुन:) = हमारी इन इन्द्रियरूप गौओं को (शचीभिः) = अपने प्रज्ञानों व बलों से (अपवरत्) = वासना के आवरण से रहित करते हैं।
भावार्थ
प्रभु हमारे दास्यवभावों को विनष्ट करके हमारी इन्द्रियों को अज्ञान के आवरण से रहित करते हैं। प्रभु के उपासन से उत्तम निवासवाला बनकर यह 'वसिष्ठ' बनता है, शक्ति का पुत्र होने से 'शक्ति' कहलाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(कुवित्सस्य) जो उपासक अपने पाप-वृत्रों के हनन में अपनी पर्याप्त शक्ति लगा देता है, उसके, (गोमन्तम्) ऐन्द्रियिक (व्रजम्) घेरे अर्थात् शरीर के प्रति, (दस्युहा) क्षयकारी-पापों का हनन करनेवाला परमेश्वर, (हि) निश्चय से, (प्र) शीघ्र (आ गमत्) आ प्रकट होता है। और (शचीभिः) अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा (नः) हम उपासकों के (अप वरत्) अज्ञानमय परदे को हटा देता है।
टिप्पणी
[कुवित्सस्य=कुवित् बहुशः स्यति हिनस्ति, तस्य (सायण)। अप वरत्=अपावृणोत् (सायण)।]
विषय
राजा और परमेश्वर।
भावार्थ
(दस्युहा) दस्यु अर्थात् नाशकारी लोगों को विनाशक, राजा के समान दुष्टों का विनाशक परमेश्वर (कुवित्सस्य) बहुत से भोग्य पदार्थ के भोक्ता जीव को (गोमन्तम्) गौओं से युक्त व्रज के समान नाना सुखप्रद इन्द्रियों या किरणों ज्ञानवाणियों से युक्त (व्रजम्) प्राप्य परमपद, को (प्र अगमत्) प्राप्त कराता है। वह ही (नः) हमें (शचीभिः) अपनी ज्ञान शक्तियों से उस परमपद के द्वार को (अप वरतः) खोल दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्त्रषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
May the lord destroyer of evil, negativity and poverty visit the homestead of the prayerful devotee blest with lands, cows and divine knowledge and open up the flood gates of wealth, power and divine grace for us with his vision and powers.
Translation
Almighty God, the smiter of clouds opens for the man of various riches the stall of cows and for us throws open the entrance of blessedness with his omniscience and powers.
Translation
Almighty God, the smites of clouds opens for the man of various riches the stall of cows and for us throws open the entrance of blessedness with his omniscience and powers.
Translation
The Destroyer of the wicked and evil forces, enables the soul, who is enjoyer of various joys, to achieve the highest state of spiritual enlightenment i.e., salvation and throws open its gates by His radiant Energy.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(कुवित्सस्य) कुवित् बहुनाम-निघ० २।१, षणु दाने-डप्रत्ययः। बहुदानशीलस्य (प्र) प्रकर्षेण (हि) एव (व्रजम्) मार्गम् (गोमन्तम्) प्रशस्तविद्याभिर्युक्तम् (दस्युहा) दस्यूनां दुष्टचोराणां नाशकः (गमत्) गच्छेत् (शचीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (अप) आनन्दे (नः) अस्मान् (वरत्) वृणुयात्। स्वीकुर्यात् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাবর্তনোপদেশঃ
भाषार्थ
(দস্যুহা) দস্যু বিনাশক এবং (কুবিৎসস্য) বহু দানশীলের (হি) ই (গোমন্তম্) উত্তম বিদ্যা যুক্ত (ব্রজম্) মার্গে (প্র) উত্তমরূপে (গমৎ) চলেন এবং (শচীভিঃ) বুদ্ধি বা কর্মের সহিত (নঃ) আমাদের (অপ) আনন্দপূর্বক (বরৎ) স্বীকার করেন॥৩॥
भावार्थ
রাজা দানশীল বিদ্বানের নীতিকে স্বীকার করে, শ্রেষ্ঠদের সদা রক্ষা করে ॥৩॥
भाषार्थ
(কুবিৎসস্য) যে উপাসক নিজের পাপ-বৃত্রের হননে নিজের পর্যাপ্ত শক্তি প্রয়োগ করে, তাঁর, (গোমন্তম্) ঐন্দ্রিয়িক (ব্রজম্) পরিবেষ্টন অর্থাৎ শরীরের প্রতি, (দস্যুহা) ক্ষয়কারী-পাপের হননকারী পরমেশ্বর, (হি) নিশ্চিতরূপে, (প্র) শীঘ্র (আ গমৎ) এসে প্রকট হন। এবং (শচীভিঃ) নিজের স্বাভাবিক কর্ম দ্বারা (নঃ) আমাদের উপাসকদের (অপ বরৎ) অজ্ঞানময় আবরণ দূর/অপসারণ করেন।
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