अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
ऋषिः - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
56
ब्रा॑ह्म॒णेन॒ पर्यु॑क्तासि॒ कण्वे॑न नार्ष॒देन॑। सेने॑वैषि॒ त्विषी॑मती॒ न तत्र॑ भ॒यम॑स्ति॒ यत्र॑ प्रा॒प्नोष्यो॑षधे ॥
स्वर सहित पद पाठब्रा॒ह्म॒णेन॑ । परि॑ऽउक्ता । अ॒सि॒ । कण्वे॑न । ना॒र्ष॒देन॑ । सेना॑ऽइव । ए॒षि॒ । त्विषि॑ऽमती । न । तत्र॑ । भ॒यम् । अ॒स्ति॒ । यत्र॑ । प्र॒ऽआ॒प्नोषि॑ । ओ॒ष॒धे॒ ॥१९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्राह्मणेन पर्युक्तासि कण्वेन नार्षदेन। सेनेवैषि त्विषीमती न तत्र भयमस्ति यत्र प्राप्नोष्योषधे ॥
स्वर रहित पद पाठब्राह्मणेन । परिऽउक्ता । असि । कण्वेन । नार्षदेन । सेनाऽइव । एषि । त्विषिऽमती । न । तत्र । भयम् । अस्ति । यत्र । प्रऽआप्नोषि । ओषधे ॥१९.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
[हे राजन् !] तू (ब्राह्मणेन) वेदज्ञानी ब्राह्मण, (कण्वेन) मेधावी, (नार्षदेन) नायकों की सभा के हितकारी पुरुष करके (पर्युक्ता) उपदिष्ट [ओषधसमान] (असि) है। (त्विषीमती) प्रकाशयुक्त (सेना) सेना, अर्थात् सूर्य की किरणपुञ्ज के (इव) समान (एषि) तू चलता है। (तत्र) वहाँ पर (भयम्) भय (न अस्ति) नहीं होता, (यत्र) जहाँ पर (ओषधे) हे ओषधितुल्य तापनाशक राजन् (व्याप्नोषि) तू व्यापक होता है ॥२॥
भावार्थ
जैसे सद्वैद्य की बतलाई ओषधि बड़ी गुणकारी होती है और जैसे सूर्य अपनी किरणों से अन्धकार मिटाता है, वैसे ही राजा वेदज्ञानी, बुद्धिमान् नरशिरोमणि पुरुषों के उपदेशक और सत्सङ्ग से प्रतापी होकर शत्रुओंका नाश करके प्रजा को सुख देता है ॥२॥
टिप्पणी
२−(ब्राह्मणेन) वेदज्ञेन विदुषा (पर्युक्ता) उपदिष्टौषधिवत् (असि) (कण्वेन) अ० २।३२।३। उपदेशकेन। मेधाविना-निघ० ३।१५। (नार्षदेन) नरो नायकाः सीदन्ति यत्रेति नृषत्। तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति नृषद् अण्। नृणां नायकानां सभाया हितकारकेण (सेनाइव) यथा सेना सूर्यकिरण-समूहः (एषि) गच्छसि (त्विषीमती) इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। इति त्विष दीप्तौ-इन् स च कित् ङीप्। दीप्तियुक्ता (न) (तत्र) (भयम्) भीतिः दरः (अस्ति) (यत्र) (प्राप्नोषि) व्याप्नोषि (ओषधे) हे ओषधिवत् तापनाशक राजन् ॥
विषय
नार्षद-कण्व-उपदिष्ट
पदार्थ
१. हे अपामार्ग! (नार्षदेन) = मनुष्यों में आसीन होनेवाले-सब मनुष्यों के भले के लिए उनमें स्थित होनेवाले (कण्वेन) = मेधावी (ब्राह्मणेन) = ज्ञानी पुरुष से (पर्युक्ता असि) = तू उपदिष्ट हुई है। तेरा ज्ञान नर-हितकारी ज्ञानी पुरुष द्वारा दिया गया है। २. हे (ओषधे) = दोषों का दहन करनेवाली अपामार्ग ओषधे! तु (त्विषीमती) = दीप्तिवाली (सेना इव एषि) = सेना के समान आती है। जैसे सेना शत्रुओं का सफाया कर देती है, उसी प्रकार तू रोगरूपी शत्रुओं का सफाया करती है। (यत्र) = जहाँ (प्राप्नोषि) = तू प्राप्त होती है (तत्र) = वहाँ (भयं न अस्ति) = रोगों का भय नहीं रहता।
भावार्थ
मनुष्यों का भला चाहनेवाले मेधावी, ज्ञानी पुरुष से उपदिष्ट होकर प्रयुक्त हुई यह अपामार्ग ओषधि रोग-भय का निवारण कर देती है।
भाषार्थ
(नार्षदेन) नृषद् है परमेश्वर, नर-नारियों में स्थित; नार्षद है, नृषद् का पुत्र, सम्भवतः अथर्व ऋषि, जिस द्वारा कि अथर्ववेद का आविर्भाव हुआ है; वह कण्व है मेधावी है; (ब्राह्मणेन) उस ब्रह्मविद्या के जाननेवाले अथर्वा द्वारा (परि) सर्वत्र अर्थात् समग्र अथर्ववेद में१ (उक्ता असि) हे औषधि ! तू प्रोक्त२ हुई है। (त्विषिमती) दीप्तिमती (सेना इव) सेना के सदृश तू (एषि) गति करती है [रक्षार्थ]; (तत्र) उस मनुष्य में (भयम्) भव (न अस्ति) नहीं होता (यत्र) जिसमें (ओषधे) हे औषधि ! (प्राप्नोषि) तु प्राप्त होती है।
टिप्पणी
[वेदादिशास्त्रों में चारों ऋषियों के नाम पठित हैं जिनके द्वारा चारों वेदों का आविर्भाव हुआ है। ये चारों ऋषि परमेश्वर के मानस-पुत्र हैं, अमैथुनी-सृष्टि के हैं। प्रतिसर्ग में इन नामवाले चार ऋषियों द्वारा चारों वेदों का आविर्भाव होता है। चारों ऋषियों और चारों वेदों का नित्य सम्बन्ध है, अतः वर्णन ऐतिहासिक नहीं। नार्षदेन= परमेश्वर को “ध्रुवसदं, ‘नृषदं३” मनःसदम्, अप्सुसदं घृतसदं, व्योमसदम्; पृथिवीसदं, अन्तरिक्षसदं दिविषदं, देवसदं, नाकसदम्” कहा है (यजुः० ९।२), अतः नार्षद है अथर्वा ऋषि। नृषद् का पुत्र। कण्वेन=कण्वः मेधाविनाम (निघं० ३।१५)।] [१. कहीं साक्षात्, कहीं परम्परया। २. यह औषधि है परमेश्वर। इसलिए परमेश्वर को "भेषजम्” कहा है। यथा “भेषजमसि” (यजु:० ३।५९), देखो महीधरभाष्य, तथा ऋषि दयानन्दभाष्य। ३. परमेश्वर को (यजुः १०।२४) में भी नृषद्” कहा है। इसकी व्याख्या में उव्वट ने कहा है कि "स प्रपञ्च ब्रह्माभिधायिनी अतिच्छन्दा अतिजगति” अर्थात् इस मन्त्र में प्रश्न सहित ब्रह्म का वर्णन हुआ है। यही अभिप्राय महीधर का भी है। इससे भी स्पष्ट होता है कि “निषेध” है ब्रह्मा, अतः नार्यद है नृषद् का पुत्र, राम्भवतः अथर्वा ऋषि, अथर्ववेद का शक्ति, जिसके द्वारा परमेश्वर ने अथर्ववेद प्रकट किया है।]
विषय
अपामार्ग-विधान का वर्णन।
भावार्थ
अपामार्ग विधान की उत्पत्ति को स्पष्ट करते हैं। हे अपामार्ग विधानस्वरूप ओषधे ! अनर्थकारियों के संतापकारक उपाय ! (नार्षदेन = नार-सदेन) नर अर्थात् नेता लोगों की परिषद् में बैठने वाले (कण्वेन) विद्वान् मेधावी (ब्राह्मणेन) ब्रह्मवेत्ता पुरुष ने (परिउक्ता असि) तेरा सब प्रकारों से विवेचन करके परिवचन या प्रयोग किया है। इसलिये तू (त्विषि-मती) बलवती, कान्तिमती, चमचमाती उत्तम रूप वाली (सेना-इव) सेना के समान (एषि) राष्ट्र में आती है। और (यत्र प्र-आप्नोषि) जहां प्राप्त हो जाती है (तत्र भयम् न अस्ति) वहां भय नहीं रहता। यह वह शस्त्र हथियार बन्द पुलिस का विभाग है जो दङ्गों को, बलवैयों और लुटेरों-चोरों-डाकुओं को नाश करने के लिये नियत किया जाता है। उस विधान को, राजसभा के विद्वान् लोग सब प्रकार के पहलुओं से विचार करके, प्रयोग और व्यवस्था करें। वनस्पति के पक्ष में अपामार्ग का प्रयोग, ब्राह्मण, यष्टि, कण्व और नार्षद नामक औषध के साथ मिलाकर प्रयोग करने से गुणकारी होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुक्र ऋषिः। अपामार्गो वनस्पतिर्देवता। २ पथ्यापंक्तिः, १, ३-८ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Apamarga:
Meaning
Created and composed by the Brahmana, scholar of science and Veda, and approved by the wise Councillor, you go forward shining and blazing like a victorious army. O Oshadhi, wherever you reach and act, fear stays no more.
Translation
O herb, you have been told of by an intellectual learned person, a Brahmana, respected among men, you come like an army of archers, there is no danger wherever you are available, O herb.
Translation
This Apamarga is praised by the wise who is the master of Vedic knowledge and who is the expert of performing Yajnas. It moves to destroy diseases like gleaming army. There is no fear or danger within limit of its range.
Translation
A learned Brahman, who sits in the Assembly of leaders, bath dwelt upon thy healing powers. Thou attackest a disease like a flashing army. Wherever thou art obtainable, there is no fear of any sort of disease.
Footnote
Griffith translates Kanva as a Rishi, son of Nrishad. This interpretation is unacceptable. as there is no history in the Vedas. Kanva means a learned person: मेधाविना—निघं 3825.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(ब्राह्मणेन) वेदज्ञेन विदुषा (पर्युक्ता) उपदिष्टौषधिवत् (असि) (कण्वेन) अ० २।३२।३। उपदेशकेन। मेधाविना-निघ० ३।१५। (नार्षदेन) नरो नायकाः सीदन्ति यत्रेति नृषत्। तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति नृषद् अण्। नृणां नायकानां सभाया हितकारकेण (सेनाइव) यथा सेना सूर्यकिरण-समूहः (एषि) गच्छसि (त्विषीमती) इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। इति त्विष दीप्तौ-इन् स च कित् ङीप्। दीप्तियुक्ता (न) (तत्र) (भयम्) भीतिः दरः (अस्ति) (यत्र) (प्राप्नोषि) व्याप्नोषि (ओषधे) हे ओषधिवत् तापनाशक राजन् ॥
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