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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वामदेवः देवता - द्यावापृथिव्यौ, विश्वे देवाः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - दुःखनाशन सूक्त
    83

    एक॑शतं॒ विष्क॑न्धानि॒ विष्ठि॑ता पृथि॒वीमनु॑। तेषां॒ त्वामग्र॒ उज्ज॑हरुर्म॒णिं वि॑ष्कन्ध॒दूष॑णम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽशतम् । विऽस्क॑न्धानि । विऽस्थि॑ता । पृ॒थि॒वीम् । अनु॑ । तेषा॑म् । त्वाम् । अग्रे॑ । उत् । ज॒ह॒रु॒: । म॒णिम् । वि॒स्क॒न्ध॒ऽदूष॑णम् ॥९.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकशतं विष्कन्धानि विष्ठिता पृथिवीमनु। तेषां त्वामग्र उज्जहरुर्मणिं विष्कन्धदूषणम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽशतम् । विऽस्कन्धानि । विऽस्थिता । पृथिवीम् । अनु । तेषाम् । त्वाम् । अग्रे । उत् । जहरु: । मणिम् । विस्कन्धऽदूषणम् ॥९.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 9; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विघ्न की शान्ति के लिए उपदेश।

    पदार्थ

    (एकशतम्) एक सौ एक (विष्कन्धानि) विघ्न (पृथिवीम् अनु) पृथिवी पर (विष्ठिता=०−तानि) फैले हुए हैं [हे शूर !] (तेषाम् अग्रे) उनके सन्मुख (विष्कन्धदूषणम्) विघ्ननाशक (मणिम्) प्रशंसनीय मणिरूप (त्वाम्) तुझको उन्होंने [देवताओं ने] (उत् जहरुः) ऊँचा उठाया है ॥६॥

    भावार्थ

    प्रतिष्ठित लोग राजा को ‘एकशतम्’ अनेक विघ्नों से रक्षा के लिए अग्रगामी बनाते हैं, इसलिये राजा अपने धर्म का यथार्थ पालन करे ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(एकशतम्)। एकं च शतं चैकशतम्। एकोत्तरशतसंख्यानि। अपरिमितानि। (विष्कन्धानि)। म० २। विघ्नाः। (विष्ठिता)। शेर्लोपः। विविधं स्थितानि। (पृथिवीम् अनु)। अनुर्लक्षणे। पा० १।४।८४। इत्यनोः कर्मप्रवचनीयत्वम्। कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया। पा० २।३।८। इति द्वितीया। भूमिं प्रति। (तेषाम्)। विघ्नानाम्। (अग्रे)। पूर्वम्। (उज्जहरुः)। हृञ् हरणे-लिट् उज्जह्रुः। उद्धृतवन्तः। उन्नीवन्तः। (मणिम्)। मण शब्दे-इन्। शब्दनीयम्। स्तुत्यम्। प्रशस्यम् मणिरूपं वा। (विष्कन्धदूषणम्)। विघ्ननाशकम् ॥

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    विषय

    एकशतं विष्कन्धानि

    पदार्थ

    १. (एकशतम्) = एक और सौ, अर्थात् एक सौ एक (विष्कन्धानि) = विश्वभूत रोग (पृथिवीं अनु विष्ठिता) = इस शरीररूप पृथिवी में रह रहे हैं। ये रोग ही वे विघ्न हैं जो हमें उन्नति के मार्ग में आगे बढ़ने से रोकते हैं। २. (तेषां अग्रे) = उनके सामने, अर्थात् उनपर आक्रमण करने के लिए (देवा:) = देववृत्ति के ज्ञानी पुरुष (विष्कन्धदूषणम्) = रोगरूप इन सब विघ्नों को दूषित करनेवाली (त्वां मणिम्) = तुझ मणि को-वीर्यरूप मणि को (उत् जहरू:) = शरीर में ऊर्ध्व गतिवाला करते हैं। शरीर में व्याप्त हुई-हुई यह मणि सब रोगों को विशेषरूप से कम्पित करनेवाली होती है।

    भावार्थ

    शरीर में वीर्य की ऊर्ध्वगति होने पर रोगरूप विघ्न कम्पित होकर दूर हो जाते हैं और उन्नति-पथ पर आगे बढ़ना सम्भव होता है।

    विशेष

    वीर्य की ऊर्ध्वगति करनेवाला यह पुरुष 'अथर्वा' बनता है। यह दिन को बड़ी सुन्दरता से बिताता है। यही विषय अगले सूक्त में कहा गया है |

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    भाषार्थ

    (एकशतम्) एक सौ एक (विष्कन्धानि) शोषण (पृथिवीमनु) पृथिवी में (विष्ठिता) विविधरूप में स्थित हैं। (तेषाम्) उनके निवारण के लिए, (मणिम्१) तुझ पुरुष-रत्न को [देवों ने] (अग्रे) पहिले (उज्जहरुः) चुना है, (विष्कन्धदूषणम्) शोषकों के विनाशकरूप में।

    टिप्पणी

    [१. मणि = रत्न। (आप्टे)। रत्न="जातौ जातौ यदुत्कृष्टं तद्रत्नममिधीयते" (मल्लिनाथ)। मनुष्यों में उत्कृष्ट मनुष्य को भी मणि और रत्न कह सकते हैं, यथा चन्द्रमणि आदि।] [विष्ठिता=विष्ठितानि। विष्कन्ध हैं रोग, जोकि शरीर और शारीरिक शक्तियों का शोषण कर देते हैं, "स्कन्दिर् गतिशोषणयोः" (भ्वादिः)। ये रोग १०१ हैं। मनुष्य का जीवन है शतायुः और एक वर्ष वह मातृयोनि में निवास करता है। जीवन वर्षों की संख्यानुसार शोषक रोगों को १०१ कहा है। उज्जहरु:=उत्+हृञ् हरणे (भ्वादिः), ऊपर की ओर हरण करना, ऊंचा करना, चुनना।]

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    विषय

    प्रबल जन्तुओं और हिंसक पुरुषों के वश करने के उपाय ।

    भावार्थ

    हे मनुष्य (विष्कन्धानि) प्रबल स्कन्ध वाले हिंसक जन्तुओं की (एकशतं) एकसौ एक या सैकड़ों जातियां (पृथिवीम् अनु) पृथिवी पर विचरती हैं (तेषाम् अग्रे) उनके बीच मुख्याधिकारी (त्वां) तुझको (मणिम्) उनको शिरोमणि रूप से उन पर वश करने हारा (उत्-जहरुः) अधिष्ठाता रूप से स्थापित किया है। तू स्वयं (विष्कन्धदूषणम्) उन प्रबल जन्तुओं को वश करने में समर्थ हैं । इस अन्तिम मन्त्र में विष्कन्ध और दूषण ये दो शब्द प्रबल हिंसक जीव और उनके वश करने के उपायों के अतिरिक्त सेनानिवेश और उनके वश करने के उपाय पर भी प्रकाश डालते हैं । जिस प्रकार पशुओं को वश करने का उपाय कहा गया इसी प्रकार हिंसक पुरुषों की छावनी को भी, उन्हें परस्पर फोड़ कर उनको वश कर लेना चाहिये । संक्षेप से शत्रु-वश करने के लिये इतनी नीतियों का उपदेश किया है (१) बैलों के समान उनका मदकारी अंश निकाल देने से शत्रु वश में हो जाएंगे, (२) गैंडे के समान या मोटे कन्धे वाले पशु के समान दृढ व्यवस्था से बांधलो, (३) जिस शत्रु के पास अन्न न रहे उसको भूखा मार कर फिर अन्न दो और इस प्रकार उसे वश करो, (४) सदा किसी पर बन्धन मत रक्खो, नहीं तो वानर और कुत्तों की सी चीर फाड़ होती रहेंगी । इसलिये उनको अन्नादि पदार्थ देकर उनसे बदले में काम ले और व्यापार विनियम द्वारा उनको बांधे रहे, (५) यदि उत्पात करे तब उन पर तर्जना करे और बन्धन लगा दे ।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘उज्जह्रुः’ इति ह्विटनिसायणयोरभिमतः पाठः। (तृ० च०) ‘तेषां च सर्वेषां इदमस्ति भिष्कन्धदूषणम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः । द्यावावृथिव्यौ उत विश्वे देवा देवताः । १, ३ ५, अनुष्टुभः । ४ चतुष्पदा निचृद् बृहती । ६ भुरिक् । षडृचं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Preventing Trouble

    Meaning

    Hundreds are the disorders prevalent on the earth. For their prevention and counteraction you are raised to the high position in advance as antidote of the purest quality and transparence against evil, disorder and disease.

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    Translation

    A hundred and one are hindrances spread all over the earth. With them they have confronted you,the drug-tablet,remover of all hindrances.

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    Translation

    There spread over the earth one hundred evil designs (of wickeds) and to meet them squarely the king is made the preventive force by the learned men as he is the destroyer of all the evil designs.

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    Translation

    One hundred and one obstacles are there spread abroad over earth. To oppose and subdue- them, O Praiseworthy hero, the queller of obstacles, have sages exalted thee!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(एकशतम्)। एकं च शतं चैकशतम्। एकोत्तरशतसंख्यानि। अपरिमितानि। (विष्कन्धानि)। म० २। विघ्नाः। (विष्ठिता)। शेर्लोपः। विविधं स्थितानि। (पृथिवीम् अनु)। अनुर्लक्षणे। पा० १।४।८४। इत्यनोः कर्मप्रवचनीयत्वम्। कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया। पा० २।३।८। इति द्वितीया। भूमिं प्रति। (तेषाम्)। विघ्नानाम्। (अग्रे)। पूर्वम्। (उज्जहरुः)। हृञ् हरणे-लिट् उज्जह्रुः। उद्धृतवन्तः। उन्नीवन्तः। (मणिम्)। मण शब्दे-इन्। शब्दनीयम्। स्तुत्यम्। प्रशस्यम् मणिरूपं वा। (विष्कन्धदूषणम्)। विघ्ननाशकम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (একশতম্) এক শত এক (বিষ্কন্ধানি) শোষণ (পৃথিবীমনু) পৃথিবীতে (বিষ্ঠিতা) বিবিধরূপে স্থিত রয়েছে (তেষাম্) তা নিবারণের জন্য, (মণিম্১) [তোমাকে] পুরুষ-রত্নকে [দেবতাগণ] (অগ্রে) প্রথমে (উজ্জহরুঃ) নির্বাচন করেছে, (বিষ্কন্ধদূষণম্) শোষকদের বিনাশকরূপে।

    टिप्पणी

    [বিষ্ঠিতা= বিষ্ঠিতানি। বিষ্কন্ধ হলো রোগ, যা শরীর এবং শারীরিক শক্তির শোষণ করে, "স্কন্দির্ গতিশোষণয়োঃ" (ভ্বাদিঃ)। ইহা হলো ১০১টি রোগ। মনুষ্যের জীবন হলো শতায়ুঃ এবং এক বছর সে মাতৃযোনিতে নিবাস করে। জীবনবর্ষের সংখ্যানুসারে শোষক রোগকে ১০১ বলা হয়েছে। উজ্জহরুঃ= উৎ+হৃঞ্ হরণে (ভ্বাদিঃ), উপরের দিকে হরণ করা, উঁচু করা, নির্বাচন করা।] [১. মণি=রত্ন। (আপ্টে)। রত্ন = "জাতৌ জাতী যদুৎকৃষ্টং তদ্রত্নমভিধীয়তে" (মল্লিনাথ)। মনুষ্যদের মধ্যে উৎকৃষ্ট মনুষ্যকেও মণি এবং রত্ন বলা যেতে পারে, যথা চন্দ্রমণি আদি।]

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    मन्त्र विषय

    বিঘ্নশমনায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (একশতম্) একশত এক (বিষ্কন্ধানি) বিঘ্ন (পৃথিবীম্ অনু) পৃথিবীতে (বিষ্ঠিতা=০−তানি) বিস্তারিত/বিস্তৃত/স্থিত [হে বীর !] (তেষাম্ অগ্রে) সেগুলোর সন্মুখে (বিষ্কন্ধদূষণম্) বিঘ্ননাশক (মণিম) প্রশংসনীয় মণিরূপ (ত্বাম্) তোমাকে তারা [দেবগণ] (উৎ জহরুঃ) উন্নীত/উদ্ধৃত করেছেন ॥৬॥

    भावार्थ

    প্রতিষ্ঠিত লোকেরা রাজাকে ‘একশতম্’ অনেক বিঘ্ন থেকে রক্ষার জন্য অগ্রগামী/মুখ্য/প্রধান/অগ্রণী করে, এইজন্য রাজা নিজের ধর্মের যথার্থ পালন করে ॥৬॥

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