Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 13 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 7
    ऋषिः - भृगुः देवता - वरुणः, सिन्धुः, आपः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आपो देवता सूक्त
    59

    इ॒दं व॑ आपो॒ हृद॑यम॒यं व॒त्स ऋ॑तावरीः। इ॒हेत्थमेत॑ शक्वरी॒र्यत्रे॒दं वे॒शया॑मि वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । व॒: । आ॒प॒: । हृद॑यम् । अ॒यम् । व॒त्स: । ऋ॒त॒ऽव॒री॒: । इ॒ह । इ॒त्थम् । आ । इ॒त॒ । श॒क्व॒री॒: । यत्र॑ । इ॒दम् । वे॒शया॑मि । व॒: ॥१३.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं व आपो हृदयमयं वत्स ऋतावरीः। इहेत्थमेत शक्वरीर्यत्रेदं वेशयामि वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । व: । आप: । हृदयम् । अयम् । वत्स: । ऋतऽवरी: । इह । इत्थम् । आ । इत । शक्वरी: । यत्र । इदम् । वेशयामि । व: ॥१३.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 13; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जल के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (आपः) हे प्राप्ति के योग्य जल धाराओं ! (इदम्) यह (वः) तुम्हारा (हृदयम्) स्वीकार योग्य हृदय वा कर्म है। (ऋतावरीः) हे सत्यशील [जलधाराओं !] (अयम्) यह (वत्सः) निवास देनेवाला, आश्रय है। (शक्वरीः) हे शक्तिवालियों ! (इत्थम्) इस प्रकार से (इह) यहाँ पर (आ इत) आओ, (यत्र) जहाँ (वः) तुम्हारे (इदम्) जल को (वेशयामि) प्रवेश करूँ ॥७॥

    भावार्थ

    कृषि, यन्त्र, औषधादि में जल के यथायोग्य प्रयोग से प्राणियों को सुख मिलता है ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(इदम्)। उपरोक्तम्। (वः)। युष्माकम्। (आपः)। हे प्राप्तव्या जलधाराः। (हृदयम्)। वृह्रोः षुग्दुकौ च। उ० ४।१०। इति हृञ् हरणे-कथन् दुक् च, हरणं प्रापणं स्वीकारः स्तेयं नाशनं च। हरणीयं प्राप्तव्यं हृदयं कर्म वा। (वत्सः)। वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। इति वस निवासे-स। निवासकः। आश्रयः। (ऋतावरीः)। छन्दसीवनिपौ च। वा० पा० ५।२।१०९। इति मत्वर्थीयो वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। इति ङीब्रेफौ। अन्येषामपि दृश्यते। पा० ६।३।१३७। इति सांहितिको दीर्घः। वा छन्दसि। पा० ३।४।८८। इति जसः पूर्वसवर्णदीर्घः। हे ऋतवर्यः। सत्योपेताः। (इत्थम्)। अनेन प्रकारेण। (आ इत)। आगच्छत। (शक्वरीः)। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति शक्लृ शक्तौ-वनिप्। पूर्ववद् ङीब्रेफपूर्वसवर्णदीर्घाः। (शक्वर्यः)। शक्ताः। समर्थाः। (यत्र)। (इदम्)। इन्देः कमिन्नलोपः। उ० ४।१५७। इति इदि परमैश्वर्ये-कमिन्। उदकम्-निघ० १।१२। (वेशयामि)। प्रवेशयामि। अन्तः स्थापयामि ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ऋतावरी+शक्वरी

    पदार्थ

    १. हे (आप:) = जलो! (इदं हृदयम्) = यह मेरा हृदय (वः) = आपका है। मैं हृदय में आपके महत्त्व को समझता हूँ। हे (ऋतावरी:) = सत्य व यज्ञ आदि ऋतोंवाले जलो! (अयम्) = यह मैं (वत्स:) = आपका प्रिय हूँ। जलों के महत्त्व को समझनेवाला यह पुरुष जल-प्रिय बन जाता है। २. हे (शक्वरी:) = शक्ति देनेवाले जलो! (इह) = यहाँ-हमारे शरीर में (इत्थम्) = इसप्रकार ही (एत) = प्राप्त होओ, अर्थात् शरीर में प्रविष्ट होकर तुम शक्ति देनेवाले होओ। (यत्र) = जहाँ शरीर में (इदम्) = [इदानीम्] अब मैं (व:) = आपको (वेशयामि) = प्रवेश कराता हूँ, वहाँ आप शरीर में शक्ति देनेवाले होओ और मन में ऋत का स्थापन करो।

    भावार्थ

    ठीक प्रकार से विनियुक्त हुए-हुए जल हमारे शरीरों को शक्तिशाली बनाएँ और हृदयों को ऋत [सत्य व यज्ञ] से युक्त करें।

    विशेष

    अगले सूक्त का विषय 'गोष्ठ' है। गोष्ठवाला व्यक्ति ही 'ब्रह्मा' बनता है। ब्रह्मा बनने के लिए गोपालन आवश्यक है। गौओं का मानव जीवन के निर्माण में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके दूध का प्रयोग करनेवाला व्यक्ति, 'नीरोग, निर्मल व दीप्स' बनता है। उन्नत होता हुआ यह 'ब्रह्मा' [great] बन जाता है। यही इस सूक्त का ऋषि है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (आप:) हे आपः! (इदम्) उदक (व:) तुम्हारा (हृदयम्) हृदय१ है, (अयम् वत्सः) [उदक] यह तुम्हारा वत्स है (ऋतावरी:) हे उदकवाली नदियों! (इह) इस स्थान में (शक्वरीः) हे शक्तिशाली आपः! (इत्थम्) इस प्रकार तुम (एत) आओ, (यत्र) जिस स्थान में (व:) तुम्हारे (इदम्) उदक को (वेशयामि) मैं प्रविष्ट करता हूँ।

    टिप्पणी

    ["इदम् उदकनाम" (निघं० १।१२)। यह उदक "ऋतावरी:" ऋत अर्थात् जलवाली नदियों का हृदयरूप है। हृदय में रक्तरूपी उदक होता है, तुम में भी ऋत अर्थात् उदक विद्यमान है, "ऋतम् उदकनाम" (निघं० १।१२) इस उदक के कारण नदियों को ऋतावरी: कहा है। "ऋतावर्यः नदीनाम" (निघं० १।१३)। उदक नदियों से उत्पन्न होते हैं, अत: उदक नदियों के वत्स हैं। आपः हैं शक्वरीः, शक्तिशाली। इन द्वारा कृषि होती है तथा अन्य कार्य भी सम्पन्न होते हैं। वेशयामि द्वारा कुल्या का वर्णन हुआ है। कुल्या२ है धारा, नहर।] [१. जिस स्थान में कि उदक का प्रवेश हुआ है उसे हृदय कहा है, उदकपूर्ण स्थान हृदय-सदृश है। २. कौ पृथिव्यां लीयते। जोकि पृथिवी में ही लीन हो जाती है, समुद्र तक नहीं पहुँचती।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    जलों के नामों के निर्वाचन ।

    भावार्थ

    हे (आपः) जलो ! (वः) तुम्हारी (इदं) यह जीवन-शक्ति (हृदयम्) हृदय, सारभूत पदार्थ है । हे (ऋतावरीः) ऋत=चेतनाशक्ति को अपने भीतर गुप्त रखने वाले जलो ! (अयं) यह मण्डूक आदि जलजन्तु तुम्हारे (वत्सः) बच्चों के समान हैं । हे (शक्वरीः) शक्तिसम्पन्न जलो ! आप (इह) इस भूतल पर (इत्थम्) इस प्रकार मेरे बनाये यन्त्रमार्गों से (एत) गति करो (यत्र) जहां २ (इदम्) इस प्रकार से (वः) आपको (वेशयामि) प्रवेश कराऊं । तभी तुम मेरे बहुतसे यन्त्रों को शक्ति से चला सकोगे ।

    टिप्पणी

    विज्ञानों का विशेष विवरण वैज्ञानिक ग्रन्थों से जानना चाहिये । ‘आपः’ शब्द से प्रजाओं का भी ग्रहण होता है उस पक्ष में भी यह सूक्त स्पष्ट है। जैसे— (१) हे प्रजाओ ! ‘अहि’ अर्थात् कभी न मरने हारे आत्मा के समान राजा पर आघात होने पर आप लोग विचलित होकर नाद करती हो, इस कारण आपका नाम ‘नदी’ है। और राजा के विचलित हो जाने पर प्रजाएं भी भाग जाती हैं इसलिये प्रजाओं का एक नाम ‘सिन्धु’ है। (२) वरुण रक्षक राजा से प्रेरित होकर शीघ्र उन्नति करती हो । तुम्हें इन्द्र प्राप्त होता है इसलिये तुम ‘आपः’ कहाती हो । (३) यथेच्छ उच्छृंखल चलती हुई तुम को इन्द्र राजा ने व्यवस्था से रोक दिया इससे तुम्हारा नाम ‘वार्’ है । (४) एक देव = राजा तुम पर अधिष्ठाता होकर रहता है वह तुम सब को उन्नत करता है इसलिये तुम्हारा एक नाम ‘उदक’ है । (५) हे उत्तम प्रजाओ ! तुम ही राजा के पोषक पदार्थ हो, तुम अग्नि=सेनापति और सोम=राजा और विद्वान् दोनों का पोषण करती हो । तुम्हारा तीव्र रस=क्षात्रबल, मुझ राजा को प्राण और तेज साथ २ प्राप्त हो । (६) मैं राजा देखता हूं और सुनता भी हूं कि मेरी घोषणा भी प्रजा में प्रचारित होती है और मेरी वाणी का हुक्म भी माना जाता है। जब इन सम्पन्न प्रजाओं को मैं अपने सुप्रबन्ध से प्रसन्न कर देता हूं तब मैं भी अमृत = स्वर्ग के भोग के समान अपने को समझता हूं । अर्थात् प्रजा के प्रसन्न कर देने पर ही राजा को भी परम सुख है । है । इसी प्रकार यह सूक्त अध्यात्म पक्ष में इन्द्रियों पर लगता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः । वरुणः सिन्धुर्वा देवता । १ निचृत् । ५ विराड् जगती । ६ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४, ७ अनुष्टुभः । सप्तर्चं सूक्तम् ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Water

    Meaning

    O waters of life worth attaining, this life flow is but your essence at heart. O streams of the life of truth and law incarnate, this life is but your child. O power and energies of life on the flow, come here to me in such a manner that I may receive into me the fluid essence of life, ultimately, the life that is yours.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O waters, this is your heart. O supporters of eternal truth, this sacrifice is your dear child. O mighty bestowers, may you come here, this way, where now I place you.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    This strength of life is the central power of these waters. These living creature abiding in water are the calf of them. These mighty streams flow. Let us take advantage from them everywhere.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O waters, this life-infusing power of yours, is a thing valuable like the heart. This frog and other watery animal cules are your children. O invigorating waters, flow here, justhere, where I use you in my machine.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(इदम्)। उपरोक्तम्। (वः)। युष्माकम्। (आपः)। हे प्राप्तव्या जलधाराः। (हृदयम्)। वृह्रोः षुग्दुकौ च। उ० ४।१०। इति हृञ् हरणे-कथन् दुक् च, हरणं प्रापणं स्वीकारः स्तेयं नाशनं च। हरणीयं प्राप्तव्यं हृदयं कर्म वा। (वत्सः)। वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। इति वस निवासे-स। निवासकः। आश्रयः। (ऋतावरीः)। छन्दसीवनिपौ च। वा० पा० ५।२।१०९। इति मत्वर्थीयो वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। इति ङीब्रेफौ। अन्येषामपि दृश्यते। पा० ६।३।१३७। इति सांहितिको दीर्घः। वा छन्दसि। पा० ३।४।८८। इति जसः पूर्वसवर्णदीर्घः। हे ऋतवर्यः। सत्योपेताः। (इत्थम्)। अनेन प्रकारेण। (आ इत)। आगच्छत। (शक्वरीः)। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति शक्लृ शक्तौ-वनिप्। पूर्ववद् ङीब्रेफपूर्वसवर्णदीर्घाः। (शक्वर्यः)। शक्ताः। समर्थाः। (यत्र)। (इदम्)। इन्देः कमिन्नलोपः। उ० ४।१५७। इति इदि परमैश्वर्ये-कमिन्। उदकम्-निघ० १।१२। (वेशयामि)। प्रवेशयामि। अन्तः स्थापयामि ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (আপঃ) হে আপঃ ! (ইদম্) উদক (বঃ) তোমাদের (হৃদয়) হৃদয়১, (অয়ম্ বৎসঃ) [উদক] ইহা তোমাদের বৎস (ঋতাবরীঃ) হে উদকসমৃদ্ধ নদীসমূহ ! (ইহ) এই স্থানে (শক্বরীঃ) হে শক্তিশালী আপঃ! (ইত্থম্) এইভাবে তোমরা (এত) এসো, (যত্র) যেই স্থানে (বঃ) তোমাদের (ইদম্) উদক-কে (বেশয়ামি) আমি প্রবিষ্ট করাই।

    टिप्पणी

    ["ইদম্ উদকনাম" (নিঘং০ ১।১২)। এই উদক "ঋতাবরীঃ" ঋত অর্থাৎ জলসম্পন্ন নদীর হৃদয়রূপ। হৃদয়ে রক্তরূপী উদক থাকে, তোমার মধ্যেও ঋত অর্থাৎ উদক বিদ্যমান আছে, "ঋতম্ উদকনাম" (নিঘং০ ১।১২) এই উদকের কারণে নদীকে ঋতাবরীঃ বলা হয়। "ঋতাবর্যঃ নদীনাম" (নিঘং০ ১।১৩) উদক নদী থেকে উৎপন্ন হয়, অতঃ উদক হলো নদীর বৎস। আপঃ হল শক্বরীঃ, শক্তিশালী। এর দ্বারা কৃষিকাজ হয় এবং অন্য কার্যও সম্পন্ন হয়। বেশয়ামি দ্বারা কূল্যার বর্ণনা হয়েছে। কুল্যা২ হলো ধারা/প্রবাহ।] [১. যে স্থানে উদকের প্রবেশ হয়েছে তাকে হৃদয় বলা হয়েছে, উদকপূর্ণ স্থান হৃদয় সদৃশ। ২. কৌ পৃথিব্যাং লীয়তে। যা পৃথিবীতেই লীন হয়ে যায়, সমূদ্র পর্যন্ত পৌঁছায় না।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्र विषय

    অপাং গুণা উপদিশ্যন্তেঃ

    भाषार्थ

    (আপঃ) হে প্রাপ্তিযোগ্য জলধারাসমূহ ! (ইদম্) এই (বঃ) তোমাদের (হৃদয়ম্) স্বীকার যোগ্য হৃদয় বা কর্ম। (ঋতাবরীঃ) হে সত্যশীল [জলধারাসমূহ !] (অয়ম্) ইহা (বৎসঃ) নিবাস প্রদানকারী, আশ্রয়। (শক্বরীঃ) হে শক্তিশালী জল ! (ইত্থম্) এইভাবে (ইহ) এখানে (আ ইত) এসো, (যত্র) যেখানে (বঃ) তোমার (ইদম্) জলকে (বেশয়ামি) প্রবেশ করাই॥৭॥

    भावार्थ

    কৃষি, যন্ত্র, ঔষধাদিতে জলের যথাযোগ্য প্রয়োগে প্রাণীরা সুখ প্রাপ্ত করে ॥৭॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top