अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 5
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भगः, आदित्याः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - कल्याणार्थप्रार्थना
77
भग॑ ए॒व भग॑वाँ अस्तु दे॒वस्तेना॑ व॒यं भग॑वन्तः स्याम। तं त्वा॑ भग॒ सर्व॒ इज्जो॑हवीमि॒ स नो॑ भग पुरए॒ता भ॑वे॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठभग॑: । ए॒व । भग॑ऽवान् । अ॒स्तु॒ । दे॒व: । तेन॑ । व॒यम् । भग॑ऽवन्त: । स्या॒म॒ । तम् । त्वा॒ । भ॒ग॒ । सर्व॑: । इत् । जो॒ह॒वी॒मि॒ । स: । न॒: । भ॒ग॒ । पु॒र॒:ऽए॒ता । भ॒व॒ । इ॒ह ॥१६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
भग एव भगवाँ अस्तु देवस्तेना वयं भगवन्तः स्याम। तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीमि स नो भग पुरएता भवेह ॥
स्वर रहित पद पाठभग: । एव । भगऽवान् । अस्तु । देव: । तेन । वयम् । भगऽवन्त: । स्याम । तम् । त्वा । भग । सर्व: । इत् । जोहवीमि । स: । न: । भग । पुर:ऽएता । भव । इह ॥१६.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
बुद्धि बढ़ाने के लिये प्रभात गीत।
पदार्थ
“(भगः) सेवनीय (देवः) विद्वान् विजयी पुरुष (एव) ही (भगवान्) भगवान् [भाग्यवान्, बड़े ऐश्वर्यवाला] (अस्तु) होवे” (तेन) इसी [कारण] से (वयम्) हम (भगवन्तः) भाग्यवान् (स्याम) होवें। (तम् त्वा) उस तुझको, (भग) हे ईश्वर ! (सर्वः=सर्वः अहम्) मैं सब (इत्) ही (जोहवीमि) बार बार पुकारता हूँ। (सः=सः त्वम्) सो तू, (भग) हे शिव ! (इह) यहाँ पर (नः) हमारा (पुरएता) अगुआ (भव) हो ॥५॥
भावार्थ
“सुकर्मी पुरुषार्थी पुरुष ही भाग्यवान् होवें” यह ईश्वर आज्ञा है, इससे सब लोग धार्मिक पुरुषार्थी होकर भाग्यवान् बनें। ईश्वर ही अपने ध्यानी आज्ञापालकों का मार्गदर्शक होता है ॥५॥ ‘देवः, जोहवीमि’ के स्थान पर ऋग् और यजुर्वेद में ‘देवा, जोहवीति’ पद हैं ॥
टिप्पणी
५−(भगः) सेवनीयः श्रेष्ठः पुरुषः। (भगवान्) ऐश्वर्यवान्। (देवः) विद्वान्। विजयी। (तेन) तेन कारणेन। (तम्) तादृशम्। (सर्वः) सर्वात्मना सहितोऽहम्। (जोहवीमि) अ० २।१२।३। पुनः पुनराह्वयामि। (सः) स त्वम्। (पुरएता) अ० ३।१५।१। अग्रगामी। अन्यद् गतम् ॥
विषय
प्रभुरूप धन
पदार्थ
१. (देवा:) = हे देवा! आपकी कृपा से हम यह समझ लें कि (भगः एव) = एश्वर्य के पुञ्ज प्रभु ही भगवान् (अस्तु) = ऐश्वर्य हैं-प्रभु को ही अपना सच्चा ऐश्वर्य समझें। (तेन) = उस प्रभु से ही (वयम्) = हम (भगवन्तः) = ऐश्वर्यवाले (स्याम) = हों। २. हे (भग) = प्रभुरूप ऐश्वर्य! (तं त्वा) = उस आपको (इत्) = ही (सर्वः जोहवीमि) = सब मनुष्य और मैं भी पुकारता हूँ। हे (भग) = ऐश्वर्य के पुञ्ज प्रभो! (स:) = वे आप (इह) = इस जीवन में (नः) = हमारे लिए (पुरः एता) = पथ-प्रदर्शक (भव) = होओ।
भावार्थ
हम प्रभु को ही वास्तविक धन समझें, कष्टों में उसे ही पुकारें, वही हमारा पथ प्रदर्शक हो।
भाषार्थ
(देवः) दाता (भग एव) भजनीय परमेश्वर ही (भगवान् अस्तु) ऐश्वर्यवान् हो, (तेन) उस द्वारा (वयम्) हम (भगवन्तः) ऐश्वर्यवाले (स्याम) हों। (भग) हे भजनीय! (सर्वः) मैं सर्वस्वरूप हुआ, (तम् त्वा इत्) उस तुझ का ही (जोहवीमि) पुनः-पुनः आह्वान करता हूँ, (भग) हे भजनीय! (सः) वह तू (इह) इस दानकर्म में (नः) हमारा (पुरः एता) अग्रगन्ता, अगुआ (भव) हो।
टिप्पणी
[भावना यह है कि परमेश्वर ही दाता है, सब प्राणियों को दान दे रहा है, उसी के दान द्वारा सब प्राणी जीवित होते हैं। अतः हे परमेश्वर! तू ही सदा भगवान् अर्थात् ऐश्वर्यशाली हो, और तेरे दिये दान द्वारा ही हम भी ऐश्वर्यवान् हों। मनुष्यदाता की इच्छा पर है कि वह माँगनेवाले को धन दे या न दे। तू तो बिना मांगे सबको दे रहा है। अतः मैं भी सर्वरूप होकर, सबको अपना जानकर तेरा बार-बार आह्वान करता हूँ, ताकि मुझमें सर्वभावना सदा बनी रहे।]
विषय
नित्य प्रातः ईश्वरस्तुति का उपदेश ।
भावार्थ
हे (भग) सकल ऐश्वर्य सम्पन्न ! (तं) उस (त्वां) आप की (जोहवीमि) जिस प्रकार मैं उपासना करता हूं उसी प्रकार (सर्वः इत्) सब प्राणी ही उपासना करते हैं । (सः) वह आप, हे (भग) ईश्वर ! (इह पुरः- एता) हमारे इन सब कामों में प्रथम स्मरण करने योग्य (भव) हो । हे ईश्वर ! आप (भगः) ‘भग’ ऐश्वर्यस्वरूप इसीलिये हो क्योंकि आप (भगवान्) भगवान् अर्थात् समस्त ऐश्वर्यों से सम्पन्न (देवः अस्तु) देव हो । (तेन) उस आपकी कृपा से (वयं) हम भी (भगवन्तः) ऐश्वर्य से सम्पन्न (स्याम) हो जाय ।
टिप्पणी
(प्र०) ‘देवाः’ इति यजुः०, ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः । बृहस्पत्यादयो नाना देवताः । १ आर्षी जगती । ४ भुरिक् पंक्तिः । २, ३, ५-७ त्रिष्टुभः । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मन्त्रार्थ
दोनों दृप्रियों में समान-(भगवान् देवः-भगः-एव अस्तु) भगवान् परमात्मदेव ही हम उपासकों का ऐश्वर्य हो हम अन्य ऐश्वर्य को नहीं चाहते (तेन वयं भगवन्तः स्याम) उससे हम ऐश्वर्यवाले हों (भगतं त्वा सर्व:-इत्-जोहवीमि) हे भगरूप परमात्मन् उस तुझको सर्व परिवार युक्त मैं पुनः पुनः प्रशंसित कर रहा हूं (भग सः-इह नः पुरः-एता भव) भग-ऐश्वर्यरूप परमात्मन् ! वह तू इस परिवार में या इस संसार में हमारा अग्रगन्ता हो ॥५॥
विशेष
अथर्ववेदानुसार ऋषि:- अथर्वा (स्थिरस्वभाव जन) देवता- लिङ्गोक्ता: (मन्त्रों में कहे गए नाम शब्द) ऋग्वेदानु सार ऋषिः- वसिष्ठ: (अत्यन्तवसने वाला उपासक) देवता- १ मन्त्रे लिङ्गोक्ताः (मन्त्रगत नाम) २–६ भग:- (भजनीय भगवान्) ७ उषाः (कमनीया या प्रकाशमाना प्रातर्वेला) आध्यात्मिक दृष्टि से सूक्त में 'भग' देव की प्रधानता है बहुत पाठ होने से तथा 'भग एव भगवान्' (५) मन्त्र में कहने से, भगवान् ही भिन्न-भिन्न नामों से भजनीय है। तथा व्यावहारिक दृष्टि से भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं व्यवहार में भिन्न-भिन्न रूप में उपयुक्त होने से।
इंग्लिश (4)
Subject
Morning Prayer
Meaning
The Lord of Glory alone is the lord of glory and munificence. May he alone be our Deva, lord of light and generous giver. By his grace alone can we be great and prosperous. O Lord so glorious, I invoke and worship you with prayer as do all all-ways worship and pray. O Lord of glory, be our guide, leader and promoter here and now.
Translation
O gracious Lord, possessor of graces as you are, through you, may we obtain the graces. Every one, verily, repeatedly invokes you. O gracious Lord, may you be our champion at this solemnity. (Cf. Rv. VII.41.5)
Translation
O Bhaga’ (God the only object of adoration) please be our only object of service, so that we, the enlightened Person may attain felicity through thy grace for this purpose. O Bhaga; (God the only object of adoration) all men invoke thee as such be thou our leader here.
Translation
May Almighty God verily be Bliss-Bestower, and through Him, may happiness attend us as such with all my might I call Thee. As such be Thou our Leader here, O God!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(भगः) सेवनीयः श्रेष्ठः पुरुषः। (भगवान्) ऐश्वर्यवान्। (देवः) विद्वान्। विजयी। (तेन) तेन कारणेन। (तम्) तादृशम्। (सर्वः) सर्वात्मना सहितोऽहम्। (जोहवीमि) अ० २।१२।३। पुनः पुनराह्वयामि। (सः) स त्वम्। (पुरएता) अ० ३।१५।१। अग्रगामी। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(দেবঃ) দাতা (ভগ এব) ভজনীয় পরমেশ্বরই (ভগবান অস্তু) ঐশ্বর্যবান্ হোক, (তেন) উনার দ্বারা (বয়ম্) আমরা (ভগবন্তঃ) ঐশ্বর্যসম্পন্ন (স্যাম) হই। (ভগ) হে ভজনীয় ! (সর্বঃ) আমি সর্বস্বরূপ হয়ে, (তম্ ত্বা ইৎ) সেই তোমারই (জোহবীমি) বারংবার আহ্বান করি, (ভগ) হে ভজনীয় ! (সঃ) সেই তুমি (ইহ) এই দানকর্মে (নঃ) আমাদের (পুরঃ এতা) অগ্রগন্তা, প্রধান (ভব) হও।
टिप्पणी
[ভাবনা হল এই যে, পরমেশ্বরই হলেন দাতা, সকল প্রাণীদের দান দিচ্ছেন, উনার দান দ্বারা সমস্ত প্রাণী জীবিত হয়/থাকে। অতঃ হে পরমেশ্বর! তুমিই সদা ভগবান্ অর্থাৎ ঐশ্বর্যশালী, এবং তোমার প্রদত্ত দান দ্বারাই আমরাও যেন ঐশ্বর্যবান্ হই। মনুষ্যদাতার ইচ্ছার ওপর নির্ভর করে যে, সে প্রার্থনাকারীকে ধন দেবে নাকি দেবে না। তুমি তো না চাইতেই সবাইকে দান করো। অতঃ আমিও সর্বরূপ হয়ে, সকলকে নিজের জেনে তোমার বার-বার আহ্বান করি, যাতে আমার মধ্যে সর্বভাবনা সদা বজায় থাকে।]
मन्त्र विषय
বুদ্ধিবর্ধনায় প্রভাতগীতিঃ
भाषार्थ
"(ভগঃ) সেবনীয় (দেবঃ) বিদ্বান্ বিজয়ী পুরুষ (এব) ই (ভগবান্) ভগবান্ [ভাগ্যবান্, পরম ঐশ্বর্যবান] (অস্তু) হোক” (তেন) এই [কারণে] (বয়ম্) আমরাও যেন (ভগবন্তঃ) ভাগ্যবান্ (স্যাম্) হই। (তম্ ত্বা) সেই তোমাকে, (ভগ) হে ঈশ্বর ! (সর্বঃ=সর্বঃ অহম্) আমরা সকলে (ইৎ) ই (জোহবীমি) বারংবার আহ্বান করি। (সঃ=সঃ ত্বম্) সেই তুমি, (ভগ) হে শিব ! (ইহ) এখানে (নঃ) আমাদের (পুরএতা) প্রধান (ভব) হও ॥৫॥
भावार्थ
"সুকর্মী পুরুষার্থী পুরুষই ভাগ্যবান্ হোক/হবে” এটা ঈশ্বরের আজ্ঞা, ফলে সকলে ধার্মিক পুরুষার্থী হয়ে ভাগ্যবান্ হোক। ঈশ্বরই নিজের ধ্যানী আজ্ঞাপালকদের মার্গদর্শক হন॥৫॥ ‘দেবঃ, জোহবীমি’ এর স্থানে ঋগ্ ও যজুর্বেদে ‘দেবা, জোহবীতি’ পদ রয়েছে ॥
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