अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 87/ मन्त्र 2
यद्द॑धि॒षे प्र॒दिवि॒ चार्वन्नं॑ दि॒वेदि॑वे पी॒तिमिद॑स्य वक्षि। उ॒त हृ॒दोत मन॑सा जुषा॒ण उ॒शन्नि॑न्द्र॒ प्रस्थि॑तान्पाहि॒ सोमा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । द॒धि॒षे । प्र॒ऽदिवि॑ । चारु॑ । अन्न॑म् । दि॒वेऽदि॑वे । पी॒तिम् । इत् । अ॒स्य॒ । व॒क्षि॒ ॥ उ॒त । हृ॒दा । उ॒त । मन॑सा । जु॒षा॒ण: । उ॒शन् । इ॒न्द्र॒ । प्रऽथि॑तान् । पा॒हि॒ । सोमा॑न् ॥८७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्दधिषे प्रदिवि चार्वन्नं दिवेदिवे पीतिमिदस्य वक्षि। उत हृदोत मनसा जुषाण उशन्निन्द्र प्रस्थितान्पाहि सोमान् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । दधिषे । प्रऽदिवि । चारु । अन्नम् । दिवेऽदिवे । पीतिम् । इत् । अस्य । वक्षि ॥ उत । हृदा । उत । मनसा । जुषाण: । उशन् । इन्द्र । प्रऽथितान् । पाहि । सोमान् ॥८७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पुरुषार्थी के लक्षण का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (यत्) जिस (चारु) उत्तम (अन्नम्) अन्न को (प्रदिवि) पिछले समय में (दधिषे) तूने धारण किया था, (अस्य) उस [अन्न] के (पीतिम्) पान वा भोग को (दिवेदिवे) प्रतिदिन (इत्) ही (वक्षि) तू उपदेश करता है, (उत) और (हृदा) हृदय से (उत) और (मनसा) मनन से (प्रस्थितान्) उपस्थित (सोमान्) ऐश्वर्ययुक्त पदार्थों को (जुषाणः) सेवन करता हुआ और (उशन्) चाहता हुआ तू (पाहि) रक्षित कर ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य उत्तम ज्ञान और पदार्थों को प्राप्त होकर सबके सुख के लिये प्रयत्न करे ॥२॥
टिप्पणी
२−(यत्) (दधिषे) धारितवानसि (प्रदिवि) प्रगते दिने काले (चारु) मनोहरम् (अन्नम्) भक्षणीयं पदार्थम् (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (पीतिम्) पानं भोगं वा (इत्) एव (अस्य) अन्नस्य (वक्षि) वच परिभाषणे-लट्। उपदिशसि (उत) अपि च (हृदा) हृदयेन (उत) (मनसा) मननेन (जुषाणः) सेवमानः (उशन्) कामयमानः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् पुरुष (प्रस्थितान्) उपस्थितान् (पाहि) रक्ष (सोमान्) ऐश्वर्ययुक्तान् पदार्थान् ॥
विषय
सात्त्विक अन्न का सेवन व प्रभु का उपासन
पदार्थ
१. (यत्) = जब (प्रदिवि) = प्रकृष्ट ज्ञान के निमित्त (चारु अन्नम्) = सुन्दर सात्त्विक अन्न को (दधिषे) = धारण करता है, तब (दिवे-दिवे) = प्रतिदिन (अस्य) = इस सोम की (पीतिम्) = शरीर में रक्षा को (वक्षि) = प्राप्त करता है। सात्विक अन्न का सेवन हमें सोम-रक्षण के योग्य बनाता है। २. (उत) = और (हृदा) = हृदय से श्रद्धापूर्वक, (उत) = और मन से-प्रबल इच्छापूर्वक (जुषाण:) = प्रीतिपूर्वक सेवन किये जाते हुए हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (उशन्) = हमारे हित को चाहते हुए आप (प्रस्थितान्) = [प्र स्थितान्] शरीर में सर्वत्र गतिबाले (सोमान् पाहि) = सोमकणों को सुरक्षित कीजिए। प्रभु की उपासना से ही, वासना-विनाश द्वारा, सोमकणों का रक्षण सम्भव होता है।
भावार्थ
सात्विक अन्न के सेवन व प्रभु के उपासन से हम शरीर में सोमकणों का रक्षण करें।
भाषार्थ
हे उपासक! (प्रदिवि) प्रकृष्ट-विवेकज-ज्ञान के प्रकाश में, (यद्) जिस (चारु अन्नम्) रुचिकर आध्यात्मिक-अन्न अर्थात् आनन्द-रस को (दधिषे) तू धारण करता है, (दिवे दिवे) प्रतिदिन (इत्) ही तू (अस्य) इस आनन्दरस के (पीतिम्) पान का (वक्षि) वहन किया कर, आस्वादन किया कर (उशन् इन्द्र) और भक्तिरस की कामनावाले हे परमेश्वर! आप (उत हृदा) मानो अपनी हार्दिक भावना से, (उत) और (मनसा) इच्छापूर्वक, (जुषाणः) भक्तिरस का सेवन करते हुए, (प्रस्थितान्) समर्पित (सोमान्) भक्तिरसों की (पाहि) रक्षा किया कीजिए, अर्थात् आपकी कृपा से हमारे भक्तिरस सदा बने रहें।
टिप्पणी
[विवके या विवेकज्ञान=सत्त्वमय चित्त और पुरुष अर्थात् जीवात्मा के पारस्परिक भेद का साक्षात्कार इसे ही “अन्यथा-ख्याति” कहते हैं। विवेकज-ज्ञान=विवेकज्ञान अर्थात् अन्यथाख्याति के अनन्तर जो सर्वज्ञता प्रकट होती है, वह। सर्वज्ञता का अभिप्राय है कि योगी जिस किसी पदार्थ के स्वरूप और रहस्य को जानना चाहता है, उसे समाधिस्थ होकर जान लेता है। इस विवेकज-ज्ञान के प्रकर्ष में ज्ञान की एक वह अवस्था प्रकट हो जाती है, जिसे “तारक-विवेकज-ज्ञान” कहते हैं। यह तारक-विवेकज-ज्ञान योगी को भवसागर से तैरा देता है। इस तारक-विवेकज-ज्ञान में सब विषयों का, सब प्रकार से युगपत् ज्ञान हो जाता है। (योगदर्शन ३.४९, ५२, ५४; तथा ४.३१)।]
विषय
राजा, आत्मा।
भावार्थ
हे (इन्द्र) आत्मन् ! (प्रदिवि) उत्कृष्ट तेजोमय ज्ञानस्वरूप परब्रह्म में आश्रित (चारु) अति उत्तम (यत्) जिस (अन्नम्) अन्न, अक्षय रस को (दिवे दिवे) प्रतिदिन, नित्य (दधिषे) धारण करता है (अस्य) उस साक्षात् प्राप्त रस के (पीतिम् इत्) पान को ही नित्य (वक्षि) चाहता है। (हृदा उत् मनसा) हृदय और मन से (जुषाणः) चाहता हुआ और सेवन करता हुआ हे (उशन्) सदा उसकी अभिलाषा करता हुआ तू (प्रस्थितान्) इन आगे रक्खे, साक्षात् प्राप्त (सोमान्) ब्रह्मानंद रसों का (पाहि) पान कर। राजा के पक्ष में—(प्रदिवि) उत्कृष्ट राजसभा के अधीन (यत् चारु अन्नं दधिषे) जिस उत्तम, अक्षय, भोग्य राष्ट्र को धारण करता है और (दिवेदिवे अस्य पीतम् = वृद्धिम् वक्षि) दिनोंदिन उसकी वृद्धि चाहता है। (उत हृदा उत मनसा जुषाणः उशन्) हृदय और मनसे प्रेम करता और चाहता हुआ (अस्य) इस राष्ट्र के उच्च पदों पर स्थित (सोमान्) शासक अधिकारियों और विद्वानों की (पाहि) रक्षा कर।
टिप्पणी
‘पीतिम्’—ओप्यायवृद्धौ—प्यायः पीभावः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
India Devata
Meaning
Indra, since you have received and internalised the exhilarating soma of the mission of life at the vedi in earlier days, and love to live the taste and message of it every day, then, loving the soma by heart and soul and passionately anxious for action, take the soma offered, and inspire and exhort these yajakas for the appointed tasks of the day.
Translation
O mighty ruler, you praise every day that eatable which you have taken at the time past and you in heart and spirit taking into use the offered Soma-juices and liking again Preserve them.
Translation
O mighty ruler, you praise every day that eatable which you have taken at the time past and you in heart and spirit taking into use the offered Soma-juices and liking again preserve them.
Translation
O soul, thou desirest to have the satisfaction of daily enjoying the pleasant and exhilarating nectar, which thou bearest in the highest state of spiritual elevation. Let thee, O keen soul, drink deep these essences of bliss, set forth before thee, fully gratified in heart and spirit.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(यत्) (दधिषे) धारितवानसि (प्रदिवि) प्रगते दिने काले (चारु) मनोहरम् (अन्नम्) भक्षणीयं पदार्थम् (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (पीतिम्) पानं भोगं वा (इत्) एव (अस्य) अन्नस्य (वक्षि) वच परिभाषणे-लट्। उपदिशसि (उत) अपि च (हृदा) हृदयेन (उत) (मनसा) मननेन (जुषाणः) सेवमानः (उशन्) कामयमानः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् पुरुष (प्रस्थितान्) उपस्थितान् (पाहि) रक्ष (सोमान्) ऐश्वर्ययुक्तान् पदार्थान् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পুরুষার্থিলক্ষণোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [মহান ঐশ্বর্যবান্ পুরুষ] (যৎ) যে (চারু) উত্তম (অন্নম্) অন্ন (প্রদিবি) পূর্বকালে/ গতসময়ে (দধিষে) তুমি ধারণ করেছিলে, (অস্য) সেই অন্নের (পীতিম্) পান বা ভোগকে (দিবেদিবে) প্রত্যহ (ইৎ) অবশ্যই (বক্ষি) তুমি উপদেশ করো/ দান করো, (উত) এবং (হৃদা) হৃদয় (উত) ও (মনসা) মনন দ্বারা (প্রস্থিতান্) উপস্থিত/বিদ্যমান (সোমান্) ঐশ্বর্যযুক্ত পদার্থকে (জুষাণঃ) সেবন এবং (উশন্) কামনা পূর্বক তুমি (পাহি) সংরক্ষণ করো/সুরক্ষিত করো ॥২॥
भावार्थ
মনুষ্য উত্তম জ্ঞান ও পদার্থ প্রাপ্ত করে সকলের সুখের জন্য প্রয়াস করুক ॥২॥
भाषार्थ
হে উপাসক! (প্রদিবি) প্রকৃষ্ট-বিবেকজ-জ্ঞানের প্রকাশে, (যদ্) যে (চারু অন্নম্) রুচিকর আধ্যাত্মিক-অন্ন অর্থাৎ আনন্দ-রস (দধিষে) তুমি ধারণ করো, (দিবে দিবে) প্রতিদিন (ইৎ) ই তুমি (অস্য) এই আনন্দরস (পীতিম্) পানের (বক্ষি) বহন করো, আস্বাদন করো (উশন্ ইন্দ্র) এবং ভক্তিরসের কামনাকারী হে পরমেশ্বর! আপনি (উত হৃদা) মানো নিজের হার্দিক ভাবনা দ্বারা, (উত) এবং (মনসা) ইচ্ছাপূর্বক, (জুষাণঃ) ভক্তিরসের সেবন করে, (প্রস্থিতান্) সমর্পিত (সোমান্) ভক্তিরসের (পাহি) রক্ষা করো, অর্থাৎ আপনার কৃপা দ্বারা আমাদের ভক্তিরস সদা বজায় থাকুক।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal