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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - विराडुष्णिक् सूक्तम् - शत्रु सेनासंमोहन सूक्त
    102

    इन्द्र॒ सेनां॑ मोहया॒मित्रा॑णाम्। अ॒ग्नेर्वात॑स्य॒ ध्राज्या॒ तान्विषू॑चो॒ वि ना॑शय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । सेना॑म् । मो॒ह॒य॒ । अ॒मित्रा॑णाम् ।अ॒ग्ने: । वात॑स्य । ध्राज्या॑ । तान् । विषू॑च: । वि । ना॒श॒य॒ ॥१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र सेनां मोहयामित्राणाम्। अग्नेर्वातस्य ध्राज्या तान्विषूचो वि नाशय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । सेनाम् । मोहय । अमित्राणाम् ।अग्ने: । वातस्य । ध्राज्या । तान् । विषूच: । वि । नाशय ॥१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    युद्ध विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् ! (अमित्राणाम्) शत्रुओं की (सेनाम्) सेना को (मोहय) व्याकुल कर दे। (अग्नेः) अग्नि के और (वातस्य) पवन के (ध्राज्या) झोंके से (विषूचः) सब ओर फिरनेवाले (तान्) चोरों को (वि, नाशय) नाश कर डाल ॥५॥

    भावार्थ

    राजा अपनी सेना के बल से शत्रुसेना को जीते और जैसे दावानल वन को भस्म करता और प्रचण्ड वायु वृक्षादि को गिरा देता है, वैसे ही विघ्नकारी बैरियों को मिटाता रहे ॥५॥ इस मन्त्र का दूसरा आधा अ० ३।२।३। में आया है ॥

    टिप्पणी

    ५−(इन्द्र)। हे परमैश्वर्य राजन्। (सेनाम्)। चमूम्। पृतनाम्। (मोहय)। मूढां कुरु। (अमित्राणाम्)। म० ३। पीडकानां शत्रूणाम्। (अग्नेः)। पावकस्य। (वातस्य)। पवनस्य। (ध्राज्या)। वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। इति ध्रज गतौ-इञ्। वेगगत्या। (तान्)। म० ३। चोरान्। (विषूचः)। विषु+अञ्चु-क्विन्। जसि (प्रतीचः) इति शब्दवत् सिद्धिः-म० ४। सर्वतः प्राप्तान्। (वि, नाशय)। विध्वंसय ॥

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    विषय

    मोहन-अग्नेय तथा वायव्यास्त्र

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक सेनापते ! तू (अमित्राणाम्) = शत्रुओं की (सेनाम्) = सेना को (मोहय) = मूढ़ बना दे। मोहनास्त्र के प्रयोग से वे चेतनाशून्य हो जाएँ अथवा प्रबल मारकाट से वे घबरा जाएँ। २. (अग्नेः) = अग्नि की तथा (वातस्य) = वायु की (ध्राज्या) = प्रबल गति से, अर्थात् आग्नेयास्त्र के प्रबल आक्रमण से (तान्) = उन शत्रुओं को (विषूच:) = विविध दिशाओं में गतिवाला करके-खदेड़कर (विनाशय) = नष्ट कर दे।

    भावार्थ

    सेनापति मोहनास्त्र, आग्नेयास्त्र व वायव्यास्त्र के प्रयोग से शत्रुओं को विदुत कर दे।

     

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे सम्राट् ! (अमित्राणाम् सेनाम्) शत्रुओं की सेना को (मोहय) कर्त्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित कर। (विषूचः) सर्वत: पलायमान (तान्) उन सैनिकों को (अग्नि: वातस्य) अग्नि के तथा वायु के (ध्राज्या) वेग द्वारा (वि नाशय) विनष्ट कर।

    टिप्पणी

    [मोहय=देखो अथर्व० सूक्त २। मन्त्र १-४; तथा ५,६ अग्नेः = आग्नेय अस्त्र, तथा वातस्य=वायवीय अस्त्र।]

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    विषय

    अग्नि, वायव्य और तमसास्त्र

    शब्दार्थ

    (इन्द्र) हे राजन् ! (अमित्राणाम्) शत्रुओं की (सेनाम्) सेना को (मोहय) मोहित कर दे, किंकर्तव्यविमूढ़ बना दे और (अग्ने: ध्राज्या) आग्नेयास्त्र से (वातस्य) वायव्यास्त्र से (तान्) उन सब सैनिकों को (विषूच:) छिन्न-भिन्न करके (विनाशय) नष्ट कर डाल ।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में ग्राग्नेय और वायव्यास्त्र का स्पष्ट वर्णन है । (मरुतः) हे वीर सैनिको ! (या असौ) जो वह (परेषां सेना) शत्रुओं की सेना (ओजसा) अपने बल से (स्पर्धमाना) आक्रमण करती हुई (अस्मान्) हमारी ओर (अभि एति) चली आ रही है (ताम् ) उस सेना को (अपव्रतेन तमसा ) आच्छादक तमसास्त्र से, धूमास्त्र से (विध्यत) वेध डाल (यथा) जिससे (एषां) इनमें से (अन्यः अन्यम्) एकदूसरे को, कोई किसीको (न जानात्) न जाने, न पहचान पाए । इस मन्त्र में तमसा अथवा धूमास्त्र का स्पष्ट वर्णन है । वेद में युद्ध के सभी अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन है । वेद के आधार पर ही महाभारत काल में ऐसे-ऐसे अस्त्र और शस्त्रों का निर्माण किया गया था कि बीसवीं शताब्दी का वैज्ञानिक भी अभी तक वहाँ नहीं पहुँच पाया है। महाभारत में नारायणास्त्र का वर्णन आता है। आज के वैज्ञानिक अभी तक इस प्रकार का आविष्कार करने में असमर्थ रहे हैं ।

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    विषय

    शत्रु सेनाओं के प्रति सेनापति के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) राजन् ! (अमित्राणाम्) शत्रुओं की (सेनां) सेना को (मोहय) किंकर्त्तव्यताविमूढ़ कर और (अग्नेः) अग्नि के और (वातस्य) प्रचण्ड वायु के (ध्राज्या) अस्त्र से (तान्) उनको (विषूचः) छिन्न भिन्न करके (विनाशय) नाश कर डाल। राजा शत्रु की सेना पर आग्नेयास्त्र और वायवास्त्र का प्रयोग करे।

    टिप्पणी

    ध्रज गतौ इत्यस्मादुणादिरिन् सार्वधातुकः। बाहुलकाद्वा इञ्। वसिपियजव्रजि इत्यादिषु सायणेन ध्रजेः पाठः कृतः नतु उणादौ क्वचित् ध्रजेः पाठ उपलभ्यते। क्षेमकरणत्रिवेदिनापि तथैवालेखि इति तच्चिन्त्यम् । (प्र०) ‘मनोमोहनं कृण्व इन्द्रामित्रेभ्यस्त्वम्’ इति पैप्प० सं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । अग्निमरुदिन्द्रादयो वहवो देवताः । सेनामोहनम् । १ त्रिष्टुप् । २ विराड् गर्भा भुरिक् । ३, ६ अनुष्टुभौ । विराड् पुरोष्णिक् । षडृचं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Storm the Enemy

    Meaning

    Indra, O commander of the power and force of the nation, bewilder, hypnotise or fascinate the forces of the enemies. Scattered and distracted as they are, throw them off by the stormy force of fire and wind and let them disappear.

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    Translation

    O resplendent king, throw the army of enemies into disorder. With the violent speed of fire and wind, destroy them fleeing in different directions.

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    Translation

    O’ Ruler; Bewilder the army of enemies and destroy the foemen with the furious rush, fire and wind (the weapon launched with fire and wind) from all Sides.

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    Translation

    O King, bewilder thou the foemen’s army. With the furious rush offiery and airy missiles drive them away to every side.

    Footnote

    Fiery missible is आग्नेयास्त्र, Airy missile is वायवास्त्र.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(इन्द्र)। हे परमैश्वर्य राजन्। (सेनाम्)। चमूम्। पृतनाम्। (मोहय)। मूढां कुरु। (अमित्राणाम्)। म० ३। पीडकानां शत्रूणाम्। (अग्नेः)। पावकस्य। (वातस्य)। पवनस्य। (ध्राज्या)। वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। इति ध्रज गतौ-इञ्। वेगगत्या। (तान्)। म० ३। चोरान्। (विषूचः)। विषु+अञ्चु-क्विन्। जसि (प्रतीचः) इति शब्दवत् सिद्धिः-म० ४। सर्वतः प्राप्तान्। (वि, नाशय)। विध्वंसय ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে সম্রাট্ ! (অমিত্রাণাম্ সেনাম্) শত্রুদের সেনাকে (মোহয়) কর্তব্যাকর্তব্যের জ্ঞান রহিত করো। (বিষূচঃ) সর্বতঃ পলায়মান (তান্) সেই সৈনিকদের (অগ্নেঃ বাতস্য) অগ্নির এবং বায়ুর (ধ্রাজ্যা) বেগ দ্বারা (বি নাশয়) বিনষ্ট করো।

    टिप्पणी

    [মোহয়=দেখো অথর্ব০ সূক্ত ২ । মন্ত্র ১-৪; এবং ৫,৬। অগ্নেঃ= আগ্নেয় অস্ত্র, তথা বাতস্য=বায়বীয় অস্ত্র।]

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    मन्त्र विषय

    যুদ্ধবিদ্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরম ঐশ্বর্যবান রাজন্ ! (অমিত্রাণাম্) শত্রুদের (সেনাম্) সেনাকে (মোহয়) ব্যাকুল করো/করে দাও। (অগ্নেঃ) অগ্নির এবং (বাতস্য) পবনের (ধ্রাজ্যা) আকস্মিক আঘাত দ্বারা (বিষূচঃ) চারিদিকে বিচরণকারী (তান্) চোরেদের (বি, নাশয়) বিনাশ করো/করে দাও ॥৫॥

    भावार्थ

    রাজা নিজের সেনার শক্তির মাধ্যমে শত্রুসেনাকে জয় করে এবং যেভাবে দাবানল বনকে ভস্ম করে এবং প্রচণ্ড বায়ু বৃক্ষাদিকে ফেলে দেয়, সেভাবেই বিঘ্নকারী শত্রুদের বিনাশ করুক ॥৫॥ এই মন্ত্রের অপর অর্ধেক অ০ ৩।২।৩। এ আছে॥

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