अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
ऋषिः - वामदेवः
देवता - द्यावापृथिव्यौ, विश्वे देवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दुःखनाशन सूक्त
62
अ॑श्रे॒ष्माणो॑ अधारय॒न्तथा॒ तन्मनु॑ना कृ॒तम्। कृ॒णोमि॒ वध्रि॒ विष्क॑न्धं मुष्काब॒र्हो गवा॑मिव ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒श्रे॒ष्माण॑: । अ॒धा॒र॒य॒न् । तथा॑ । तत् । मनु॑ना । कृ॒तम् । कृ॒णोमि॑ । वध्रि॑ । विऽस्क॑न्धम् । मु॒ष्क॒ऽआ॒ब॒र्ह: । गवा॑म्ऽइव ॥९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्रेष्माणो अधारयन्तथा तन्मनुना कृतम्। कृणोमि वध्रि विष्कन्धं मुष्काबर्हो गवामिव ॥
स्वर रहित पद पाठअश्रेष्माण: । अधारयन् । तथा । तत् । मनुना । कृतम् । कृणोमि । वध्रि । विऽस्कन्धम् । मुष्कऽआबर्ह: । गवाम्ऽइव ॥९.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विघ्न की शान्ति के लिए उपदेश।
पदार्थ
(अश्रेष्माणः) दाह [डाह] न करनेवाले पुरुषों ने [जगत् को] (अधारयन्) धारण किया है, (तथा) उसी प्रकार से ही (तत्) वह [जगत् का धारण] (मनुना) सर्वज्ञ परमेश्वर करके (कृतम्) किया गया है। (विष्कन्धम्) विघ्न को (वध्रि) निर्बल (कृणोमि) मैं करता हूँ, (गवाम् इव) जैसे बैलों के (मुष्काबर्हः) अण्डकोष तोड़नेवाला [बैलों को निर्बल कर देता है] ॥२॥
भावार्थ
पक्षपातरहित परमेश्वर संसार का धारण-पोषण करता है, उसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष किसी से वैर न करके उपकार करते आये हैं, वैसे ही प्रत्येक मनुष्य विघ्नों को हटाकर उन्नति करे, जैसे दुर्दमनीय बैल को असह्यबल से हीन करके कृषि आदि में चलाते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(अश्रेष्माणः)। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति श्रिवु दाहे-मनिन्। दाहशून्याः। अमत्सराः। (अधारयन्)। धृतवन्तः। (तथा)। तद्वदेव। (तत्)। धारणरूपं कर्म। (मनुना)। शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति मन बोधे-उ। सर्वज्ञेन परमेश्वरेण। (कृतम्)। अनुष्ठितम्। (कृणोमि)। करोमि। (वध्रि)। अदिशदिभूशुभिभ्यः क्रिन्। उ० ४।६५। इति बन्ध बन्धने क्रिन्। बन्ध्यम्। विफलम्। निर्वीर्यम्। (विष्कन्धम्)। अ० १।१६।३। वि+स्कन्दिर् गतिशोषणयोः-अच्। विशेषेण शोषकम्। विघ्नजातम्। (मुष्काबर्हः)। सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। इति मुष लुण्ठने, वधे च, कक्। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१। इति मुष्क+आङ्-बर्ह वधे दीप्तौ च-अण्। मुष्कम् अण्डकोषम्। आवृहति उन्मूलयतीति। अण्डकोषछेदकः। (गवाम्)। पुंगवानाम्। (इव)। यथा ॥
विषय
ईया व अविचारशीलता' से दूर
पदार्थ
१. (अभेष्माण:) = [श्रिष् श्रेषति to burn] ईया की अग्नि में न जलनेवाले पुरुष ही (अधारयन्) = इस जगत् का धारण करते हैं। ईर्ष्या की अग्नि में जलनेवाला पुरुष अपनी सारी शक्ति को अपने उत्थान में लगाने की बजाए दूसरों के विनाश में लगता है (तथा) = उसी प्रकार (तत्) = इस जगत् का धारण (मनुना कृतम्) = विचारशील पुरुष के द्वारा किया गया है। ईशून्य व विचारशील व्यक्ति ही जगत् का धारण करते हैं। २. ईर्ष्याशून्य व विचारशील बनकर उन्नतिपथ पर चलता हुआ मैं (किष्कन्धम्) = मार्ग में आनेवाले विघ्नों को इसप्रकार (बधि कृणोमि) = बधिया [निर्बल] कर देता हूँ, (इव) = जैसेकि (गवाम्) = बैलों के (मुष्का ) = अण्डकोशों को तोड़नेवाला उन (पुं) = गवों को निर्बल कर देता है-निवर्वीर्य कर देता है।
भावार्थ
ईया और अविचारशीलता ही हमें आगे नहीं बढ़ने देती। इनसे दूर होकर मैं उन्नति-पथ में आनेवाले विघ्नों को निर्वीर्य कर देता हूँ।
भाषार्थ
(अश्रेष्मान:) न दुग्ध हुए तत्वों ने (अधारयन्) हमारा धारण-पोषण किया हुआ है, (तथा) उस प्रकार का (तत्) वह विधान (मनुना) मनस्वी परमेश्वर ने (कृतम्) किया है। (मुष्काबर्ह:) मुष्कों अर्थात् अण्डकोषों का हनन (इव गवाम्) जैसे बैलों का किया जाता है, वैसे (वध्रि) बधिया तथा (विष्कन्धम्) अवशोषण (कृणोमि) मैं कर देता हूँ [जगत् का]। बर्ह= हिंसायाम् (भ्वादिः)।
टिप्पणी
['अश्रेष्माणः' जो प्रलय में दग्ध नहीं हुए उन्होंने हम सबका धारण-पोषण किया है। यह परमेश्वर ने विधान कर रखा है। परमेश्वर ही संसार का विधान करता और वह ही संसार को बधिया१ करता अर्थात् उत्पत्ति से रहित करता और अवशोषित करता है (प्रलय में); अश्रेष्माण:२ = अ+श्रिषु (दाह, भ्वादिः)। विष्कन्धम् = विशेषेण शोषणम्, (स्कन्दिर् शोषणे भ्वादिः)।] [१. प्रलयकाल में जगत् शक्तिरहित हो जाता है, यह जगह का बधियापन है। २. अश्रेष्माण:= दग्ध न होनेवाले तत्व तीन हैं, परमेश्वर, जीव और प्रकृति। प्रलयाग्नि भी इन्हें दग्ध नहीं कर सकती। इन तीनों ने जगत् का धारण-पोषण किया हुआ है। परमेश्वर तो कर्तृत्वरूप में जगत् का घर धारण-पोषण करता है। जीव निज कर्मों के फलस्वरूप भोगापवर्ग के लिए दृश्य जगत् की उत्पत्ति में कारण हुआ जगत् का धारण-पोषण करता है। प्रकृति तो साक्षात् रूप में दृश्य जगत् में परिणत हुई उसका धारण-पोषण कर रही है।]
विषय
प्रबल जन्तुओं और हिंसक पुरुषों के वश करने के उपाय ।
भावार्थ
विद्वान् पुरुष अपने ऊपर आक्रमणकारी जन्तुओं को किस प्रकार वश करें उसका उपदेश करते हैं—(अश्रेष्माणः) दूसरे को पीड़ा न पहुंचाने वाले दयालु या बहुत ममता न करने वाले अनासक्त पुरुष उन सब जन्तुओं को (अधारयन्) पालन पोषण ही करते हैं (तथा) और उसी प्रकार (मनुना) मननशील पुरुष भी (तत्) वही (कृतम्) करता है । हे पुरुषों ! (विष्कन्धं) विशेष रूप से जिनके स्कन्ध उठे हुए हों ऐसी जन्तुजाति को भी मैं (वध्रि) वश करने योग्य ही (कृणोमि) बनाता हूं । जिस प्रकार (गवाम् इव) बैलों को वश करने के लिये उनके (मुष्काबर्हः) अण्डकोशों को तोड़ दिया जाता है और इससे वे जन्तु वश हो जाते हैं उनका क्रूरस्वभाव टूट कर सौम्य हो जाता है। इसी प्रकार और भी प्रबल कन्धे वाले बलवान् जानवरों को वश करने का उपाय है ।
टिप्पणी
‘अश्लेष्माणोऽधा’ इति पैप्प० सं० । श्रिपुश्लिषु प्रुषु प्लुषु दाहे । भ्वादिः । ष्लिष श्लेषणे । चुरादिः । श्लिष आलिंगने, दिवादिः । इत्येतेभ्यो धातुभ्य सर्वधातुभ्य औणादिको मनिन् । कृतमित्यत्रः तव्यार्थे क्तः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः । द्यावावृथिव्यौ उत विश्वे देवा देवताः । १, ३ ५, अनुष्टुभः । ४ चतुष्पदा निचृद् बृहती । ६ भुरिक् । षडृचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Preventing Trouble
Meaning
Men free from violence, jealousy and indifference hold the world together against the bullies. The same is done by thinking men. I break down the trouble maker as the castrator emasculates the bull.
Translation
Those free from phlegm have kept it (the gout) under control. So it is done by a well-thinking man (Manu). I hereby make the gout impotent, as a castrater emasculates bulls.
Translation
The men free from jealousy hold the world in the way as God subsists it. I make the strength of obstacles weaker as the man emasculating bulls makes them weak.
Translation
Indefatigable souls sustain the universe, as does the Omniscient God. I render important an obstacle or a foe, as one emasculateth bulls.
Footnote
I refers to a learned, ceaseless worker.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(अश्रेष्माणः)। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति श्रिवु दाहे-मनिन्। दाहशून्याः। अमत्सराः। (अधारयन्)। धृतवन्तः। (तथा)। तद्वदेव। (तत्)। धारणरूपं कर्म। (मनुना)। शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति मन बोधे-उ। सर्वज्ञेन परमेश्वरेण। (कृतम्)। अनुष्ठितम्। (कृणोमि)। करोमि। (वध्रि)। अदिशदिभूशुभिभ्यः क्रिन्। उ० ४।६५। इति बन्ध बन्धने क्रिन्। बन्ध्यम्। विफलम्। निर्वीर्यम्। (विष्कन्धम्)। अ० १।१६।३। वि+स्कन्दिर् गतिशोषणयोः-अच्। विशेषेण शोषकम्। विघ्नजातम्। (मुष्काबर्हः)। सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। इति मुष लुण्ठने, वधे च, कक्। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१। इति मुष्क+आङ्-बर्ह वधे दीप्तौ च-अण्। मुष्कम् अण्डकोषम्। आवृहति उन्मूलयतीति। अण्डकोषछेदकः। (गवाम्)। पुंगवानाम्। (इव)। यथा ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(অশ্রেষ্মাণঃ) অদগ্ধ তত্ত্ব-সমূহ (অধারয়ন্) আমাদের ধারণ-পোষণ করে রেখেছে, (তথা) সেইরূপ (তত) সেই বিধান (মননা) মনস্বী পরমেশ্বর (কৃতম) করেছেন। (মুষ্কাবহঃ) মুষ্ক অর্থাৎ অণ্ডকোষের হনন (ইব গবাম্) যেমন বলদের করা হয়, তেমনই (বধ্রি) বন্ধ্যা/দূর্বল এবং (বিষ্কন্ধম্) বিশোষণ (কৃণোমি) আমি করে দিই। [জগতের]। বর্হ হিংসায়াম্ (ভ্বাদিঃ)।
टिप्पणी
['অশ্রেষ্মাণঃ' যিনি প্রলয়ে দগ্ধ হননি তিনি আমাদের সকলের ধারণ-পোষণ করেছেন। ইহা পরমেশ্বর বিধান করে রেখেছেন। পরমেশ্বরই সংসারের বিধান করেন এবং তিনিই সংসারকে দূর্বল১ করেন অর্থাৎ উৎপত্তিরহিত করেন এবং অবশোষিত করেন (প্রলয়কালে); অশ্রেষ্মাণঃ২= অ + শ্রিষ (দাহে, ভ্বাদিঃ)। বিষ্কন্ধম্ = বিশেষেণ শোষণম্, (স্কন্দির্ শোষণ ভ্বাদিঃ)] [১. প্রলয়কালে জগৎ শক্তিরহিত হয়ে যায়, ইহা জগতের দূর্বলতা। ২. অশ্রেষ্মাণঃ= দগ্ধ না হওয়া তত্ত্ব তিনটি, পরমেশ্বর, জীব এবং প্রকৃতি। প্রলয়াগ্নিও এই তিন তত্ত্বকে দগ্ধ করতে পারে না। এই তিনটি জগতের ধারণ-পোষণ করছে। পরমেশ্বর তো কর্তৃত্বরূপে জগতের ধারণ-পোষণ করেন। জীব নিজ কর্মের ফলস্বরূপ ভোগাপবর্গের জন্য দৃশ্য জগতের উৎপত্তিতে কারণ হওয়া জগতের ধারণ-পোষণ করে। প্রকৃতি তো সাক্ষাৎ রূপে দৃশ্য জগতে পরিণত হয়ে তার ধারণ-পোষণ করছে ।]
मन्त्र विषय
বিঘ্নশমনায়োপদেশঃ
भाषार्थ
(অশ্রেষ্মাণঃ) দাহ [ঈর্ষা] করে না এমন পুরুষগণ [জগতকে] (অধারয়ন্) ধারণ করেছে, (তথা) তেমনই (তৎ) তা/সেই [জগতের ধারণ] (মনুনা) সর্বজ্ঞ পরমেশ্বর দ্বারা (কৃতম্) কৃত/করা হয়েছে। (বিষ্কন্ধম্) বিঘ্নকে (বধ্রি) নির্বল (কৃণোমি) আমি করি, (গবাম্ ইব) যেমন বলদের (মুষ্কাবর্হঃ) অণ্ডকোষ ছেদক [বলদকে নির্বল করে দেয়] ॥২॥
भावार्थ
পক্ষপাতরহিত পরমেশ্বর সংসারের ধারণ-পোষণ করেন, তেমনই ধর্মাত্মা পুরুষ কারোর প্রতি শত্রুতা/হিংসা না করে উপকার করে, সেভাবেই প্রত্যেক মনুষ্য বিঘ্নকে দূর করে উন্নতি করে, যেমন দুর্দমনীয় বলদকে অসহ্যবল দ্বারা হীন/ক্ষীণ করে কৃষিকাজে প্রয়োগ করা হয় ॥২॥
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